लक्ष्मी के कई रूप

लक्ष्मी के कई रूप

आम धारणाओं से इतर ‘लक्ष्मी’ के कई रूप हैं। लक्ष्मी बांधकर रखने वालों के साथ नहीं रहतीं और न ही वह किसी के साथ पक्षपात करती हैं।

लक्ष्मी एकमात्र देवी हैं, जिनकी पूजा बौद्ध, जैन और हिंदू, तीनों धर्मों में की जाती है। किसी श्लोक में लक्ष्मी का सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद के श्री सूक्त में हुआ है। श्री सूक्त में उन्हें ‘श्री’ संबोधित किया गया है। यजमान इन श्लोकों द्वारा उनका आह्वान करते हैं, ताकि उनके घर में धन, धान्य, संपत्ति और संतान आ सके। लक्ष्मी की पहली प्रतिमा बौद्ध स्तूप के निकट पाई गई, जहां पर उन्हें कलश और कमल के फूलों के साथ दर्शाया गया है। जैन काव्यों के अनुसार किसी महान आत्मा के जन्म के पहले लक्ष्मी उस महापुरुष की माता के सपने में आती हैं। सभी परंपराओं में लक्ष्मी को मांगल्य और शुभ कार्यों से जोड़ा गया है।

आध्यात्मिक देश होते हुए भी हम लक्ष्मी को महत्व देते आए हैं। इसका अर्थ है कि हम अध्यात्म को धन, धान्य और संपत्ति से अलग नहीं समझते थे। सनातन धर्म में अध्यात्म और व्यावहारिकता में अलगाव नहीं दिखाई देता। हम लक्ष्मी को देवी मानते हैं। इसलिए आज भी यदि किसी का पैर जाने-अनजाने पैसों को छू जाता है, तो वह क्षमा मांगता है। हमें पैसों में और सोने में देवी दिखती हैं। इसलिए भारत में दिवाली, ओणम, विशू और बैसाखी जैसे कई उत्सव हैं, जिनमें हम पैसों, गहनों और धन की सजावट और उनकी पूजा करते हैं।

कथाओं के माध्यम से हमें धन के बारे में बहुत ज्ञान मिलता है। लक्ष्मी को लेकर पुराणों में कई तरह की कथाएं हैं। बौद्ध काव्यों के अनुसार लक्ष्मी का जन्म पाताल में हुआ था। उनके पिता का नाम पुलोमन था, इसलिए उन्हें ‘पुलोमी’ नाम दिया गया था। वह पाताल निवासिनी हैं, इस बात को हम रूपक भी मान सकते हैं। बीज धरती के नीचे उगते हैं, धातु और रत्न धरती के नीचे मिलते हैं, पशु धन के लिए चारा धरती के नीचे से आता है और जल भी धरती के नीचे जमता है। इस तरह सारा धन धरती के नीचे से ही आता है और इसलिए हम लक्ष्मी को पाताल निवासिनी कहते हैं।

पुराणों के अनुसार, इंद्र ने ‘पुलोमी से’ विवाह किया था। इंद्र से विवाह करने पर भी उन्हें इंद्र से कोई लगाव नहीं है। इंद्र एक पद्वी है, जो सबसे ज्यादा यज्ञ करने वाले राजा को मिलती है। इस तरह इंद्र बदलते रहते हैं, लेकिन पुलोमी या इंद्राणी या शचि, जो लक्ष्मी के दूसरे नाम हैं, एक ही रहती हैं। इसका अर्थ है कि धन किसी का प्रेमी नहीं है। अन्न, दीन या धनवान और पापी या पुण्यवान सभी को बराबर सुख देता है। इसका अर्थ है कि लक्ष्मी पक्षपात नहीं करतीं, वह सबसे एक समान प्रेम करती हैं।

कुछ ग्रंथों के अनुसार, लक्ष्मी भृगु पुत्री हैं। भृगु असुरों के गुरु थे और उन्हें ज्योतिष शास्त्र और वास्तु शास्त्र का ज्ञान था। इसका अर्थ है कि ज्योतिष और वास्तु शास्त्र के ज्ञानी को पता होता है कि लक्ष्मी को कैसे आकर्षित करना है। उदाहरण के तौर पर यदि आपको स्टॉक मार्केट का भविष्य पता हो, तो आप उसमें सफलता प्राप्त कर धन कमा सकते हो। शायद इसलिए लक्ष्मी को भृगु पुत्री कहा गया है।

पुराणों में लक्ष्मी का जन्म क्षीरसागर से होता है, इसलिए उन्हें सागर पुत्री भी कहा गया है। हमें सागर से नमक मिलता है, मोती मिलते हैं और मछलियां मिलती हैं। धरती से धन निकालने के लिए हमें श्रम करके कुछ देना पड़ता है। लेकिन, सागर हमसे कुछ नहीं मांगता, उसकी लहरें केवल देती रहती हैं। सागर अपने तट को कभी नहीं छोड़ता। इसलिए हमारे पौराणिक कथाओं में सागर को महादानी का दर्जा दिया गया है। कहते हैं कि लक्ष्मी इसी महादानी की बेटी हैं।

कथाओं में लक्ष्मी विष्णु की प्रिया हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि चूंकि विष्णु धर्म स्थापना करते हैं, इसलिए लक्ष्मी उनकी ओर जाती हैं। लक्ष्मी उनसे बहुत प्रेम करती हैं और इसलिए विष्णु का एक नाम ‘लक्ष्मी वल्लभ’ भी है। शायद हम इससे यह शिक्षा ले सकते हैं कि जो मत्स्य न्याय के विरुद्ध काम करते हैं, उनकी ओर लक्ष्मी आकर्षित होती हैं। चूंकि इंद्रदेव विलासी हैं, दानी नहीं। इसलिए लक्ष्मी को उनसे कोई लगाव नहीं है। इंद्र उन्हें बांधकर रखना चाहते हैं, जबकि विष्णु उन्हें आकर्षित करते हैं। इसलिए इंद्र सदैव रणभूमि में रहते हैं और विष्णु रंगभूमि में।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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