हरि-हर की अर्थव्यवस्था

हरि-हर की अर्थव्यवस्था

वेदों में विष्णु बड़े देवता नहीं माने गए हैं। वहां सबसे बड़े देवता हैं इंद्र। विष्णु उनके अनुज माने जाते हैं, जो तीन कदमों से सारी दुनिया पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन, पुराणों में विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता माने जाते हैं। सृष्टि का पालन करने का मतलब है धर्मस्थापना करना। धर्मस्थापना यानी अच्छी अर्थव्यवस्था।

धर्मस्थापना का मतलब है मत्स्य न्याय के विपरीत ऐसी संस्कृति स्थापित करना जहां पर बलवानशाली बलहीन की मदद करता है। इसके लिए हमें ऐसी आर्थिक व्यवस्था की आवश्यकता है जहां पर धन का उत्पादन और धन का विभाजन सही ढंग से हो।

जब हम विष्णु की मूर्ति देखते हैं, तो उनके साथ अर्थव्यवस्था की बातें जुड़ जाती हैं। जब वे कृष्ण के रूप में जीते हैं तब वे ग्वाला हैं, मतलब पशुपालन करके वे पशुओं से धन की प्राप्ति करते हैं। उनके बड़े भाई बलराम के हाथ में हल है, मतलब वे खेती से धन का उत्पादन करते हैं। राम को देखें तो राम एक राजा हैं, जो सुनिश्चित करते हैं कि सभी लोगों और सभी वर्णों में धन का विभाजन ठीक तरह से हो। कथाएं हैं कि जब भी मनुष्य धरती का शोषण करता है तभी भूदेवी गौ के रूप में भगवान विष्णु के पास पहुंचती हैं और उन्हें कहती हैं कि उसे उन अधर्मी, लालची राजाओं से मुक्त करने के लिए वे अवतरित हों। इसलिए विष्णु को गोपाल भी कहा जाता है। यहां पर गोमाता धरती का रूपक हैं और धरती का दूध या उसकी संपत्ति वनस्पति, पशु और धातु के रूप में उत्पादित होती है।

विष्णु को ‘हरि’ कहते हैं और उनके विपरीत हैं शिवजी जिन्हें ‘हर’ कहते हैं। विष्णु और शिव, हरि और हर में बहुत बड़ा अंतर है। विष्णु आर्थिक व्यवस्था से जुड़े हुए हैं, लेकिन शिवजी उससे दूर रहते हैं। वे एक श्रमण हैं, एक ऋषि हैं, एक तपस्वी हैं, जो पहाड़ों, गुफाओं और श्मशान भूमि में रहते हैं। वे दिगंबर हैं, जो अपने शरीर में विभूति या राख या भस्म लगाते हैं और कभी-कभी मृग छाल, गज चर्म और व्याघ्र चर्म जैसे पशु के चमड़े को पहनकर जंगल में घूमते हैं।

इसके विपरीत विष्णु हैं, जो क्षीरसागर पर लेटे रहते हैं और मक्खन पसंद करते हैं। उनका जीवन हमेशा नदियों के तट पर बीतता है, जैसे श्रीकृष्ण का यमुना के तट पर और राम का सरयू के तट पर। वे मधुवन जैसे अरण्य के साथ जुड़े हुए हैं और खेत-खलिहान के साथ भी। वे पीतांबर पहनते हैं। पीतांबर बनाने के लिए हमें जुलाहे, धोबी और किसानों की आवश्यकता होती है। वे गहने पहनते हैं, सोने और मोती के, जिसे बनाने के लिए जौहरी की आवश्यकता होती है। इसका मतलब है कि एक अर्थव्यवस्था के बिना विष्णु का शृंगार नहीं हो सकता।

लेकिन, शिवजी का कोई शृंगार नहीं होता। राख बनाने के लिए किसी उद्योग की आवश्यकता नहीं। लकड़ी या गोबर या किसी शव को जलाने से राख मिल जाती है। लेकिन विष्णु के चंदन को बनाने के लिए हमें कर्म करना पड़ता है। लकड़ी को घिसने का जितना कर्म करोगे, उतना ही चंदन निकलेगा। कर्म से ही फल निकलता है, यह ज्ञान हमें विष्णु के चंदन से प्राप्त होता है। दूध के मामले में भी शिवजी को कच्चा दूध दिया जाता है, लेकिन विष्णु को पक्का दूध, रबड़ी और मक्खन दिया जाता है। मतलब घी और मक्खन बनाने के लिए कार्य करना पड़ता है।

शिवजी कैलाश पर्वत पर बैठे हुए हैं, भूख से परे, योग तपस्या में विलीन। लेकिन, शक्ति उनसे कहती है कि भले ही आपको भूख नहीं लगती हो, पर लोगों को भूख लगती है। इसलिए वह कैलाश पति को काशी विश्वनाथ बनाकर पहाड़ से नीचे लेकर आती हैं क्योंकि काशी में ही बाज़ार है। जहां भूख होती है, वहीं बाज़ार होता है, वहीं अर्थव्यवस्था होती है और वहीं लक्ष्मी विराजमान हैं। जहां लक्ष्मी हैं, वही विष्णु रहते हैं।

पूंजीवादी सभ्यता में हमें यह निश्चित करना है कि हम किसकी भूख मिटाना चाहते हैं, केवल पूंजीवादी की या ग्राहक की या नौकर की या समाज की। विष्णु की अर्थव्यवस्था में हर आदमी की भूख मिटती है। शिवजी की अर्थव्यवस्था में हमें भूख से छुटकारा मिलता है, जिसकी कोशिश में हम योग करते हैं। लेकिन, विष्णु की अर्थव्यवस्था में हम स्वयं के लिए धन धान्य-संपत्ति की उत्पत्ति ही नहीं करते, उसका दान भी करते हैं। इस प्रकार ‘हर’ और ‘हरि’ की अर्थव्यवस्था से दुनिया में खुशहाली आ सकती है, एक जो भूख मिटाती है और दूसरी जो दान-दक्षिणा से भूख से संतुष्टि लाती है।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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