वर्ल्ड कोर्ट ऑफ वीमेन

वर्ल्ड कोर्ट ऑफ वीमेन: जहां हर अपील पर होती है सुनवाई

दुनियाभर की पीड़ित महिलाओं का और उनकी कहानियों को आवाज़ देने वाला मंच ‘वर्ल्ड कोर्ट्स ऑफ वीमेन’ के संस्थापक डॉ. कोरिने कुमार के साथ एक बातचीत।

हर अनुभव के दो पहलू होते हैं एक व्यवहारिक और दूसरा भावनात्मक। एक तार्किक और दूसरा भावपूर्ण तथा एक वस्तुनिष्ठ और दूसरा व्यक्तिनिष्ठ। इन दोनों पहलुओं को जब तक कोई निष्पक्ष तरीके से नहीं देख पाता तब तक वह अपने अनुभवों के साथ न्याय नहीं कर सकता। विशेषकर जब यह अनुभव मानव अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित हो। दुर्भाग्य से मौजूदा न्याय प्रणाली केवल तथ्यों को देखती है। उसके पास अपराध के पीछे की भावनाओं को देखने का समय ही नहीं है। न्याय प्रणाली की इसी कमी को पूरा करने के लिए एशियाई महिला मानवाधिकार परिषद् (एशियन वीमेंस ह्यूमन राइट काउंसिल) और बेंगलुरु के गैर-सरकारी संगठन विमोचना की संस्थापक सदस्य डॉ. कोरिने कुमार ने तीन दशक पहले ‘वर्ल्ड कोर्ट्स ऑफ वीमेन’ की शुरुआत की। वह बड़े पैमाने पर सार्वजनिक सुनवाई का आयोजन कर न्यायालय से सज़ा पाने वाली दुनियाभर की महिलाओं की मदद करना चाहती थी। इन महिलाओं को आंखें नम कर देने वाली अपनी हृदय विदारक कहानियां बताने के लिए एक मंच देना चाहती थी।

सोलवेदा के साथ एक विशेष साक्षात्कार में डॉ. कुमार ने महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा, एक सार्वभौमिक उद्देश्य के लिए संघर्ष और एक नकाबपोश पाकिस्तानी महिला की स्मृतियों से जुड़े अपने अनुभवों पर बात की, जिसने उन्हें जीवन में निरंतर आगे चलने के लिए प्रेरित किया।

क्या आप हमेंवर्ल्ड कोर्ट्स वीमेनके बारे में बता सकती हैं? इसकी अवधारणा आखिर कैसे विकसित हुई?

दो दशक पहले जब मेरे साथी कार्यकर्ता और मैं महिलाओं की समस्याओं का समाधान करने के कार्यों में जुटे थे, हमने पाया कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अन्याय को कभी भी मानव अधिकारों के उल्लंघन के रूप में नहीं देखा गया। वकीलों ने दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा के ज़्यादातर मामलों में पीड़िता को गवाही में केवल तथ्यों को पेश करने की सलाह देकर उनकी वास्तविक मानसिक पीड़ा को छुपाने की कोशिश की। परिणामस्वरूप न्यायालय इन मामलों को कभी भी वास्तविक रूप में नहीं देख पाए। ऐसे में हमें प्रतीत हुआ कि हम अपनी लड़ाई हारने लगे हैं। हमने सोचा कि यह अनुचित है क्योंकि तर्कसंगतता हमारी चेतना का केवल एक हिस्सा है, जबकि अंतर्ज्ञान दूसरा हिस्सा। पीड़ित महिलाओं (Suffering women)  की आहत भावनाओं और उनकी आपबीती की अनदेखी कर न्याय प्रणाली खुद ही महिलाओं के साथ न्याय नहीं कर रही है।

मैंने ‘वर्ल्ड कोर्ट ऑफ वीमेन’ (World Court of Women) की शुरुआत इसलिए की क्योंकि मैंने पाया कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए मौजूदा न्याय प्रणाली अपर्याप्त है। इस तरह के मामले न सिर्फ बढ़ रहे हैं बल्कि समय के साथ और ज़्यादा होते जा रहे हैं। सभी देशों की महिलाएं चाहे वह किसी भी नस्ल, वर्ग और जाति की हो इस हिंसा का शिकार हो रही हैं। हम 25 वर्षों से दुनियाभर में ऐसे ‘वर्ल्ड कोर्ट ऑफ वीमेन’ में महिलाओं के मामलों की सार्वजनिक सुनवाई कर रहे हैं।

इन न्यायालयों का उद्देश्य क्या है? इन्हें आयोजित करने के लिए किस तरह का काम होता है?

ये न्यायालय महिलाओं से अपनी पीड़ा को अपनी भावनाओं में अभिव्यक्त करने का आग्रह करते हैं। हमारा लक्ष्य न्याय दिलाना है। लेकिन हम न्याय को किसी सज़ा, बदला या प्रतिशोध के माध्यम से नहीं दिलवाते बल्कि प्रभावित लोगों की गरिमा को बहाल करते हुए दिलवाते हैं। इसके लिए प्रत्येक न्यायालय दो साल की तैयारी करता है। हम देश की राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए गरीबी, यौन हिंसा, तस्करी, परमाणु मुद्दा और शरणार्थी आदि जैसा कोई एक विषय उठाते हैं। हम महिलाओं को अपनी बात कहने के लिए एक सार्वजनिक लेकिन सुरक्षित स्थान की व्यवस्था करते हैं। हम नागरिक समाज संगठनों, गैर सरकारी संगठनों, कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, वकीलों और कलाकारों को अपने साथ जोड़ते हैं। हमारी कोशिश होती है कि हाशिए पर रहने वाली और अन्याय सहने की वजह से अपराध करने को विवश हुई महिलाओं की बात सुनी जाए। कुछ मामलों में हम हस्तक्षेप और मध्यस्थता की व्यवस्था भी करते हैं। जापान जैसे देशों में हम पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए वहां की कानूनी प्रणाली की मदद लेते हैं।

यह बड़ा काम है, इसके लिए समर्पण-धैर्य की ज़रूरत होती है। आप इसे करने की ताकत कैसे पाती हैं?

पहली ऐसी अदालत 1992 में पाकिस्तान के लाहौर में लगाई थी। इसे किसी सार्वजनिक स्थान पर नहीं लगाया जा सकता था, इसलिए हमने एक होटल बुक किया जहां 500 महिलाएं आई थी। इन महिलाओं में से मुझे विशेष रूप से महबूबा के बारे में याद है, उसने मुझे बताया कि उसका पति हमेशा उसे गाली देता था। एक दिन उसने उससे तीन बार तलाक कहा और फिर उसके चेहरे पर तेज़ाब फेंक दिया। यह कहकर महबूबा ने अपने चेहरे से नकाब हटा दिया था। इसके बाद उसने कहा, “आप आश्चर्यचकित हो रही होंगी कि मैं आपको अपना चेहरा इस तरह से क्यों दिखा रही हूं। मैं चाहती हूं कि आप इस पल को याद रखें।” मेरे साथ यह पहली बार हुआ था जब कोई महिला मेरे साथ बैठी थी, इस तरह से उसने मुझसे बात की थी और मेरी बात भी सुनी थी। आज 25 साल बाद भी मुझे महबूबा का वह चेहरा याद है। हर बार जब भी ऐसी अदालतों का आयोजन कठिन हो जाता और मैं जब भी हताश हो जाती हूं तो महबूबा का चेहरा मेरे सामने आ जाता है, इससे मुझे नई ताकत​ मिलती है। “सच तो यह कि मैं यह सब कुछ महबूबा के लिए ही कर रही हूं।”

किसी एक ऐसे न्यायालय के अनुभव के बारे में बताएं जो आज भी आपकी यादों में ताज़ा है?

1992 में हमनें जापान में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यौन दासियां बनाकर रखी गई महिलाओं के लिए एक अदालत लगाई थी। 1939 और 1945 के बीच 12 से 17 वर्ष की आयु की तीन लाख से अधिक युवा लड़कियों को पूरे एशिया में जापानी सैन्य छावनियों में बनाए गए वैश्यालयों में अपहरण कर कैद किया था। इन वैश्यालयों को ‘कम्फर्ट वुमेन स्टेशन’ कहा जाता था। जब जापानी सेना पीछे हटने लगी और उन्हें लगा कि अब उनके लिए इन महिलाओं की कोई उपयोगिता नहीं रह गई तो ऐसे में उन्होंने इन महिलाओं को उनके ही द्वारा खोदी गई कब्रों के पास खड़ा कर गोली मार दी। कुछ जो खुशकिस्मत रहीं उन्हें बसों, ट्रेनों और ट्राम के ज़रिए महाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में भेज दिया गया। इन महिलाओं ने 45 वर्षों तक ऐसा ही जीवन व्यतीत किया।

टोक्यो विश्वविद्यालय में आयोजित अदालत में एक ऐसी ही महिला ने अपनी अपनी दर्द भरी दास्तां सुनाई। वह कुछ देर मौन खड़ी रही। दर्शक भी चुपचाप प्रतीक्षा करते रहे। इसके बाद उस महिला ने सीटी बजाकर कुछ गाया। महिला ने बताया, “यह वही गीत है जो मेरे साथ बलात्कार करने वाला सैनिक हर रात को वैश्यालय आने वाले पुल​ को पार करते समय गाया करता था।” इतना कह कर वह म​हिला अपनी सीट पर जाकर बैठ गई। यह रूह कंपा देने वाली बात थी।

हम इन महिलाओं की गवाही को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के पास ले गए। लेकिन हर बार जब इसपर सुनवाई का समय आता तो जापानी प्रतिनिधिमंडल उठकर बाहर चला जाता। तीन साल के अथक प्रयासों के बाद आखिरकार उन्होंने इस सुनवाई में हिस्सा लिया और फिर वह प्रत्येक ऐसी महिला को 20 हज़ार डॉलर की मुआवज़ा राशि देने के लिए तैयार हुए।

इतने वर्षों के बाद आपको लगता है कि इन न्यायालयों का उद्देश्य पूरा हुआ है? आप भविष्य से क्या आशा रखती हैं?

अब अधिक संख्या में लोग इन न्यायालयों के बारे में बात करने लगे हैं। उन्हें एक बेहतर न्याय प्रणाली की आवश्यकता महसूस होती है। इन न्यायालयों में मानवाधिकारों पर चर्चा होती है। दुनियाभर में महिलाओं के साथ होने वाले मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों के बारे में इसके माध्यम से जागरूकता बढ़ाने का काम किया जा रहा है। हमारा लक्ष्य पीड़ित को प्रताड़ना और अन्याय से छुटकारा दिलाना है। इसकी शुरुआत हम यह कहते हुए कर सकते हैं कि चलिए महिला न्यायालयों का रूख करें। हो सकता है कि पहली बार में जैसा परिणाम हम चाहें वह न मिले लेकिन आखिरकार सफलता ज़रूर मिलेगी।

ऐसी दुनिया में जहां महिलाओं के प्रति गलतफहमी आपराधिक घटनाएं होती हैं, जहां हर महिला लगातार अपमान झेलती है, क्या आपको बदलाव की उम्मीद है?

हर दिन बीतने के साथ ऐसा लगता है जैसे कुछ भी नहीं बदला है। लेकिन मैं आपको बता सकती हूं कि मैंने 40 वर्षों में बड़ा बदलाव देखा है। साइबर अपराध और नस्लीय सफाए के लिए बलात्कार जैसी घटनाओं के माध्यम से हिंसा नए रूप ले रही है। लेकिन इसके साथ ही प्रतिरोध की आवाज़ भी बुलंद हो रही हैं। हाल में एक कार्यक्रम में मैं भारत की ग्रामीण युवतियों के साथ बातचीत कर रही थी। उन लोगों ने बताया कि वे विवाह करने की इच्छा नहीं रखती, क्योंकि वे अपने समाज में इसे बंधुआ मजदूरी के रूप में देखती हैं और ऐसी परंपरा के आगे झुकने के लिए तैयार नहीं हैं। इस तरह की चीज़ें हमारे समाज में हो रहे बड़े बदलाव का संकेत हैं।

लैंगिक समानता के लिए काम करने वाले व्यक्तियों या संगठन के लिए आप क्या संदेश देना चाहेंगी?

आधुनिकता के डार्क साइड को देखें। हमारे अधिकांश वर्तमान के मुद्दे कहां से उत्पन्न हुए इसे जानने के लिए हमें इनके मूल में जाना होगा। नस्लवाद, उपनिवेशवाद और गुलामी के बारे में अपना ज्ञान बढाएं। इतिहास से सीख लेते हुए हम अपने नारीवादी एजेंडे को और सशक्त बना सकते हैं। इन सबसे ज़्यादा यह महत्वपूर्ण है कि महिलाओं के रूप में समानता नहीं बल्कि बराबरी चाहते हैं। हमें अपने मतभेदों के बावजूद महिलाओं के गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार के लिए संघर्ष करने की ज़रूरत है।

  • डॉ. कोरिने कुमार महिलाओं के लिए काम करने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था 'ई वन टालर इंटरनेशनल' की महासचिव और बेंगलुरू स्थित गैर सरकारी संगठन 'विमोचना' और 'एशियाई महिला मानवाधिकार परिषद्' (एशियन वीमेंस ह्यूमन राइट काउंसिल -AWHRC) की संस्थापक सदस्य हैं। इसके अतिरि​​क्त वह एक दार्शनिक, लेखिका, कवियत्री और एक मानवाधिकार विचारक तथा कार्यकर्ता और मानवाधिकारों पर प्रकाशित दो जर्नल्स 'संघर्ष' और 'क्विल्ट' की संपादक भी हैं।
    (फोटो कर्टसी : लिएवे स्नेल्लिंग्स)
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