कचरा बीनने वालों का उत्थान करती एक बेमिसाल योद्धा

कचरा चुनने वालों का जीवन रोशन करने वाली नलिनी की कहानी

सोलवेदा के साथ खास बातचीत में नलिनी शेखर ने अपने संगठन के बारे में बात की। उन्होंने समाज के हाशिए पर रह रहे लोगों के जीवन में होने वाले बदलावों के बारे में विस्तार से जानकारी दी।

रोज़मर्रा की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में सड़क किनारे कचरा चुनने वालों को देखना एक आम बात ज़रूर हो सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि आज तक हमने उन पर गौर ही न किया हो। यह भी मुमकिन है कि गौर भी किया हो, लेकिन उनके जीवन और संघर्षों के बारे में शायद ही सोचा हो। हमारी ज़िंदगी को आसान और स्वच्छ बनाने में लगे वे लोग आज भी समाज में दुत्कारे जाते हैं। कचरा चुनने वाले लोग अपनी रोजी रोटी और ज़रूरतों के लिए प्रतिदिन संघर्ष कर रहे हैं।

एक रिसर्च में पाया गया है कि भारत में 15 लाख लोग कचरा चुनते हैं और कबाड़ को घूम-घूम कर खरीदते हैं। बेंगलुरु जैसे शहर में ही सिर्फ 15 हजार लोग कूड़ा चुनते हैं। अध्ययन में यह बात भी कही गई है कि रोजाना लगभग 600 टन कचरा रिसाइकिल होता है, जिससे बेंगलुरु महानगर पालिका (BBMP) को लगभग 13.5 लाख रुपए की बचत प्रतिदिन होती है। कचरा बीनने वाले आपको तुच्छ लगे, लेकिन एक शहर के लिए वे कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

कचरा चुनने वालों के जीवन के बारे में हम आप सोचे या न सोचें। लेकिन, समाज में नलिनी शेखर जैसे लोग हैं, जो ऐसे लोगों के जीवन को संवारने का कमा कर रहे हैं। नलिनी शेखर ‘हसीरु डाला’ नामक संगठन की सह-संस्थापक हैं। ‘हसीरु डाला’ एक कन्नड़ शब्द है, जिसका अर्थ है ‘ग्रीन फोर्स’। नलिनी ने कचरा बीनने वालों का जीवन स्तर उच्च बनाने के लिए ग्रीन फोर्स मुहिम छेड़ी है। संगठन ऐसे लोगों के लिए काम करता है, जो समाज में अपने जीवन यापन के लिए संघर्ष कर रहे हैं और समाज के हाशिए पर हैं। हसीरु डाला की स्थापना 2011 में हुई थी, जिसने अब तक 10 हजार से अधिक कूड़ा चुनने वालों के जीवन में सुधार किया है, उन्हें एक सम्मानजनक जीवन दिया है।

इस संगठन के काम करने का तरीका अनोखा है। वे कूड़ा चुनने वालों में कौशल विकसित कर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना सिखाते हैं। उन्हें एक प्रशिक्षित और उन्नत व्यक्ति बनाते हैं, जिससे वे अपने काम को और बेहतर व स्वच्छ तरह से कर सके। कचरा बीनने वाले लोगों को वेस्ट वाइज ट्रस्ट और जैन यूनिवर्सिटी की तरफ से ऑर्गेनिक वेस्ट मैनेजमेंट, इवेंट वेस्ट मैनेजमेंट और री-साइक्लिंग इंडस्ट्री में उनकी भागीदारी को और पुख्ता करने के लिए एक सर्टिफिकेशन कोर्स के तहत ट्रेनिंग दी जाती है। ये संगठन कचरा बीनने वालों को कचरा प्रबंधन में शामिल करने के साथ ही स्थानीय लोगों, राज्य और केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम करते हैं।

इन सभी कामों के साथ ही, हसीरू डाला कचरा बीनने वालों के बच्चों के हित में भी काम करतीं हैं। यह संगठन 2017 से बुगुरी चिल्ड्रन प्रोग्राम के जरिए कूड़ा चुनने वालों के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की दिशा काम कर रहा है। इस पहल का उद्देश्य यह है कि बच्चे रोज स्कूल जाएं, अपनी पढ़ाई पूरी कर एक बेहतर नागरिक बनें।

सोलवेदा ने नलिनी शेखर के साथ खास बातचीत की, जिसमें हम उनके संगठन को और करीब से समझने का प्रयास कर रहे हैं।

आपकी संस्था कूड़ा चुनने वालों को सम्मानजनक जीवन देने का प्रयास कर रही है। इसकी प्रेरणा आपको कहां से मिली?

मैं एक लंबे समय से कचरा चुनने वालों के साथ काम कर रही हूं। मैंने इस काम की शुरुआत पुणे से की थी। इसके बाद मैं 10 साल के लिए अमेरिका चली गई। फिर, जब मैं भारत वापस आई, तो मैं बेंगलुरु में रहने लगी। मैंने अपना काम दोबारा शुरू किया। इस दौरान मैंने बेंगलुरु में वेस्ट मैनेजमेंट की समस्या देखी, जिसके बारे में हर कोई बात करता था। लोग वेस्ट मैनेजमेंट के विकेंद्रीकरण की बात करते थे, लेकिन कचरा चुनने वालों के बारे में जिक्र तक नहीं होता था। जिसे देख कर मैंने सोचा कि मैं नहीं करूंगी, तो कौन करेगा? इसके बाद मैं फिर से इस क्षेत्र में लग गई और कूड़ा चुनने वाले लोगों को बेंगलुरु में सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट सिस्टम का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित करने लगी। शायद यही मेरी प्रेरणा है।

कूड़ा चुनने वालों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी काफी चुनौतियों और परेशानियों से भरी होती है। ऐसे में आपका संगठन कैसे उनकी मदद करता है?

वर्ष 2010-11 में यह एक बहस का मुद्दा था कि कचरे का मालिक कौन है? वृहत बेंगलुरु महानगर पालिका या उसे उत्पन्न करने वाले लोग! बात अदालत तक पहुंची और आदेश जारी हुआ कि सड़कों पर दिखने वाले कचरे का मालिक नगर पालिका है। इस आदेश के बाद एक और समस्या पैदा हो गई कूड़ा चुनने वालों के लिए, उन्हें काफी परेशान किया जाता था। अपनी नज़र में वे मेहनत करते थे, लेकिन नगर पालिका की नज़र में वे चोर थे। नगर पालिका का मानना था कि वे सड़क से कचरा चुरा रहे हैं। यह एक अज्ञात, लेकिन प्रमुख मुद्दा बन गया।

फिर हमने उनके लिए काम करना शुरू किया। उस समय, हमने मांग की कि कचरा चुनने वालों को नगरपालिका की तरफ से आईडी कार्ड दिए जाए। काफी मशक्कत के बाद नगर पालिका आयुक्त के हस्ताक्षर और शहर के लोगों के साथ उनका व्यावसायिक पहचान पत्र बनना शुरू हुआ। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था। वर्ष 2016 में जब सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट नियम बना, तब उसमें कहा गया कि हर स्थानीय निकाय द्वारा कचरा चुनने वालों को एक पहचान पत्र दिया जाना चाहिए। हमारी मुहिम रंग लाई और हमने जो बेंगलुरु से शुरू किया वो हम राष्ट्रीय स्तर पर ले गए।

जिस तबके के लिए आपने काम किया, उनका विश्वास पाना आसान नहीं होता है। आपने यह काम कैसे किया?

किसी से बार-बार मिलने पर, उनकी बातें सुनने पर, वे आप पर खुद बखुद भरोसा करने लग जाते हैं। मैंने भी कुछ ऐसा ही किया। 90 के दशक में जब मैं पुणे में काम कर रही थी, तब मैंने यही किया था। पुणे में हमने एक यूनियन (कगड़ कच पत्र कश्तकारी पंचायत-कचरा चुनने वालों का एक ट्रेड यूनियन) बनाया था। यूनियन कचरा बीनने वालों को पहचान पत्र देता था और वहां की स्थानीय सरकार इसे सपोर्ट करती थी। उस वक्त हम 23-24 साल के युवा थे। मैं उनसे मिलने और उन्हें देखने के लिए मोटरसाइकिल से जाया करती थी। इससे उन्हें लगने लगा कि हम उनके शुभचिंतक हैं और वे हम पर भरोसा कर सकते हैं। पुणे के बाद जब हमें बेंगलुरु में काम करने का मौका मिला, तब हमने एक रणनीति के जरिए हसीरू डाला संगठन ही बना डाला।

कूड़ा चुनने वालों से लोग दूरी बनाकर रखते हैं, उनसे बात करना पसंद नहीं करते। इस विचारधारा को आप कैसे बदल पा रही हैं?

समाज में इस भेदभाव को दूर करना हमारे लिए काफी चुनौतीपूर्ण था। 2011 से हम जीरो-वेस्ट इवेंट आयोजित कर रहे हैं, जिसमें हमने ऐसे फोरम बनाए हैं, जहां पर कचरा बीनने वाले लोग, दूसरे लोगों के साथ सामान्य बातचीत कर सकते हैं। इसके अलावा हम हर साल एक हसीरु हब्बा (ग्रीन फेस्टिवल) कार्यक्रम आयोजित करते हैं, जिसमें हम भेदभाव की दीवार को तोड़ समानता के धरातल पर सभी को लाने का प्रयास करते हैं। इस आयोजन में हम कूड़ा चुनने वालों और आम नागरिक दोनों को आमंत्रित करते हैं। सभी लोग खाना खाने के लिए एक ही कतार में खड़े होते हैं, हम उन्हें एक जैसा ही खाने का पैकट देते हैं। यह दृश्य अद्भुत होता है, सब भेदभाव भूलकर एक साथ हंसते-बोलते हैं। लेकिन, दुख की बात यह है कि कोविड-19 महामारी के कारण हम दो साल से यह आयोजन नहीं करा सके हैं।

मैं आपके साथ अपनी एक याद साझा करना चाहूंगी। 2011 में जब बेंगलुरु में पहला आईडी कार्ड नगर पालिका के तरफ से दिया था, तब लक्ष्मी (कचरा बीनने वाली) तत्कालीन बीबीएमपी के कमिश्नर (सिद्दैया) के बगल में बैठी थी। यह नजारा किसी ने कभी नहीं देखा था। जहां एक कचरा बीनने वाली मंच पर कमिश्नर के बगल में बैठी थी। कमिश्नर ने लक्ष्मी से पूछा कि, “तुम्हें यह पहचान पत्र किसने दिया है?” लक्ष्मी ने तपाक से जवाब दिया, “हमें कमिश्नर ने दिया है।” फिर कमिश्नर ने दूसरा सवाल पूछा कि, “क्या आप कमिश्नर को जानती हैं?” लक्ष्मी ने बेझिझक जवाब दिया, “कमिश्नर का नाम सिद्दैया है।” इस बातचीत के दौरान लक्ष्मी को इस बात का एहसास ही नहीं था कि वह जिनसे बातचीत कर रही है और जिसके साथ बैठी है, वही कमिश्नर है। कुछ ऐसा ही दृश्य हर हसीरू हब्बा में देखने को मिलता है, जहां हमारे मंत्री कूड़ा चुनने वालों के साथ मंच साझा करते हैं। इस प्रकार के फोरम बनाने के बाद कूड़ा चुनने वालों में आत्मविश्वास और साहस देखने तो मिला है। वहीं, आम नागरिकों के मन में भी उनके प्रति सम्मान की भावना उत्पन्न हुई है।

कूड़ा चुनना अपने स्वास्थ्य को जोखिम में डालना है। ऐसे में आप उन्हें सुरक्षित और स्वस्थ रखने के क्षेत्र में किस तरह से काम करती हैं?

कोविड-19 पूरी दुनिया के लिए एक बुरी याद है। भारत में जब कोरोना की पहली लहर आई, उस समय हम 35,000 लोगों के साथ काम कर रहे थे। उनमें से सिर्फ 5 लोग ही कोरोना से संक्रमित हुए। उनका शरीर सभी तरह की संवेदनशील स्वास्थ्य समस्याओं से लड़ने के लिए बेहद लचीला है। वे दिन भर कचरा बीनते हैं, लेकिन उनका इम्यून सिस्टम हमसे और आपसे कहीं बेहतर हैं। लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि उन्हें कोई स्वास्थ्य समस्या नहीं है। कूड़ा चुनने वाले ज्यादातर लोग मस्कुलोस्केलेटल समस्या से ग्रसित होते हैं। क्योंकि वे मीलों पैदल चलते हैं और कचरा उठाने के लिए कई बार झुकते हैं। लेकिन फिर भी वे स्वस्थ रहते हैं।

अमेरिका में आपने घरेलू हिंसा के पीड़ितों के लिए काम किया व भारत में कूड़ा चुनने वालों की मदद कर रही हैं। ऐसे काम करने की प्रेरणा आपको कहां से मिलती है?

हंसते हुए नलिनी कहती हैं कि “मेरे पास करने के लिए कुछ बेहतर काम हैं। मुझे मेरे काम से ही प्रेरणा मिलती है। जब मैं कूड़ा चुनने वालों के साथ बैठती हूं, तो मुझे लगता है कि वे ही मेरी ऊर्जा का स्रोत हैं। मैं उन्हें जो भी देती हूं, मुझे उसके बदले में उससे अधिक ही मिलता है। कूड़ा चुनने वाले लोग बहुत मज़बूत होते हैं। उन्हें सड़कों पर छुट्टा पशुओं, कुत्तों और सूअरों का सामना करना पड़ता है, लेकिन फिर भी वे अपना काम पूरी लगन से करते हैं।

आप एक लंबे समय से कूड़ा चुनने वालों के लिए काम कर रही हैं। इतने वर्षों में आपने उनके संघर्षों और जीवन से क्या सीखा?

उनका वर्तमान चाहे जैसा भी हो, लेकिन वे अपने बच्चों के भविष्य को बेहतर बनाना चाहते हैं। लेकिन, उनके पास संसाधनों की कमी है, जिसके लिए वे संघर्ष करते हैं। वे भले एक अच्छे जीवन का सपना देखते हैं, लेकिन उनके सपने अपने लिए कम और बच्चों के लिए ज्यादा होते हैं। उन्हें एक पक्के मकान की तलाश होती है, जहां पर वे सुरक्षित हों। उन्हें भविष्य में कोई वहां से न निकाले। अपने जीवन की सुरक्षा वे हर रोज तलाशते हैं।

क्या आप हसीरू डाला का विस्तार करने का प्लान बना रही हैं?

मुझे उम्मीद नहीं है कि हसीरू डाला एक देशव्यापी संगठन बन पाएगा, लेकिन मेरी चाहत है कि हसीरू डाला का कॉन्सेप्ट एक यूनिकॉर्न ज़रूर बने। कोरोना महामारी से पहले बहुत सारे लोग हमारे काम और उसे करने की प्रक्रिया के बारे में जानने आते थे। हमारे संगठन के लिए यह किसी प्रचार से कम नहीं था। विस्तार करने के विचार के साथ हम तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश भी गए। फिर, हमें यह महसूस हुआ कि कर्नाटक में हमारी ब्रांडिंग काफी मज़बूत है। इसलिए हमने अपने संगठन को कर्नाटक के लिए फोकस किया। अभी भी राज्य में ऐसे बहुत सारे कूड़ा चुनने वाले हैं, जिनसे हम संपर्क नहीं कर पाए हैं। हमें उन तक पहुंचना है।

समाज में योगदान देने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए आप क्या सलाह देंगी?

मैं सिर्फ इतना कहूंगी कि अपने सपने और जूनून का पीछा करें। कोई भी रास्ता आसान नहीं होता है, उतार-चढ़ाव हर रास्ते में आते हैं। आपको निंदा, उपेक्षा का शिकार होना पड़ सकता है। कुछ लोग तो आपको पसंद भी नहीं करेंगे। लेकिन, आप अपने लक्ष्य पर ध्यान दें। आपका लक्ष्य समाज सेवा है, इसे कभी न भूलें। आप जिन लोगों के लिए काम करते हैं, सिर्फ उनके बारे में सोचें। बाकी दुनिया की चिंता न करें। आप जो भी करें, उसके प्रति ईमानदार और पारदर्शी बने रहें।

  • नलिनी शेखर

    हसीरू डाला की सह-संस्थापक

    नलिनी शेखर एक सोशल इम्पैक्ट ऑर्गनाइजेशन हसीरू डाला की सह-संस्थापक हैं, जो बेंगलुरु में कचरा बीनने वालों के साथ काम करती हैं। उनका उद्देश्य कचरा बीनने वालों को एक सम्मानजनक जीवन देना और उन्हें मूलधारा से जोड़ना है। उनके परिवारों को आजीविका और सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के लिए संगठन कार्यरत है। नलिनी के 33 साल के करियर में उन्हें 2015 में बेंगलुरु से केम्पेगौड़ा पुरस्कार सहित कई पुरस्कार जीते हैं। उन्हें BBC.Com द्वारा सामाजिक बदलाव के लिए काम करने वाली भारत की 100 महिलाओं में से एक के रूप में चुना गया था। उन्हें नम्मा बेंगलुरु फाउंडेशन द्वारा "द बेंगलुरियन ऑफ ईयर 2020" के सम्मान से भी नवाजा गया।
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