कविता के साथ झूमना

कविता सिर्फ पढ़ना नहीं है

अपनी मातृभाषा के प्रेम को किस तरीके से समृद्ध किया जा सकता है, इसका जवाब सिर्फ उपन्यासकार डॉ. चंद्रशेखर कंबर जैसे लोग ही दे सकते हैं। जिन्होंने कन्नड़ संस्कृति को बेहतर बनाने में अपना जीवन समर्पित कर दिया।

लेखक वह है, जो कुछ भी लिख सकता है, लेकिन उसे सलाह दी जाती है कि ‘आप जो भी जानते हैं उसे लिखें’। लेकिन इस बात का लेखक की विशेषज्ञता से कोई सरोकार नहीं है। लेखनी के लिए शोध और कौशल दोनों बराबर मात्रा में ज़रूरी है, इसलिए यह सलाह दी गई कि जो जानते हैं, वही लिखें। लेकिन कुछ ऐसे भी लेखक हैं, जो इस सलाह को थोड़ा और आगे लेकर जाते हैं। इस प्रकार के लेखक वही लिखते हैं जो उनके लिए प्रामाणिक होता है।

प्रामाणिकता पर माइकल जॉर्डन की एक बात काफी प्रसिद्ध थी, “आप जो भी हैं, बस उसके प्रति सच्चा बने रहना ही प्रामाणिकता है।” इसी परिपाटी पर काम करते डॉ. चंद्रशेखर कंबर एक उपन्यासकार, नाटककार और कवि हैं। डॉ. कंबर की साहित्यिक कृतियां उनके प्रामाणिकता से ही सृजित हुई हैं। डॉ. चंद्रशेखर कर्नाटक के निवासी हैं, जो ब्रिटिश साहित्य के बेहतरीन जानकार हैं। लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि वह न तो अंग्रेजी में लिखते हैं और न ही अपने लेखन में किसी वेस्टर्न लिटरैरी टेक्निक को अपनाते हैं। वह देसी व्यक्ति हैं, उन्हें अपनी मातृभाषा में लिखना पसंद है। उनकी रचनाएं उत्तर कर्नाटक की बोली में हैं, जिसके ज़रिए उन्होंने लोक कथाओं को जीवंत कर लोगों को अपनी जड़ों से जुड़ना सिखाया है।

एक खास इंटरव्यू में डॉ. कंबर ने सोलवेदा के साथ कन्नड़ रंगभूमि (थिएटर), कन्नड़ संस्कृति को संरक्षित करने में उनके योगदान, अपनी प्रेरणा और अपने लक्ष्यों के बारे में बात की।

बतौर कवि, उपन्यासकार और नाटककार आपकी सभी रचनाएं कन्नड़ लोक कथाओं की परंपरा से प्रभावित रहती हैं। आपकी प्रेरणा के पीछे की वजह जान सकते हैं?

मेरा जन्म कर्नाटक के बेलगावी जिले के एक गांव घोडागेरी के एक पशुपालक परिवार में हुआ। मैं जब बड़ा हुआ तो मैं भी पशुपालक बन गया। मेरे गांव के पास गोकक झरने के पास अंग्रेजों के क्वार्टर थे। मेरे गांव के लोग उनके अंग्रेजी तौर-तरीकों को समर्थित करते थे। उस वक्त मैं एक बच्चा था, लेकिन अंग्रेजों के प्रति ग्रामीणों के रवैए से मैं लगातार परेशान रहता था। मुझे दुख होता था कि इतनी समृद्ध संस्कृति को छोड़, लोग विदेशियों की नकल करने की कोशिश कर रहे थे।

जब मैं बड़ा हुआ, तो मैंने लिखना शुरू किया। लेकिन, मेरी बेचैनी फिर भी नहीं शांत हुई। इसलिए, मैंने उस समय के कई लेखकों का अनुसरण किया। जो अंग्रेजी तौर-तरीकों को अपनाने की बजाय, अपनी संस्कृति यानी कि कन्नड़ को समृद्ध बनाने के लिए प्रयासरत थे। मेरा मानना है कि हमारी अपनी लोक कथाओं की परंपरा में ही प्रेरणा छुपी हुई है। इसलिए हमें ब्रिटिश साहित्य की तरफ आकर्षित होने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ी।

कन्नड़ रंगभूमि संस्कृति को संरक्षित रखने में आपकी विशेष भूमिका है। क्या आपने सोचा था कि एक लेखक के रूप में आप इतने प्रसिद्ध हो जाएंगे?

लोकगीत, लोगों का गीत है। जिसमें लोग कहानियों में खुद को शामिल कर लेते हैं और पात्रों के साथ सहानुभूति रखने के लिए विवश हो जाते हैं। मेरी सभी रचनाएं कन्नड़ लोक कथाओं से प्रेरित हैं। ये वही कथाएं हैं, जिन्हें मैं सुनते हुए बड़ा हुआ। मेरी कोशिश हमेशा रही है कि मेरी लेखनी पढ़कर पाठक या दर्शक भावनात्मक तौर पर प्रभावित हो। थिएटर का संरक्षण करना तो एक आफ्टर-इफेक्ट है। जो मैंने इस क्षेत्र में काम करने के बाद किया। रंगभूमि को बचाने के लिए दिया गया मेरा योगदान मुझे गौरवान्वित महसूस कराता है।

किसी भी संस्कृति को संरक्षित करने के लिए नाटक शायद सबसे स्पष्ट शैली है। इस प्रयास में कवण (कविता) की कितनी भूमिका रही है?

कन्नड़ लोक कथाओं में कोई वर्गीकृत शैली नहीं है। यदि हम उदाहरण के माध्यम से समझे, तो बयालत (एक ओपन थिएटर नाटक, जो कर्नाटक के मूल निवासी करते हैं) को ही देखें। यह एक नृत्य नाट्य है, जिसमें महाकाव्य यानी कि कविता का इस्तेमाल किया जाता है। बयालत मेरी अपनी शैली का पालन करता है। हेलाथेने केला एक कथात्मक काव्य या गद्य काव्य के रूप में मेरी पहली रचना थी। आपको हैरानी होगी कि इस कथा का पहला भाग एक कविता है, दूसरा भाग एक नाटक है। इसलिए, एक कविता पर भी अभिनय किया जा सकता है। सिर्फ कन्नड़ संस्कृति ही नहीं, बल्कि देश की अन्य संस्कृतियों में भी काव्य को नाटक और अभिनय से जोड़ा गया है।

आजकल कविता के साथ लोगों का जुड़ाव कम हो रहा है, जो एक दुखद सत्य है। क्या आप मानते हैं कि लोग कविताओं के प्रति ज्यादा ग्रहणशील हो सकते हैं?

कविता हमेशा व्याख्या मांगती है, इसलिए कविता पढ़ना एक मज़बूत कल्पना को जागृत करना है। सिर्फ पढ़ने से ही नहीं, बल्कि सुनने से भी कल्पनाएं उड़ान भरती हैं। क्योंकि एक कविता पाठ में स्वर और कवि की भावना का मेल होता है। मैंने अपने गांव के पुरुषों को भी बयालत का मंचन करते समय रोते देखा है, क्योंकि वे उस पाठ को मन से करते हैं। जो उनके दिल की संवेदना को छेड़ देता है।

हम इसे रस (रेचन) कहते हैं। हम हिंदी व्याकरण में जिस तरह से रस के बारे में जानते हैं, कन्नड़ में भी वैसे ही रसों का इस्तेमाल होता है। रस का मुख्य उद्देश्य दर्शकों के अंदर भावनाओं का संचार करना है। रस का काम भावना के साथ दर्शक की सोच के साथ खेलना है। रस को इशारों, स्वर-शैली, कथन और संवाद के ज़रिए व्यक्त किया जा सकता है। रसों का जो आनंद एक दर्शक लेता है, वह एक पाठक नहीं ले पाता है। पाठक सिर्फ कल्पना मात्र कर सकता है। जब उसी कविता का मंचन होता है, तब वह बहुत शक्तिशाली प्रभाव छोड़ सकता है।

आपके जीवन में कविता का क्या अर्थ है? आप पाठकों को अपनी कविताओं के द्वारा कैसे आकर्षित करना चाहते हैं?

मेरी सोच कविता को लेकर बहुत विपरीत है। मैं कविता को बड़े मुद्दों या चिंताजनक विषयों को व्यक्त करने के हथियार के रूप में नहीं देखता। मैं साधारण तरीके से कुछ ऐसा लिखता हूं, जिससे कोई भी आम इंसान खुद को जुड़ा हुआ महसूस करे। इससे मुझे खुशी मिलती है। मेरे लिए आलोचनात्मक प्रतिक्रिया से अधिक, मेरे पाठकों और दर्शकों द्वारा दी गई तारीफ मायने रखती है। जब लोग मेरी कृतियों से आकर्षित होंगे, तब लोग अपने साथ उन्हें ले जाएंगे। फिर उन कहानियों को अगली पीढ़ी तक आगे बढ़ाएंगे। मेरे लिए सही मायने में किसी भी साहित्य की जीत तब है, जब वह लोगों के दिलों को छूने के साथ ही युग-युगांतर के लिए अमर हो जाए।

  • डॉ. चंद्रशेखर कंबर

    प्रमुख भारतीय कवि, नाटककार और लोक गीतकार

    डॉ. चंद्रशेखर कंबर एक प्रमुख भारतीय कवि, नाटककार और लोक गीतकार हैं। जो अपने साहित्यिक कार्यों में कन्नड़ भाषा की उत्तरी कर्नाटक बोली को समृद्ध बनाने के लिए प्रयासरत है। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्म श्री, कबीर सम्मान, कालिदास सम्मान और पम्पा पुरस्कार समेत कई जाने माने पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
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