भीष्म साहनी की प्रमुख रचनाएं

पढ़ें भीष्म साहनी की प्रमुख रचनाएं और उनका जीवन परिचय

आठ अगस्त 1915 को रावलपिंडी (पाकिस्तान) में जन्मे भीष्म साहनी की मातृभाषा पंजाबी थी, उनकी पढ़ाई-लिखाई उर्दू, हिंदी, संस्कृति और अंग्रेजी में हुई। लेकिन उन्होंने साहित्य लिखा हिंदी में।

भीष्म साहनी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे आम लोगों की आवाज़ को उठाने और हिंदी के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद की जन-समस्याओं को उठाने की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले साहित्यकार के रूप में जाने जाते हैं। वे ऐसे साहित्यकार थे, जो बात को केवल कह देना ही नहीं, बल्कि बात की सच्चाई और गहराई को नाप लेना भी सही समझते थे।

उन्हें हिंदी साहित्य का चमकीला सितारा कहा जाता है, लेकिन वे सही मायने में हिंदुस्तानी साहित्य का चमकीला सितारा थे। इसकी वजह ये है कि आठ अगस्त 1915 को रावलपिंडी (पाकिस्तान) में जन्मे भीष्म साहनी की मातृभाषा पंजाबी थी, उनकी पढ़ाई-लिखाई उर्दू, हिंदी, संस्कृति और अंग्रेजी में हुई। लेकिन उन्होंने साहित्य लिखा हिंदी में। वो रूसी भाषा पर भी शानदार पकड़ रखते थे। साथ ही वे कई अन्य भाषाओं के भी जानकार थे।

वे जिस परिवार में जन्मे थे, वह बहुत ही सीधा-सादा और आदर्शवादी परिवार हुआ करता था। पिता हरबंस लाल साहनी रोजी-रोटी की चिंताओं के साथ-साथ सामाजिक सरोकार से जुड़े रहना पसंद करते थे। मां लक्ष्मी देवी ऐसी औरत थीं, जो अपने परिवार को सादगी, पुरुषार्थ और संघर्ष के गुण सीखाने में कभी पीछे नहीं हटती थीं। वहीं उनके बड़े भाई बलराज साहनी हिंदी सिनेमा के एक ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने सिनेमा को अपने योगदान से नयी ऊंचाई पर पहुंचाया।

वे हिंदी साहित्य के भीष्म भी माने जाते हैं। उनका नाम भीष्म साहनी है और वे साहित्य में भी साहित्य के ‘भीष्म’ थे। वे कथाकर के साथ-साथ उपन्यासकार, नाटककार के रूप में भी जाने जाते हैं। उन्होंने 1937 में इंग्लिश लिटरेचर से एमए करने के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी से 1958 में पीएचडी किया था। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत न्यूज पेपर में लिखने से की थी। अंबाला और अमृतसर में पढ़ाने के बाद, वे दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाकिर हुसैन कॉलेज में प्रोफेसर रहे।

वहीं, 1957 से लेकर 1963 तक मास्को में, विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में ट्रांसलेटर के रूप में कार्य किया। उन्होंने दो दर्जन से अधिक रूसी किताबों को हिंदी में ट्रांसलेट भी किया। उन्होंने 1965 से लेकर 1967 तक ‘नई कहानियां’ नाम की पत्रिका का भी संपादन किया। इसके अलावा वे प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव भी रहे।

1947 में विभाजन के बाद भारत आ गए और इप्टा से भी जुड़े। साथ ही बड़े भाई बलराज साहनी के नक्शे कदम पर चलते हुए मुंबई जाकर सिनेमा इंडस्ट्री में काम पाने की कोशिश की, जहां उन्होनें कुछ दिन बेकारी की ज़िंदगी काटी। वहीं, ‘नई कहानियां’ मैगजीन का संपादन करते-करते उनकी पहचान साहित्यकार के रूप में हो चुकी थी। वे प्रगतिशील लेखक संघ और एफ्रो एशियाई लेखक संघ से भी जुड़े रहे। 1993 से 1997 तक वे साहित्य अकादमी की कार्यकारी समिति के सदस्य भी रहे।

साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा पद्मभूषण से भी किया गया था सम्मानित

उन्हें साहित्यिक सेवाओं के लिए कई पुरस्कार भी मिले। 1976 में ‘तमस’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1976 में ही पंजाब सरकार के भाषा विभाग का शिरोमणि लेखक अवार्ड। 1980 में एफ्रो एशियन राइटर्स एसोसिएशन का लोटस अवार्ड। 1982 में ‘बसंती’ उपन्यास पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद अवार्ड। 1983 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार।

1988 में हिंदी अकादमी की ओर से ‘मय्यादास की माड़ी’ को बेस्ट फिक्शन अवार्ड ऑफ द ईयर। 1988 में अंग्रेजी और विदेशी भाषा यूनिवर्सिटी हैदराबाद द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि। 1998 में ही भारत के राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण। 1999 में हिंदी अकादमी की ओर से शलाका सम्मान। 2001 में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा मैथिलीशरण गुप्त सम्मान। 2001 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड और 2002 में साहित्य अकादमी की फेलोशिप भी से भी वे सम्मानित हुए।

‘चीफ की दावत’ लिखने के बाद आए चर्चा में

थॉमस हार्डी, तॉलस्तॉय, मुंशी प्रेमचंद, चार्ल्स डिकेन्स, रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, महादेवी वर्मा, गाब्रियल मार्खेज जैसे साहित्यकार उनकी प्रेरणा के स्त्रोत थे। उनके साहित्यिक सफर की शुरुआत हुई 1956 में श्रीपत राय की कहानी विशेषांक में ‘चीफ की दावत’ लिखने से।

उनकी नौ कहानियों के संग्रह में- भाग्य रेखा, पहला पाठ, भटकती राख, पटरियां, वाडंचू, शोभायात्रा, निशाचर, पाली और डायन में समाजिक सच्चाई शामिल है। उनकी कहानियों में मुख्य रूप से मध्यमवर्ग के जीवन की समस्याएं हैं।

उनकी कहानियां सामाजिक और सांस्कृतिक सवालों को उठाती हैं, जो पढ़ने वालों को सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं। उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे, जिसमें सबसे प्रमुख है तमस। इसके अलावा उन्होंने झरोखे, बसंती, मय्यादास की माड़ी, कुंतो और नीलू नीलिमा नीलोफर नाम से उपन्यास लिखे। इसके अलावा उन्होंने माध्वी, हानूश, कबिरा खड़ा है बाज़ार में, मुआवजे, जैसे नाटक भी लिखे।

उनकी लेखनी की सबसे खास बात थी कि वे छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग कर के विषय को प्रभावी और रोचक बना देते थे। इसलिए उन्हें हिंदी साहित्य का ‘भीष्म’ कहा जाता था।

इस लेख के माध्यम से हमने आपको भीष्म साहनी से रूबरू करवाया। हमने आपको उनके साहित्यिक सफर के साथ-साथ उनका जीवन परिचय भी कराया। इसी तरह के और लेख पढ़ने के लिए पढ़ते रहें सोलवेदा हिंदी।

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