सिद्दी

सिद्दी: एक गुमनाम जनजाति की कहानी

भारत की सिद्दी जनजाति किसी जमाने में भले ही अफ्रीकी रहे हों, लेकिन खुद को भारतीय संस्कृति में ढलने उन्होंने कोई कमी छोड़ी है। एक संस्कृति और विशेष सामाजिक परिवेश से जुड़े रहने के बावजदू उन्होंने बड़े उम्मीद के साथ उन चीज़ों को अपनाया व उसमें खुद को ढालने की कोशिश की जो कभी उनके लिए विदेशी थीं। सिद्दी जनजाति के दो वकीलों से खास बातचीत, जिन्होंने मुख्यधारा की सोसायटी में खुद को स्थापित करने के लिए सामाजिक दिक्कतों का सामना किया।

करीब 600 सौ साल पहले इनकी खुद की अपनी एक पहचान थी। वे मध्य और दक्षिणी अफ्रीका में रहने वाले बंतू समाज के लोग थे। उनकी यह पहचान तब खो गई, जब उन्हें हज़ारों मील दूर उनके घर अफ्रीका से भारतीय तटों पर गुलाम बनाकर लाया गया। इस तरह दुर्भाग्यवश यातना और घोर गरीबी ही उनके नए जीवन का पर्याय बन गया। फिर भी उनमें से कुछ सौभाग्यशाली थे जो बचकर सुरक्षित जगहों पर चले गए। जहां वे हताशा और निराशा के चंगुल से दूर खुद की अपनी दुनिया बसा सकते थे। लेकिन, यह दुर्भाग्य ही है कि आज सैकड़ों साल के बाद भी उनकी स्थिति जस की तस बनी हुई है। वे आज भी सामाजिक हाशिए पर ज़िंदगी जी रहे हैं। चाहे वह समानता की बात हो, सुरक्षा या अवसर की बात हो, उनके लिए यह डूबते को तिनके का सहारा जैसा है।

भारत की सिद्दी जनजाति भले ही कभी अफ्रीकी रहे हों, लेकिन खुद को भारतीय महसूस करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है। एक संस्कृति और विशेष सामाजिक परिवेश से जुड़े रहने के बावजदू उन्होंने बड़े उम्मीद के साथ उन चीज़ों को अपनाया और उसमें खुद को ढालने की कोशिश की जो कभी उनके लिए विदेशी थीं-चाहे वह धर्म, परंपरा, आस्था, भाषा या समाज के तौर-तरीके ही क्यों न हों। वर्ष 2018 में उन्हें सामाजिक तौर पर अपनाने की भरसक कोशिश की गई, लेकिन आज भी वे बहिष्कृत समाज की तरह जीवन जी रहे हैं और मुख्यधारा में अपना रास्ता तलाशने की जदोजहद कर रहे हैं। उनकी सामान्य ज़िंदगी अभी भी भेदभाव, अलगाव व उदासीनता से घिरी है।

मुख्यधारा से अलग-थलग पड़े इस जनजाति समुदाय के बारे में जानने, समझने व एकजुटता दिखाने की तमाम कोशिशों के बाद हमारी सिद्दी जनजाति के ऐसे दो बेहतरीन व्यक्तित्व से मुलाकात हुई, जिन्होंने समाज के लिए काफी प्रयास किया। सामाजिक बंधनों को तोड़ा और विकट परिस्थितियों को चुनौती दी।

मिलिए एडवोकेट जयराम सिद्दी और रेणुका सिद्दी से, जिन्होंने आशा और सपने देखने की अपनी प्रभावशाली क्षमता के बदौलत हज़ारों लोगों में उम्मीद की रोशनी जगाई है। प्रस्तुत है गर्मजोशी से भरी, सहज और ज्ञानवर्धक बातचीत के कुछ अंश :

  • h जयराम सिद्दी अफ्रीकी मूल के उन लगभग 70,000 लोगों में से एक जो सामाजिक हाशिए पर अपनी ज़िंदगी जी रहे हैं। इस जनजाति के लोग 600 वर्षों से आज भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं। हालांकि, उनकी जड़े अफ्रीकी वंश से होने के बावजूद भारत में रहने वाले सिद्दी समुदाय के लोगों ने भारतीय परिवेश में बखूबी आत्मसात कर लिया है। व्यावहारिक तौर पर इन्होंने खुद को भारतीय सांस्कृतिक के ताने-बाने में ढाल लिया है। तंगहाली से जूझ रहे खेतिहर मज़दूर के घर में जन्मे जयराम ने उच्च शिक्षा हासिल की और सिद्दी समुदाय के पहले वकील बने। जयराम के मुताबिक, उनकी सारी मेहनत उस समय साकार हो गई, जब उन्हें दक्षिण अफ्रीका में आयोजित पैन-अफ्रीकी सम्मेलन में एशिया में रह रहे सिद्दी समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया।

    अनजान लोगों से भरी दुनिया में प्रवेश

    जयराम सिद्दी : भारत में सिद्दी जनजाति के लोग कब आए, इस संबंध में कोई सही तारीख मालूम नहीं है, लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि करीब 400-600 साल पहले हमारे पूर्वज भारत लाए गए थे। कुछ कहते हैं कि अंग्रेज उन्हें मज़दूर के रूप में लाए थे, कुछ कहते हैं कि अरबी व्यापारी उन्हें श्रमिकों के रूप में लाए, जबकि कुछ कहते हैं कि पुर्तगाली उन्हें दास के रूप में भारत लाए। इतिहास की मानें, तो वे सबसे पहले गोवा तट पर उतरे थे। लेकिन, जब पुर्तगालियों ने प्रताड़ित किया तो वे गोवा से भाग गए और गुजरात व कर्नाटक के कुछ हिस्सों में जाकर बस गए। वे विभिन्न धर्मों के स्थानीय लोगों से मिले। शुरुआत में जिन-जिन धार्मिक समूहों के साथ घुल-मिल गए, उसी के अनुरूप उन लोगों ने ईसाई धर्म, हिंदू धर्म और इस्लाम को मानने लगे।

    सब कुछ नाम में छिपा है

    जयराम सिद्दी : हमें नहीं पता कि हम लोगों का नाम सिद्दी क्यों दिया गया। लेकिन, हमारे समुदाय का नाम ही हमारा उपनाम बन गया। जो आज भी अनवरत जारी है।

    गुमनाम विरासत के अवशेष

    जयराम सिद्दी : हमारे पास ऐसा कुछ भी नही है, जिससे हम अपनी अफ्रीकी विरासत से जोड़ सकें। हम सिद्दीनासा जैसी कुछ परंपराओं को संरक्षित करने में कामयाब रहे हैं। यह एक त्योहार है जहां हम एक पत्थर की पूजा करते हैं और दमम, फुगड़ी और गुमट जैसे नृत्य कर अनुष्ठान करते हैं। मैं कह सकता हूं कि ये हमारी अफ्रीकी जड़ों के कुछ अवशेष मात्र हैं। सच्चाई यह है कि इन नृत्य,अनुष्ठानों और समारोह के कारण ही हमें उत्तरी केनरा जिले में भारत सरकार की ओर से अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा दिया गया, जहां से मैं आता हूं। इसके अलावा हम कर्नाटक के किसी दूसरे व्यक्ति की तरह ही बिना रुके कन्नड़ में बातचीत करते हैं। हालांकि, हमारी मातृभाषा कोंकणी व मराठी का मिश्रण है।

    मुख्यधारा से अलगथलग

    जयराम सिद्दी : बमुश्किल हम लोगों की आबादी महज 70,000 होने के बावजूद हम सिद्दी वास्तव में कभी भी समाज की मुख्यधारा से जुड़ नहीं पाए। मैं आपको बता सकता हूं कि भेदभाव से सिद्दियों को हमेशा ऐसी किसी भी चीज़ में जोखिम उठाने के परिणामों का डर रहा है, जिसका पारंपरिक रूप से हमारा समुदाय हिस्सा नहीं था। यही कारण है कि अधिकांश सिद्दी घने जंगलों के बीच में रहते हैं और उससे बाहर एक आराम क्षेत्र से कदम रखने से परहेज करते हैं। हमारे लोगों के संघर्ष के पीछे शिक्षा की कमी सबसे बड़ा कारण है। आज हमारे पास कुछ सरकारी योजनाएं हैं, जो सिद्दी के बच्चों को शिक्षित करने में मदद कर रही हैं, लेकिन पहले ऐसा बिल्कुल भी नहीं था। नतीजतन सिद्दी आमतौर पर खुद को सशक्त बनाने वाले प्रोफेशन जैसे-मेडिसिन, इंजीनियरिंग और लॉ का विकल्प नहीं चुनते हैं। अभी भी लोगों में अलग-थलग रहने का स्वभाव है, जिससे हम लोग निकलकर आज आगे आए हैं।

    सिद्दी होने का अभिशाप

    जयराम सिद्दी : समाज की मुख्यधारा में आने की यह यात्रा वास्तव में वर्षों से बेहद कठिन रही है। हम लोग गांवों में पले-बढ़े हैं, जहां चारों ओर भेदभाव के अलावा कुछ नहीं था। मुझे आज भी वो बातें याद हैं, जब मैं अपने माता-पिता के साथ उनके मकान मालिक के घर जाया करता था। उनके घरों में हम जैसे लोगों को अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। हमसे उम्मीद की जाती थी कि हम सामने वाले परिसर में बैठें, जहां हम बैठे थे उस जगह को साफ करें और उन बर्तनों को धोएं जिनमें हमने खाया था। आज भी यह परंपरा ग्रामीण क्षेत्रों में चल रही है।

    आज मैं जिस शहर में रहता हूं, वहां ग्रामीण दुनिया की चुनौतियां मौजूद नहीं हैं। फिर भी भेदभाव अपनी राह खुद तलाश लेती है। मिसाल के तौर पर जब मैं किराने का सामान खरीदने के लिए बाहर जाता हूं या कोर्ट में अपना काम करता हूं, तो लोग सोचते हैं कि मैं एक अफ्रीकी हूं। लोग मेरे साथ बाहरी जैसे व्यवहार करते हैं। कई बार उनका बर्ताव बेहद बुरा भी होता है।

    वकील बनने का सफर

    जयराम सिद्दी : वकील बनना शायद मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी बाधा थी, जिसे मुझे तोड़ना था। इस चुनौती ने मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी। यह जानते हुए भी कि शिक्षा और रोज़गार सिद्दियों के लिए हमेशा एक दूर का सपना था। इस परिस्थिति को जूझते हुए मैं भारत में सिद्दी समुदाय से पहला लॉ ग्रेजुएट बनने में कामयाब रहा। वर्ष 2003 में हम लोगों को एसटी का दर्जा देने के लिए मैं सरकार के प्रति काफी शुक्रगुजार हूं। यह हमारे समुदाय के लिए बड़ी उपलब्धि से कम नहीं है। इसी का नतीजा है कि आज सिद्दी समुदाय से 13 युवा लॉ ग्रेजुएट हैं।

  • h रेणुका सिद्दी अफ्रीकी मूल के उन लगभग 70,000 लोगों में से एक जो हाशिए पर ज़िंदगी जी रहे हैं। इस जनजाति के लोग 600 वर्षों से आज भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं। बाद में उन लोगों ने भारतीय परिवेश को अपने गले लगा लिया। साथ ही व्यावहारिक रूप से भारत के सांस्कृतिक ताने-बाने में रच-बस गए। रेणुका ने तमाम सोशल व फाइनेंशियल चुनौतियों से जूझते हुए लॉ की पढ़ाई की। आज वह कर्नाटक हाईकोर्ट में एक वकील के रूप में काम कर रही हैं।

    संघर्षों के बीच मेरा जन्म

    रेणुका सिद्दी : जब मैं महज नौ महीने की थी तब मेरे माता-पिता की मृत्यु नदी में डूबने से हो गई। इसके बाद मेरे बुजुर्ग दादा-दादी ने मेरी परवरिश की। भले ही वे आर्थिक रूप से बहुत समक्ष नहीं थे। उस वक्त मेरे दादा जी जंगल से फल तोड़कर लाते और उसे बेचकर घर चलाते। इसके अलावा वे बड़े लोगों के घरों में नौकर का काम करते थे। हम 3 लोगों के परिवार के लिए यही जीविका का साधन था।

    छोटी जाति होने की अलग पीड़ा

    रेणुका सिद्दी : हम लोगों ने हमेशा से ही सामाजिक रूप से कटी हुई जाति का जीवन जीया है। इसका अहसास मुझे अपने जीवन में तब हुआ, जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया। प्राइमरी स्कूल में टीचर मुझे क्लास के पीछे बैठाते थे। क्लास में आगे की बेंच पर सिर्फ बड़ी जाति के लड़के-लड़कियां ही बैठा करते थे। अगर गलती से कोई सिद्दी का बच्चा आगे की सीट बैठ भी गया, तो शिक्षक उन्हें बहुत मारते थे।

    जब वर्ष 2003 में हम लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला तो स्कूल के बाद आगे की शिक्षा हासिल करने में काफी मदद मिली। इससे पहले सिद्दी के बच्चे बड़ी जाति के घरों में नौकर या खेतिहर मज़दूरी का ही काम करते थे। गांवों में आज भी बमुश्किल से लोगों को पर्याप्त कमाई हो पाती है। गांव की महिलाएं दिनभर जी तोड़ मेहनत करने के बाद यही कोई 150 रुपए और पुरुष 200 रुपए कमा पाते हैं।

    हाशिए पर समाज

    रेणुका सिद्दी : हमारे समुदाय के बारे में अधिकतर लोगों को कुछ भी जानकारी नहीं है। रिजेक्शन के डर के कारण हमारे समुदाय के लोगों ने खुद को दुनिया के सामने ज्यादा उजागर नहीं किया है। हालांकि, कुछ साल में समुदाय के लोगों के बीच थोड़ी बहुत उन्नति हुई है। इसके बावजूद आज भी हम लोग भेदभाव और छुआछूत जैसे दंश को झेल रहे हैं। शहरों की अपेक्षा गांवों में भेदभाव और छुआछूत कुछ ज्यादा ही है।

    सिद्दी महिलाओं के समक्ष चुनौतियां

    रेणुका सिद्दी : मैं जिस जगह से आई हूं, उसकी वजह से मुझे अपने जीवन में कुछ ज्यादा ही संघर्ष का सामना करना पड़ा। किसी दूसरे अन्य पिछड़े समुदाय की तरह सिद्दी समुदाय में भी महिलाओं के लिए शिक्षा का घोर अभाव था। शिक्षा और रोज़गार के मामले में सिद्दी महिलाओं को समाज का बहुत ही कम समर्थन मिलता है। क्योंकि, इस समुदाय के अधिकांश लोग अनपढ़ हैं। शिक्षा का क्या महत्व है, इसके बारे में वे कुछ भी नहीं जानते हैं। यही कारण है कि समुदाय के लोग वास्तव में अपनी बेटियों को पढ़ाना नहीं चाहते हैं। जब मैं 10वीं कक्षा में पढ़ रही थी तो मेरी दादी चाहती थीं कि मेरी शादी हो जाए, लेकिन मेरे दादाजी की ख्वाहिश थी कि मैं खूब पढ़ूं।

    सिद्दी

    बाधाओं के बावजूद शिक्षा

    रेणुका सिद्दी :  आर्थिक तंगी के बावजूद मेरे दादाजी ने मुझे स्कूल जाने के लिए काफी प्रोत्साहित किया। यह अच्छी तरह जानते हुए कि बमुश्किल से घर का खर्चा चल पाता है, पढ़ाई करना तो दूर की बात है। हालांकि, मेरी लगभग पूरी पढ़ाई स्कॉलरशिप के खर्च पर ही हुई। क्योंकि, परीक्षा में मेरे काफी अच्छे मार्क्स आते थे। इसके अलावा मैं अनाथ थी। इस वजह से स्कॉलरशिप आसानी से मिल जाता था।

    एक सिद्दी बच्चे के लिए अब तक की शिक्षा प्राप्त करने का मतलब एक खंभे से दूसरे खंभे पर चढ़ने-उतरने जैसा था। मुझे आगे की पढ़ाई के लिए अंकोला, तमिलनाडु और कारवार का कॉलेज मिला। यह मेरे लिए घोर संकट का दौर था, क्योंकि इन कॉलेजों में पढ़ाई अंग्रेजी में होती थी। और मुझे अंग्रेजी का एक शब्द भी नहीं पता था। इसके बावजूद मुझे अपनी आगे की पढ़ाई के लिए खुद से ही अंग्रेजी सीखनी पड़ी।

    एक अजनबी की तरह पहुंचना, एक नागरिक के रूप में पहचान बनाना

    रेणुका सिद्दी : जिस तरह से हमारे पूर्वज भारत आए और विगत कुछ सैकड़ों वर्षों के दौरान हम लोगों ने जिन परिस्थितियों में खुद को पाया, उससे पता चलता है कि वे अपनी मूल परंपरा बहुत कम ही संरक्षित कर पाए। कुछ नृत्य अनुष्ठानों को छोड़ दिया जाए तो सिद्दी आज भारतीय रीति-रिवाजों के अनुसार ही जश्न मनाते हैं और उनका पालन करते हैं। हिंदू सिद्दी हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करते हैं, मुस्लिम सिद्दी इस्लामी रीति-रिवाजों का पालन करते हैं और ईसाई सिद्दी अपने चर्च के रीति-रिवाजों का पालन करते हैं।

    शहर का जीवन

    रेणुका सिद्दी : पढ़ाई पूरी होने के बाद बेंगलुरू जैसे  शहर में नौकरी ढूंढना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल भरा दौर था। बेंगलुरू में हमारे शारीरिक हाव-भाव को देखकर हर किसी को लगता है कि हम लोग विदेशी हैं। भारतीय पोशाक में रहने पर भी अक्सर लोग पूछते हैं कि मैं किस देश से हूं (हंसते हुए)। विदेशी समझकर यहां के स्थानीय लोग हम लोगों से कुछ ज्यादा ही पैसे वसूलने की कोशिश करते हैं। वे लोग हम लोगों से तब तक अंग्रेजी में बात करते हैं, जबतक कि मैं कन्नड़ या हिंदी में कुछ शुरू नहीं करती।  

    उम्मीद की किरण

    रेणुका सिद्दी : अब जब मैं कर्नाटक हाईकोर्ट में एक एडवोकेट के रूप में काम कर रही हूं, तो लोग पहले की तरह भेदभाव नहीं करते हैं। अपने पेशे की वजह से लोगों ने अब सम्मान देना शुरू कर दिया है। मुझे उम्मीद है कि अब हमारे समुदाय के अन्य लोग भी उच्च शिक्षा लेंगे। समाज में सम्मान, सुरक्षा और एक मुकाम पाने का यही एकमात्र तरीका है। गांवों में भी लोग अब अपने बच्चे को स्कूल भेज रहे हैं। एक समय में एक पीढ़ी में थोड़ा बहुत बदलाव हो रहा है। लेकिन, महिलाओं के लिए बदलाव की सोच अभी भी कोसो दूर है। हम उम्मीद कर सकते हैं कि शिक्षा से वे अपने पैरों खड़ी हो पाएंगी व 15 साल की उम्र में शादी नहीं करेंगी।

    सिद्दी लड़की की परवरिश

    रेणुका सिद्दी : जब भी मेरी कोई बेटी होगी, मैं यह सुनिश्चित करूंगी कि वह बड़ी होकर मज़बूत बने। उसकी मानसिक मज़बूती ही उसे आगे ले जाएगी। शिक्षा को वह अपना हथियार बनाएगी, ताकि उसे भेदभाव जैसे दंश का सामना न करना पड़े। मैं चाहती हूं कि वह और हर दूसरी सिद्दी लड़की एक ऐसी महिला बने जो मैं नहीं बन सकी। भविष्य की इन महिलाओं के कंधे पर दोगुनी जिम्मेदारी होगी- महिलाओं के रूप में सामाजिक सीमाओं को तोड़ना और सिद्दी के रूप में चुनौतियों को पार करना।

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