तरुण कुमार

झारखंड का पैडमैन: किशोरियों को पीरियड के प्रति जागरूक कर रहे तरुण

भारत में आज भी लोग पीरियड (Periods) पर खुलकर बात नहीं करते हैं। इसे देश में कई जगहों पर टैबू समझा जाता है। लेकिन समाज के बीच से ही झारखंड के जमशेदपुर के रहने वाले तरुण कुमार आदिवासी ग्रामीण इलाकों में किशोरियों को पीरियड के प्रति जागरूक करने का बीड़ा उठाया है। बीते 6 साल से नक्सल प्रभावित गांवों में घूम-घूम कर 70 हजार किशोरियों से अधिक को मेंस्ट्रुअल हेल्थ की जानकारी दे चुके हैं। यही वजह है कि लोग अब इन्हें पैडमैन वाले भईया के नाम से पुकारते हैं।

जब रेंगना आता हो, तो चलने की कोशिश करो,

जब चलना आता हो, तो दौड़ने की कोशिश करो,

जब दौड़ना आता हो, तो उड़ने की कोशिश करो।

इस जुनून के साथ बेहद कम लोग ही काम कर पाते हैं। हर किसी के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा काम होता है, जिसे करके उन्हें शांति मिलती है। तरुण कुमार उन्हीं लोगों में से एक हैं। झारखंड के जिन इलाकों को एक समय नक्सल प्रभावित क्षेत्र कहा जाता था, उन्हीं इलाकों में घूम-घूम कर तरुण आदिवासी किशोरियों को पीरियड्स (Making adolescent girls aware of period) की जानकारी देते हैं। इनकी इस मुहिम का अब असर भी दिखना शुरू हो गया है। बीते कुछ सालों में यह मुहिम क्रांति का रूप से चुका है। जिन बच्चों को ये जागरूक करते थे, वे अब दूसरों को जागरूक कर रहे हैं। वर्तमान में तरुण निश्चय फाउंडेशन चलाते हैं। तो आइए पैडमैन ऑफ झारखंड तरुण कुमार से बात कर हम उनके इस मुहिम के बारे में जानते हैं।

आपका नाम पैडमैन कैसे पड़ा? किशोरियों को जागरूक करने की यात्रा की शुरुआत कहां से और कैसे हुई?

मेरा नाम तो तरुण कुमार है, लेकिन बच्चियां, महिलाएं मुझे पैडमैन भईया कहकर बुलाती हैं। ये नाम मुझे मीडिया वालों ने दिया है, स्थानीय अखबार ने मुझे इस नाम से जोड़ते हुए खबर छापी, उसके बाद से आम लोग, बच्चे, बड़े सभी इस नाम से बुलाते हैं।

जहां तक किशोरियों को जागरूक करने की बात है, तो साल 2010 में मैं झारखंड के स्कूल में जा-जाकर बच्चों को बाल अधिकार, शिक्षा के प्रति जागरूक करता था। क्योंकि उस समय में राज्य में ये काफी गंभीर समस्या थी। उस समय ये काम करना काफी मुश्किल था। क्योंकि जब भी हम इस प्रकार का कोई सेमिनार करते थे, तो पैरेंट्स बच्चों को स्कूल से उठाकर ले जाते थे।

समाजसेवा का जुनून मुझमें पहले से था, मैं चाहता था कि मैं किशोरियों और महिलाओं के लिए कुछ करुं। साल 2015 में झारखंड के आदिवासी सुदूर इलाकों में जाकर मुझे पता चला कि किशोरियां मेंस्ट्रुअल हेल्थ (Menstrual Health) के बारे में कम जानती हैं। आर्थिक व सामाजिक तौर पर भी कई समस्याएं थी। लड़कियों के पास पैसे नहीं होने से वो पैड नहीं खरीद पाती थी। पैड यूज करने के बाद कैसे स्टेरलाइज किया जाए व हाईजीन मेथड के बारे में भी उन्हें कम जानकारी थी। इतना ही नहीं इससे जुड़ी सामाजिक भ्रांतियां भी थी। पहले लोग इसे खुले में फेंक देते थे, इन तमाम कारणों से महिलाओं में इंफेक्शन (Infection in women) का खतरा काफी ज्यादा रहता था।

आप कबसे मेंस्ट्रुअल हेल्थ पर काम कर रहे हैं? इस दिशा में आपको किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ा?

ग्रामीण क्षेत्र में काम करना मेरा पैशन है और फोकस भी। साल 2016 के अंत में मैंने निर्णय लिया कि लड़कियों की मेंस्ट्रुअल हेल्थ पर काम करुं। क्योंकि उस समय इलाके में इस क्षेत्र में जागरूकता की काफी ज़रुरत थी। जागरुकता कार्यक्रम को लांच करने के पहले मैंने तैयारी की, इसके लिए मैंने रिसर्च किया। समर्थन जुटाए और पंचायतों में जाकर छोटे-छोटे स्तर पर कार्यक्रम करना शुरू किया।

शुरुआत में हम जहां भी कार्यक्रम करते थे, उसमें बच्चे नहीं जुटते थे। ऐसे में लोगों के घरों में जा-जाकर उन्हें बुलाते थे। शुरुआत में हमने मेंस्ट्रुअल हेल्थ को लेकर लोगों को जागरूक करने में काफी परेशानी हुई। लेकिन अब बदलाव दिख रहा है। बच्चे हर मामले में स्मार्ट होते हैं। हमने उन्हें जो जानकारी दी थी, अब वो बड़ों के साथ वही जानकारी साझा कर रहे हैं। बच्चे ग्रामीण क्षेत्र में चेंज मेकर्स के रूप में उभरें हैं। बच्चे आगे बढ़े यही मेरा मकसद है।

“झारखंड का पैडमैन” आपकी ये पहचान बन चुकी है। आपमें समाजसेवा का बीज कहां उपजा?

तरुण कुमार बताते हैं कि बचपन से ही समाजसेवा करना मुझे पसंद था। यह सीख व प्रेरणा मुझे अपने पिताजी से मिली। मेरे पिताजी पेशे से टीचर हैं, वो गांव में बच्चों को पढ़ाते थे। वे प्राइवेट टीचर हैं, ऐसे में मैंने बचपन से ही उनके संघर्ष को करीब से देखा है। कम से कम संसाधनों में वो हर काम कर पाते थे। यही वजह है कि मैं इस क्षेत्र में आया।

महावारी स्वच्छता अभियान के बारे में बताएं? इससे करीब 70 हजार किशोरियों को फायदा पहुंचा है।

महावारी स्वच्छता अभियान को आराधना पटनायक ने काफी सराहा और समर्थन दिया। साल 2018-19 में इस अभियान का मकसद ग्रामीण इलाकों में महावारी के प्रति ग्रामीण किशोरियों व महिलाओं में झिझक को तोड़ना था। ये अभियान हमने झारखंड स्तर पर चलाया। वहीं इससे 70 हजार स्टूडेंट्स को सीधे तौर पर फायदा पहुंचा। हमने अभियान की शुरुआत पैड बांटने से की। एक दिन के प्रयास से कोई बदलाव नहीं दिखता है, बदलाव लगातार प्रयास से ही हासिल किया जा सकता है।

इसके अलावा स्टूडेंट्स के लिए हमने वीर शहीद गणेश हांसदा फेलोशिप की शुरुआत भी की, जिसके तहत हम अबतक 17 बच्चों को अडॉप्ट कर चुके हैं। वहीं उनकी शिक्षा का खर्च उठाते हैं। गणेश हांसदा भारतीय सेना के जवान थे, बीते दिनों चीन के साथ हुए संघर्ष में वो शहीद हुए थे।

लिमका बुक ऑफ रिकॉर्ड में आपका नाम दर्ज है। उसके बारे में और आपको मिले पुरस्कार के बारे में विस्तार से बताएं?

मेंस्ट्रुअल हेल्थ की दिशा में काम करते हुए लिमका बुक ऑफ रिकॉर्ड (Limca Book Of Record) में एक बार नहीं बल्कि हमने दो बार रिकॉर्ड बनाया है। साल 2018 में हमने गिफ्ट सैनेटरी नैपकीन फॉर रूरल गर्ल्स नाम से मुहिम की शुरुआत की। इसके लिए हमने सोशल मीडिया की मदद से लोगों से नैपकीन मांगे, इसका असर इतना ज्यादा हुआ कि देशभर से करीब 5163 लोगों ने हमें नैपकीन भेजे। सबसे बड़ी बात यह है कि इनमें 60 फीसदी पुरुष थे। इस अभियान का मकसद लोगों में शर्म को तोड़ना था। ये संख्या और अधिक हो सकती थी, क्योंकि सभी लोग पैसे देकर हमारी मदद करना चाहते थे, लेकिन हम सिर्फ पैड ही ले रहे थे। काम के सिलसिले में मैं दिनभर घर से बाहर रहता था, ऐसे में मेरे पड़ोसी पार्सल ले लेकर तंग आ जाते थे।

इसी कार्यक्रम के बाद मुझे दिशा भी मिल गई, जिसके बाद मैंने झारखंड के आदिवासी गांवों में जाकर वहां के सरकारी स्कूल में पैड बैंक बनवाए, पैड के डिस्पोजल को लेकर तकनीकी जानकारी दी। लड़कियों को गुड टच और बैड टच के बारे में जानकारी दी और ज्यादा से ज्यादा लोगों को जागरूक किया। देखते ही देखते हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को जागरूक करने लगे, क्योंकि हम 5 बच्चों को जागरूक करते, तो वे 10 लोगों को जागरूक करते थे। ऐसे कर-कर के ही कम इस संख्या को बढ़ाते चले गए।

2020 में दूसरी बार कोविड के समय में हमने फिर हमारा नाम लिमका बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। उस समय बाजार, स्कूल व तमाम प्रतिष्ठान बंद हो गए थे। ऐसे में मुझे लड़कियों के फोन आते थे, वो मुझे इस समस्या के बारे में बताते थे। उस समय हमने सैनेटरी नैपकीन रिलीफ कैंप की शुरुआत की, 2020 अप्रैल और मई में हमने 5240 लड़कियों को सैनेटरी नैपकीन पहुंचाया। ये अभियान हमने झारखंड के 140 गांवों में चलाया। इसके लिए हमने गांव-गांव में वालेंटियर्स बनाए, मैं खुद बाइक चलाकर लड़कियों को पैड पहुंचाता था।

जमशेदपुर में मैं जेएनएसी (जमशेदपुर नोटिफाइट एरिया कमेटी) का ब्रैंड अंबेस्डर भी हूं। वहीं 2019-20 में साउथ एशिया के ई एनजीओ अवॉर्ड में विनर भी बने हैं। हेल्थ एंड वेलनेस कैटेगरी में हम साउथ एशिया के टॉप 10 एनजीओ में शामिल हुए। साल 2020 में कोविड इनोवेशन कैटेगरी में सैनेटरी नैपकीन रिलीफ कैंप लगाने के लिए हम विजेता घोषित हुए थे। यह सम्मान मिलना देश व राज्य के लिए बड़ी बात है।

पैड का डिस्पोजल और वो भी गांव में करवाना काफी मुश्किल भरा काम है। आपने इस दिशा में कैसे काम किया?

साल 2018-20 में ही हमने आदिवासी सुदूर ग्रामीण इलाकों के स्कूल में ट्रेनिंग देना शुरू किया। इसमें हम बच्चों को पैड के डिस्पोजल को लेकर जानकारी देते थे। हमने कई स्कूलों में सैनेटरी नैपकीन डिस्पोजल इलेक्ट्रिक मशीन (Napkin Disposal Machine) लगवाए। हमारी टीम की एक सदस्य पूजा महतो, जो एक स्टूडेंट है, उसने देसी नैपकीन डिस्पोजल मशीन इजात की। इसे भी हमने कई लोगों को व स्कूलों में बांटा है।

आदिवासी ग्रामीण इलाकों में पैड को लेकर लोगों में काफी अंधविश्वास भी था। जैसे लोग इसे जलाते नहीं थे, उनका मानना था कि ऐसा करने से बच्चा नहीं होगा। जिन महिलाओं को पीरियड्स आते थे उस समय उन्हें आचार छूने की मनाही थी। लोगों का मानना था कि उस समय आचार छूने से आचार खराब हो जाएगा। ऐसे में हमने तो बस ग्रामीण किशोरियों, महिलाओं और वहां के लोगों को इसके पीछे की साइंटिफिक जानकारी दी है। बच्चों का चेन सिस्टम बनाया और वही काम कर रहा है। हम बच्चों को जागरूक करते हैं और वो दूसरे लोगों को जागरूक करते हैं।

“एक पैड, एक पेड़” प्रोजेक्ट के बारे में बताएं? इस अभियान के पीछे आपकी क्या सोच थी?

पैड से संक्रमण का खतरा होता है, वहीं इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचता है। ऐसे में हमने पर्यावरण बचाने के लिए अभियान के बारे में सोचा व “एक पैड, एक पेड़” प्रोजेक्ट पर काम किया, क्योंकि पैड का डिस्पोजल बेहद ही ज़रूरी था। ग्रामीण इलाकों में जागरुकता के आभाव में लड़कियां पैड को तालाब, जंगल, यहां-वहां फेंक देती थीं, इस वजह से इससे इंफेक्शन का काफी खतरा था। हमने लोगों को जागरूक किया कि वो नैपकीन को एक साथ जला दें। क्योंकि ये मेडिकल वेस्ट है इसलिए इसे यहां-वहां फेंकने से इंफेक्शन का खतरा होता है। जलाने से पर्यावरण को खतरा तो है ही, इसलिए हमने इसके एवज में बच्चों को पेड़ लगाने के लिए जागरूक किया। आज हाल ये है कि अभियान से जुड़ी एक-एक लड़कियों ने अब 6 से 7 पेड़ लगा दिए हैं। वहीं इस मुहिम के तहत हम 20 हजार से ज्यादा पेड़ लगा चुके हैं।

आपने पैड बैंक के बारे में बताया, ये अबतक कितने स्कूलों में है? इस अभियान के तहत आप कैसे काम करते हैं?

तरुण बताते हैं कि हमने अभी तक आदिवासी ग्रामीण इलाकों के करीब 40 से ज्यादा स्कूलों में पैड बैंक बना चुके हैं। वहीं दूसरे स्कूलों में भी पैड बैंक बनाने के लिए करीब 100 से ज्यादा वर्कशॉप किए हैं। मुझे आज भी कई स्कूलों से फोन आता है, तो मैं उन स्कूलों में जाकर वर्कशॉप करता हूं और वहां बच्चों को जागरूक करने के बाद वहां पैडबैंक की स्थापना करता हूं। पैड बैंक से ज़रूरतमंद लड़कियां पैड ले सकती हैं।

आप इस अभियान को जमीन पर कैसे उतार पाते हैं? आपको आर्थिक सहायता कहां से मिलती है? 

तरुण कुमार बताते हैं कि शुरुआती दिनों में मैंने कुछ पैसे जमा किए थे, उससे व अपनी सैलरी के जरिए ही ये अभियान चलाता था। जब मकसद व इरादे नेक हो, तो आर्थिक समस्या आड़े नहीं आती। कोविड काल में हमें काफी क्राउड फंडिंग मिली, जिसकी मदद से हम लोगों की मदद कर पाए। वहीं वर्तमान में मैं दूसरी संस्थाओं के लिए वर्कशॉप लेकर, दूसरों को ट्रेनिंग देकर मुझे जो कुछ भी पैसे हासिल होते हैं, उन्हें मैं अपनी संस्था में लगाता हूं। कल क्या होगा ये पता नहीं, लेकिन जब तक मैं हूं ये काम जारी रहेगा।

वैसे समाज में कई लोग हैं, जो मुझे मदद करने के लिए आगे भी आते हैं। लेकिन मुझे एथिक्स और वैल्यू से इतर पैसे नहीं चाहिए। यही कारण है कि मैंने कई बड़ी शख्सियत से पैसे लेने से साफ इनकार कर दिया है।

आदिवासी महिलाओं को जागरूक करना वो भी नक्सल प्रभावित इलाकों में ये काफी मुश्किल सफर होगा, इस सफर में आपको किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ा?

झारखंड के पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला-खरसावां जैसे जिलों में मैं काम करता हूं। चांडिल, चाईबासा, नीमडीह, ईचागढ़ सहित कई गांवों में बेरोक-टोक मैं आता हूं व जाता हूं। लेकिन मुझे इतने साल में कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। शायद इसकी वजह यह भी हो सकती है कि मैं संताली, बांग्ला, कुड़माली जैसी भाषा को आसानी से समझ पाता हूं, वहीं ग्रामीणों को अपनी बात भी उनको समझा पाता हूं। मुझे खुद पर इतना भरोसा है कि मैं देश के किसी भी हिस्से में क्यों न चले जाउं मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।

अरुणाचलम मुरुगनंतम ने दक्षिण भारत में यही काम किया, जिसपर पैडमैन फिल्म भी बनी, इनके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

पैडमैन फिल्म रिलीज होने के पहले से ही मैं मेंस्ट्रुअल हेल्थ की दिशा में काम कर रहा हूं। अरुणाचलम मुरुगनंतम (Arunachalam Muruganantham) ने दक्षिण भारत में कम पैसे में सैनेटरी नैपकीन बनाकर मेंस्ट्रुअल हेल्थ के क्षेत्र में काफी अच्छा काम किया है। उन्हें पद्मश्री जैसे देश के बड़े सम्मान से नवाज़ा गया है। उनपर फिल्म बनने के बाद देशभर के लोग अब उन्हें जानते हैं। उन्हें देखकर भी मुझे काफी कुछ सीखने को मिलता है व उनसे काफी प्रेरणा मिलती है। जब फिल्म पैडमैन आई तो मैंने अपने कई स्टूडेंट्स को भी दिखाया, ताकि वे फिल्म से प्रेरणा हासिल कर सकें।

  • जमशेदपुर के काशीडीह में रहने वाले तरुण कुमार शुरुआती शिक्षा हासिल करने के बाद कई एनजीओ के साथ काम किया। वहीं आदिवासी सुदूर ग्रामीण इलाकों में बाल अधिकार, शिक्षा व बाल विवाह जैसे गंभीर मुद्दों पर जागरूक किया। वर्तमान में वे निश्चय फाउंडेशन नामक एनजीओ चला रहे हैं। बीते 6 साल से मेंस्ट्रुअल हेल्थ, बच्चों को पढ़ाने के लिए फेलोशिप प्रोग्राम, गांवों में लाइब्रेरी की स्थापना के साथ कई सामाजिक काम करते हैं।
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