राजनीति या राजधर्म

राजनीति या राजधर्म?

राजनीति और राजधर्म में बहुत अंतर है। राजनीति का बीज अहम या अहंकार में होता है और राजधर्म का बीज आत्मा में। धर्म को समझने से पहले मत्स्य न्याय को समझना बहुत आवश्यक है।

मत्स्य न्याय का मतलब है जंगल राज, जहां बलवान व्यक्ति बलहीन का शोषण करता है, जैसे जंगलों में बलवान प्राणी बलहीन प्राणी को खाता है। यह व्यवहार पशुओं के लिए प्राकृतिक और नैसर्गिक है। लेकिन, मनुष्य के लिए यह नैसर्गिक और प्राकृतिक नहीं माना जाता। धर्मशास्त्रों के अनुसार तो मनुष्यों में बलवान को बलहीन की रक्षा और उसका पोषण करने वाला होना चाहिए। रक्षा और पोषण की इस क्षमता की उत्पत्ति को ही धर्म कहा जाता है। राजा का धर्म है एक ऐसे राज्य का निर्माण करना जहां पर बलवान, बलहीन का शोषण नहीं बल्कि उसका पोषण करता हो। यदि चारों ओर बलवान बलहीन का शोषण कर रहे हैं, तो इसका मतलब है कि राज्य धर्म के मार्ग पर नहीं, अधर्म के मार्ग पर चल रहा है। राजनीति हो रही है, राजधर्म नहीं।

राजनीति की दुनिया में राजा अपने आप को राज्य से महत्वपूर्ण मानता है। राजधर्म की दुनिया में राजा अपने आप को राज्य का सेवक मानता है। जब हम राजा राम की बात करते हैं, तो हम राजनीति की नहीं, राजधर्म की बात करते हैं। यहां पर व्यक्तिगत सुख को नहीं, बल्कि राज्य के सुख को महत्व दिया जाता है।

राजनीति में नीति और रीति का केवल एक काम होता है, राजा को सिंहासन पर बिठाना, उसके शत्रुओं को हटाना और धर्म को केवल राजा के मित्रों में बांटना। लेकिन, राजधर्म में एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जाता है, जहां पर मत्स्य न्याय त्यागकर हम ऐसी नीति और रीति अपनाते हैं कि सभी लोगों को अपने पोषण और सुरक्षा का साधन मिल जाता है।

देखा जाए तो आजकल हम इंद्र की नहीं, विष्णु की पूजा करते हैं। यह इसलिए कि इंद्र के स्वर्ग में केवल देवताओं को सुख मिलता है, जबकि वैकुंठ में जिन्हें आत्मज्ञान हैं उन सभी प्राणियों को सुख की प्राप्ति होती है। इंद्र केवल देवताओं के बारे में सोचते हैं, लेकिन विष्णु चूंकि जनार्दन हैं, इसलिए सारे जनों के बारे में सोचते हैं। जैसे कैलाश पर्वत पर शिव अपने लिए नहीं, बल्कि सभी गणों के सुख के लिए जीते हैं, उसी तरह भगवान विष्णु धर्म स्थापना के लिए वैकुंठ से धरती पर अवतरित होते हैं, नीति स्थापना के लिए नहीं। इसलिए हमें राजधर्म पर ध्यान देना चाहिए, राजनीति पर नहीं।

जब हम श्रीकृष्ण की बात करते हैं, तो लोग कहते हैं कि जो भी कूटनीति से काम करता है, वह कृष्ण जैसा व्यवहार करते हैं, जैसे अधिकतर बॉलीवुड फिल्मों में दिखाया जाता है। कृष्ण जब कुरुक्षेत्र के युद्ध में नियम ‘तोड़ते’ पाए जाते हैं, तो लोग कहते हैं कि वे ‘छल’ कर रहे हैं। लेकिन, हमें इस बात को राजधर्म के दृष्टिकोण से देखना चाहिए, ना कि राजनीति के दृष्टिकोण से। कुरुक्षेत्र में जो युद्ध हो रहा है, वह मत्स्य न्याय के विरुद्ध है। इसलिए श्रीकृष्ण की कूटनीति भी धर्म के अनुरूप है।

वैसे ही रामायण में राम और रावण के बीच युद्ध राजनीति नहीं, बल्कि राजधर्म है। यह इसलिए कि रावण धर्मशास्त्र का ज्ञानी होते हुए भी पर-स्त्री को अपने घर में बलपूर्वक रख रहा है। जब राम सीता का त्याग करते हैं, तो बात निकलती है धर्म संकट की और यह प्रश्न उठता है कि राजा करे क्या धोबी को मान्यता देनी चाहिए या अपनी साम्राज्ञी को। दोनों में बलहीन कौन है? क्या हम जनकपुत्री राजकुमारी रानी सीता को बलहीन माने केवल इसलिए कि वह स्त्री है या हम धोबी को बलहीन माने क्योंकि वह पिछड़े वर्ग का है? जब हम इन सब बातों पर विचार करते हैं तब हमें राजनीति और राजधर्म में अंतर समझ आता है।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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