भारत की संस्कृति

क्या भारत में एक साथ कई संस्कृतियां घुल मिल गई हैं?

लोग कहते हैं कि भारत में कई संस्कृतियां घुल मिल गई हैं। कुछ इस तरह जैसे हम उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं कर सकते। इसके बावजूद लोग अपनी विरासत को सहेज कर रखना चाहते हैं। बोलचाल में इसे 'मेल्टिंग पॉट' और 'सलाद बाउल' कहा जाता है।

भारत की संस्कृति विविधताओं से भरी है। जहां लगभग हर इलाके में आपको अलग-अलग संस्कृति देखने को मिलेगी। इसके बाद भी देश के हर कोने में एकता और कई मामलों में एकरूपता दिखती है। संस्कृति और देशभक्ति का यह संगम रोज़मर्रा की ज़िंदगी के अलावा आपने कई बार सुनहरे पर्दे पर भी देखा होगा।

आपको हिंदी फिल्म ‘नमस्ते लंदन’ का वो सीन याद है, जिसमें एक ब्रिटिश भारत की संस्कृति को शर्मिंदा करने की कोशिश करता है? तभी नायक अर्जुन सिंह इसका पलटकर जवाब देता है और कहता है कि “हम एक ऐसे देश से आते हैं जहां कैथोलिक मूल की एक महिला को सत्ता से दूर रहने और एक सिख को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने की अनुमति देते हैं, एक मुस्लिम राष्ट्रपति को 80 प्रतिशत से  ज्यादा हिंदू आबादी के देश पर शासन करने के लिए चुनते हैं”। फिल्म का यह सीन बताता है कि भारत की संस्कृति कितनी विशाल है। भारत में इतनी संस्कृतियों के बाद भी कितनी समानता है।

लोग कहते हैं कि भारत में संस्कृति घुल मिल गई हैं। कुछ लोग कहते हैं कि कैसे ढेर सारी संस्कृतियों की धरती होने के बावजूद यह एक अखंड देश है। कुछ लोग कहते हैं कि यहां सभी संस्कृतियां एक नहीं हो सकतीं। समाजशास्त्री डॉ. मालती वेणुगोपाल कहती हैं कि “भारत में कई अलग-अलग सांस्कृतिक समूह हैं, सभी एक दूसरे के करीब हैं। भारत की संस्कृति में एक-दूसरे को स्वीकार और सहन करते हैं। शायद मतभेदों के बाद भी उसकी कद्र करते हैं। लेकिन हम पिघलने वाले बर्तन नहीं हैं; हम एक सलाद का कटोरा हैं।”

अब शायद आप सोच रहे होंगे कि ये मेल्टिंग पॉट और सलाद का कटोरा क्या है? दरअसल, ‘मेल्टिंग पॉट’ और ‘सलाद बाउल’ वो नहीं है जैसा हम सोचते हैं। डॉ. स्लावोमिर मगला नीदरलैंड के इरास्मस यूनिवर्सिटी के रॉटरडैम स्कूल ऑफ मैनेजमेंट में क्रॉस-कल्चर मैनेजमेंट के प्रोफेसर हैं। कॉलेज के ‘वन मिनट एजुकेशन’ वीडियो में वह बताते हैं कि कैसे एक मेल्टिंग पॉट को मल्टी कल्चर नहीं समझना चाहिए। इसे ज्यादा से ज्यादा सलाद का कटोरा कहा जा सकता है। लोग चाहे कितने भी अलग-अलग कल्चर से आए हो, एक जगह पर उनसे स्टैंडर्ड मेंबर्स बनने की उम्मीद की जाती है। वहीं सलाद के कटोरे में लोग अपनी पहचान बनाए रखते हैं। गौर करने की बात है कि इस कटोरे में लोग सलाद से ज्यादा सब्जियों की तरह व्यवहार करते हैं, जिसमें उनकी विविधता और क्रिएटिविटी बनी रहती है।

इस लिहाज़ से भारत मेल्टिंग पॉट से ज्यादा सलाद का कटोरा हो सकता है। डॉ. मगला कहते हैं कि परेशानी सिर्फ यह है कि कुछ सब्जियां सलाद के कटोरे में मेल्टिंग पॉट की तुलना में ज्यादा हो सकती हैं। इनसे भेदभाव बढ़ता है। सलाद के कटोरे में रखी चीज़ें हमेशा अच्छी तरह से नहीं मिल सकती। जहां कई संस्कृतियां मिलती हैं, वहां दूसरे की भावनाओं को उतना सम्मान नहीं मिलता। राजनीतिक वैज्ञानिक और इतिहासकार बेनेडिक्ट एंडरसन ने राष्ट्रवाद की प्रकृति पर अपनी किताब ‘इमेजिनेटेड कम्युनिटीज़’ में इस बारे में लिखा। वो कहते हैं कि सांस्कृतिक एकरूपता की कमी की वजह से अलग-अलग बैकग्राउंड के ‘दूसरे’ लोगों के लिए ‘अपना’ और ‘उनका’ बनाना आसान होता है।

हम एक मल्टी कल्चरल समाज में रहते हैं, लेकिन शायद अब समय आ गया है कि हम उस तरफ जाएं जिसे समाजशास्त्री ‘कट्टरपंथी बहुसंस्कृतिवाद’ कहते हैं। एकबार सुनकर लगता हो लेकिन यह न तो एक्सट्रीम है और न ही निगेटिव। सांस्कृतिक अध्ययन के रिसर्चर्स के तौर पर ज्योतिर्मय त्रिपाठी और सुदर्शन पद्मनाभन अपनी किताब डेमोक्रेटिक प्रेडिकेमेंट: कल्चरल डायवर्सिटी इन यूरोप एंड इंडिया में लिखते हैं: “कट्टरपंथी बहुसंस्कृतिवाद का मूल सिद्धांत सांस्कृतिक, नस्लीय और जातीय मतभेदों के सम्मान का विचार है। सिद्धांत सिर्फ ‘दूसरे’ को सहन करने की तुलना में कहीं ज्यादा व्यापक है।”

त्रिपाठी और पद्मनाभन अपनी किताब में जिसकी चर्चा करते हैं वह है सहिष्णुता से कुछ कदम आगे जाने और संस्कृतियों के बीच के अंतर का सम्मान करने का विचार है। यह वास्तव में हमारे देश को हमेशा बेहद पॉजिटिव तरीके से देखने की जरूरत है। कई ऐसे लोग हैं जो न सिर्फ धैर्य रखने वाले और कई कल्चर को स्वीकार करते हैं। बल्कि दूसरी संस्कृतियों के कुछ चीज़ों को भी अपनाते हैं। मेरी एक दोस्त ईद में बिरयानी, क्रिसमस में पल्म केक और दिवाली में मिठाई बनाती है। वह हर त्योहार मनाती है जिसे जानती हो, चाहे वह पर्व किसी भी संस्कृति या धर्म का हो। मेरी सिर्फ एक दोस्त ऐसा नहीं करती बल्कि समाज के कई हिस्से में ये देखने को मिलता है। भारत की संस्कृति में राजस्थानी जनजाति मंगनियार का उदाहरण ले सकते हैं जो खासतौर से मुस्लिम लोक संगीतकारों का समुदाय है। लेकिन ये हिंदू देवताओं के गीत गाते हैं। अब तो दक्षिण भारतीय शादियों में भी संगीत और मेहंदी की रस्म होती है। यह 20वीं सदी तक सिर्फ उत्तर भारतीय शादियों का हिस्सा थी।

ये थोड़े छोटे उदाहरण लग सकते हैं, लेकिन लोगों को जोड़ने के ऐसे काम हैं जो बड़ा बदलाव ला सकते हैं। हो सकता है कि हम एक ऐसा बर्तन हैं, जिसमें सब घुल मिल जाते हो। सदियों से अलग-अलग संस्कृतियों को हम अपना रहे हैं। इसलिए तो भारत का नाम लेने के साथ ही अपनापन, शानदार विरासत और तेज़ी से आगे बढ़ते देश की तस्वीर जेहन में उभरती है।

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