पुल पहले पार करने का अधिकार किसे है?

पुल पहले पार करने का अधिकार किसे है?

कभी-कभार सही होने के जुनून में, हम लक्ष्य से चूक जाते हैं और हमारी हार होती है।

एक दिन वशिष्ठ ऋषि के पुत्र, विद्वान ऋषि, शक्तिमुनि, जंगल में एक संकरे पुल पर चले ही थे, जब उन्होंने एक शक्तिशाली राजा को पुल की दूसरी ओर से आते देखा। ये इक्ष्वाकु वंश के राजा कलमाशपदा थे। वे दिनभर शिकार करके, थके प्यासे अपने महल जा रहें थे। 

कृपया पीछे हट जाए,” शक्तिमुनि ने राजा से कहा, “ताकि मैं पुल को पहले पार कर सकूँ।

नहीं, आपको पीछे हटना होगा,” राजा ने गरजते हुए कहा, “ताकि मैं पुल पार कर सकूँ।

लेकिन पुल पर पहला कदम मैंने रखा है।

हाँ, लेकिन मुझमें आपको पीछे ढकेलने की शक्ति है।

यह अनुचित है। जान लें कि मैं एक गुरु, एक पुजारी हूँ और इस भूमि का सबसे सम्मानित दर्शनशास्त्री भी हूँ। इसलिए, इस पुल को पार करने का पहला अधिकार मुझे मिलना चाहिए”, शक्तिमुनि ने तर्क देते हुए कहा।

राजा कलमाशपदा ने शक्तिमुनि का उपहास करते हुए कहा, “आप जिस शिक्षालय में पढ़ाते हों उसका निर्माण मैंने किया है। आप जो अनुष्ठान करते हैं उनके लिए मैं भुगतान करता हूँ। यदि मैं आपका पोषक नहीं होता तो आप दर्शनशास्त्री नहीं बन पाते। इसलिए पुल से पहले गुज़रने का अधिकार आपको मुझे देना होगा।

इस प्रकार दोनों में तर्कवितर्क चलते रहें। दोनों ने ही पुल से पीछे हटने से इनकार किया, और दूसरे को पीछे क्यों हटना चाहिए इसके तर्क देते हुए। अंत में, तंग आकर राजा ने अपना कोड़ा उठाकर उसे शक्तिमुनि पर चलाया। क्रोधित होकर, मुनि ने राजा को शाप दिया, “आपने एक राक्षस जैसा व्यवहार किया है, इसलिए मैं शाप देता हूँ कि आप राक्षस में बदल जाओगे।तुरंत, राजा एक राक्षस में बदल गएएक नरभक्षी राक्षस में। उसने मुनि पर झपटकर, अपना मुंह चौड़ा करके उन्हें तुरंत खा लिया।

ऐसी कहानी, जिसमें दो आदमी पुल के बीच फंसे हैं और दूसरे को पहले गुज़रने देने से मना कर रहें हैं, पुराणशास्त्र में एक आवर्ती विषय है। अधिक महत्त्वपूर्ण क्या हैपुल को पार करना या पुल को दूसरे से पहले पार करना?

स्पष्ट रूप से मुनि के लिए पुल सबसे पहले पार करना मायने रखता था। इसलिए, पुल से पीछे मुड़कर धमकी देने वाले राजा के लिए रास्ता बनाने के बजाय, उन्होंने पुल पहले पार करने पर अधिकार जमाया। फिर उनकी मांग नीति और कानून पर आधारित हठ में बदल गई। लेकिन आखिर में हुआ क्या? ऋषि ने तर्कवितर्क नहीं जीता; उन्हें पुल पार करने का मौका तक नहीं मिला; अंत में, अपने क्रोध के कारण, वे स्वयं नरभक्षी राक्षस के लिए चारा बन गए।

हम अक्सरसही होने की चाहके इस जाल में फंस जाते हैं। इस विश्वास के साथ किसी पर क्रोधित होना कि उसने हमपर अन्याय किया है अक्सर हमें हमारी मंज़िल से विचलित करता है।

कभीकभार सही होने के जुनून में, हम लक्ष्य से चूक जाते हैं और हमारी हार होती है। यदि शक्तिमुनि ने राजा को पुल पहले पार करने दिया होता तो क्या होता? वे पुल को पार कर लेते, भले ही थोड़ी देर बाद और उनके अहंकार को थोड़ी ठेस पहुँचती। लेकिन वे जीवित तो रहते। विद्वान होते हुए भी, शक्तिमुनि में यह समझने जितनी बुद्धि नहीं थी कि अंत में सही होने से ज़्यादा काम करते रहना मायने रखता है।

यह ध्यान देने योग्य है कि एक राजा पुल पर दूसरे व्यक्ति थे। राजा ने बस मान लिया कि राजा होने के नाते उन्हें पुल पहले पार करने का अधिकार था। अधिकार की उनकी यह भावना सामाजिक पदानुक्रम में उनके स्थान से आई। ऋषि के अधिकार की भावना इस बात से आई कि उन्होंने सबसे पहले पुल पर कदम रखा था। दोनों पक्षों ने अलग मापदंडों के आधार पर दावा किया और निर्णय लिए। दोनों मापदंड मानव निर्मित हैं, और प्राकृतिक नहीं बल्कि कृत्रिम हैं। पुल को पहले पार करने का अधिकार किसे मिलना चाहिए इस पहेली का कोई वस्तुनिष्ठ उत्तर नहीं है।

लेकिन, जब हम दूसरे के लिए रास्ता बनाते हैं, चाहे वह शक्तिशाली हो या हो, वह नेक कार्य माना जाता है। इस कहानी में ऋषि और राजा दोनों ही नेक नहीं निकलें।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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