मार्कण्डेय ऋषि और अमरत्व

मार्कण्डेय ऋषि और अमरत्व

हर सजीव प्राणी मृत्यु से डरता है। इसलिए वह अन्न की खोज में और शिशु प्राप्ति में अपना जीवन बिता देता है। उसे पता है कि यदि अन्न नहीं मिला तो वह मर जाएगा और यदि उसने शिशु को जन्म नहीं दिया, तो उसका वंशज समाप्त हो जाएगा। इसलिए पेड़-पौधे और सभी प्राणी अपना जीवन मृत्यु को मात देने में बिताते हैं। लेकिन अंततः मृत्यु ही जीतती है।

केवल मनुष्य एक प्राणी है, जो अमरत्व की कल्पना कर सकता है। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि क्षीरसागर के मंथन से अमृत नामक एक ऐसा तत्व निकलेगा, जिसे प्राप्त करने से मृत्यु का भय निकल जाएगा। शास्त्रों में मोक्ष के बारे में भी बताया जाता है, जिससे मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

अमरत्व से जुड़े एक महान ऋषि मार्कण्डेय हैं। मार्कण्डेय सबसे पुराने पुराण के लेखक भी माने जाते हैं। उन्होंने जो अनुभव किया और व्यक्त किया, वह ‘मार्कण्डेय पुराण’ में मिलता है। कुछ लोग मानते हैं कि मार्कण्डेय सप्तऋषि में से एक हैं। उनके साथ अमरत्व की दो कथाएं जुड़ी हुई हैं, पहली शैव परंपरा से और दूसरी वैष्णव परंपरा से।

शैव परंपरा की कथा ऐसी है कि विवाह के बाद एक दंपती शिवजी से प्रार्थना करते हैं। शिवजी उन्हें वरदान देते हैं कि या तो उन्हें अल्पायु वाला सुबुद्धि का बालक मिलेगा या दीर्घायु वाला कुबुद्धि का बालक। दपंती सुबुद्धि के अल्पायु वाले बच्चे का चयन करते हैं। इस प्रकार मार्कण्डेय का जन्म हुआ।

मार्कण्डेय जब 16 साल के थे, तब उन्होंने देखा कि उनके माता-पिता रो रहे हैं। उनसे कारण पूछने पर उन्होंने मार्कण्डेय को शिवजी के वरदान के बारे में बताया कि वह सुबुद्धि को प्राप्त हैं, लेकिन 16 साल की उम्र में यमराज आकर उसके प्राण ले लेंगे। सुबुद्धि होने के कारण मार्कण्डेय मृत्यु से नहीं डरते थे। उन्होंने कहा कि वे मृत्यु को स्वीकार करेंगे, लेकिन उससे पहले वे शिवजी की प्रार्थना करेंगे। सुबुद्धि के कारण उन्होंने ब्रह्मविद्या प्राप्त की थी और उन्हें पता था कि मृत्यु के समय ब्रह्म शिव के रूप में प्रस्तुत होते हैं। इसलिए उन्होंने नदी के तट पर जाकर शिवलिंग का निर्माण किया और उस पर शिव की आराधना करने लगे।

मृत्यु की बेला आने पर यमराज वहां पर आए और उन्होंने मार्कण्डेय से मृत्युलोक चलने को कहा। तब बालक ने कहा कि कुछ समय रुको, मुझे शिव की आराधना समाप्त करने दो। यमराज हंस पड़े और उन्होंने कहा कि मृत्यु किसी के लिए नहीं रुकती, शिवजी के लिए भी नहीं। यह कहकर वे मार्कण्डेय के प्राण को बलपूर्वक घसीटकर उसके शरीर से निकालने लगे। तब मार्कण्डेय रोने लगे और शिवजी की आराधना दोबारा करने लगे। उस समय शिवजी वहां प्रकट हुए और यमराज को पराजित करके उन्होंने कहा कि मेरे भक्त को तुम यमलोक नहीं ले जा सकते। यमराज ने शिवजी की बात मान ली और उस दिन से मार्कण्डेय अमर हो गए।

अब वैष्णव परंपरा से जुड़ी कथा की बात। अमर होने के कारण उन्होंने अपनी आंखों से प्रलय का अनुभव किया। प्रलय में स्वर्ग, नर्क और भू-लोक सभी समंदर में समा जाते हैं। उस महाप्रलय में, जहां बड़ी-बड़ी लहरें पहाड़ों और नगरों को अपने में समा रही थीं, मार्कण्डेय को एक बहुत ही अद्भुत दृश्य दिखा। उन्हें वटपत्र पर बैठा छोटा-सा बालक दिखा, जो अपने पैर की बड़ी अंगुली चूस रहा था और हंस रहा था। मार्कण्डेय को यह बात समझ में नहीं आई। तभी उस हंसते हुए बालक ने ज़ोर से श्वास लेकर मार्कण्डेय को अपने शरीर के अंदर ले लिया। शरीर के भीतर मार्कण्डेय ऋषि को पूरा ब्रह्माण्ड दिख गया। उन्होंने सभी लोकों और तलों के दर्शन किए। फिर बालक ने अपनी श्वास छोड़ी और मार्कण्डेय बाहर निकल आए, फिर से प्रलय के बीच, जहां पर हाहाकार मचा हुआ था और वटपत्र पर बैठे हंसते हुए बालक के उन्होंने फिर से दर्शन किए। उन्हें पता चला कि यह बालक स्वयं विष्णु भगवान हैं और जो प्रलय हो रहा है, संसार जो टूट रहा है, वह अंततः उन्हीं के भीतर समाया हुआ है।

ये दो कथाएं मार्कण्डेय को अमरत्व के साथ जोड़ती हैं, एक कथा बताती है कि शिव की आराधना करके हम मृत्यु पर विजय प्राप्त कर अमरत्व का अनुभव कर सकते हैं। दूसरी कथा वैष्णव परंपरा से जुड़ी हुई है, जो कहती है कि प्रलय होने के पश्चात भी संसार लौट आएगा। संसार भी अक्षय वटपत्र जैसा ‘अक्षय’ है। पतझड़ जैसे आता है और जाता है, वैसे ही संसार आता और जाता है, संसार अमर है। ऐसी कथाओं के माध्यम से उपनिषद और वेदांत के तत्वज्ञान साधारण मनुष्य तक पहुंचाए गए।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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