हम दीप को इतना क्यों मानते हैं?

हम दीप को इतना क्यों मानते हैं?

दिवाली में दीप जलाने की प्रथा सदियों पुरानी है। आइए इस पर कुछ चिंतन करते हैं।

जब लोग वैदिक काल में दीप जलाते थे, तब दीप का धर्म के साथ कोई संबंध नहीं था। दरअसल, उस समय तब दीप की जगह यज्ञ की बात होती थी। यज्ञवेदी के अंदर अग्नि जलाई जाती थी। जब लोग अग्नि को घी देते तो उसे सुख मिलता। वो यजमान की ऋणी होकर, एक दूत बनकर यजमान के मुख से निकले मंत्र, इच्छाएं और चाहतें देवताओं तक पहुंचाती। इन्हें सुनकर देवता प्रसन्न होते और यजमान को आशीर्वाद देते। तो वैदिक काल की परंपरा में हमें यज्ञवेदी और अग्नि की जानकारी मिलती है, ना की दीप की।

दीप का उल्लेख गृहस्थ जीवन की बातों में होता है। पौराणिक काल में यज्ञशाला की परंपरा घटती गई और मंदिर की परंपरा बढ़ती गई। मंदिरों में पत्थर या धातु की देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी गईं जिन्हें सुख देने के लिए कई प्रकार के उपहार दिए जाते थे, जैसे उनका अभिषेक करना, उन्हें दूध, दही, तेल और पानी से नहलाना। उन्हें नैवेद्य, भोजन, वस्त्र, गंध और सुगंधित धूप के साथ-साथ दीप भी दिए जाते थे। तो दीप एक प्रकार का उपहार होता था। महाराष्ट्र में मंदिरों के बाहर पत्थर के विशाल स्तंभ दिखते हैं, जिनके बगल में दीप होते हैं। इन दीपस्तंभ के सभी दीप जलाए जाने पर ऐसे लगता है कि अग्नि का एक स्तंभ खड़ा हुआ है, जो धरती को स्वर्गलोक से जोड़ रहा है। यह बहुत ही अद्भुत रस प्रकट करते हुए मनुष्य को देवता की ओर ले जाता है और देवता का अनुभव देता है। शिवपुराण में मानता है कि जब शिवजी ने पहली बार दर्शन दिए तो वे अग्नि के स्तंभ के रूप में आए थे; ऐसा स्तंभ जिसकी ना शुरुआत थी, ना अंत। इस तरह अग्नि के माध्यम से देवताओं को व्यक्त करने की प्रक्रिया पौराणिक काल से शुरू हुई।

केवल मनुष्य ही वह प्राणी है जो अग्नि को वश में रख सकता है। पशु पक्षी अग्नि से डरते हैं। तो अग्नि का मानवता से कोई नाता है; जो अग्नि को अपने वश में रख सकता है, वही मनुष्य है। इसलिए यज्ञ कुंड और धूनी पशु से पुरुष तक के परिवर्तन के सबसे पहले संकेतक हैं, यह कि अब मनुष्य संस्कृति की ओर बढ़ रहा है।

इस तरह हम कह सकते हैं कि अग्नि की पूजा करना संस्कृति की पूजा करना है। अग्नि का सबसे शुद्ध रूप दीप है। दीप यह संकेतक है कि मनुष्य की संस्कृति और सभ्यता बहुत ही आगे बढ़ चुकी है। जब हम दीप को संध्या के समय जलाते हैं, तो जंगल में जा रहे लोग धूनी और दीप की रोशनी के बीच का अंतर जान लेते हैं। दीप की रोशनी स्थिर और सौम्य होने से उन्हें पता चलता है कि पास में कोई ग्राम या नगर है।

धीरे-धीरे दीप को देवी से जोड़ा गया। घर में दीप होने का मतलब है घर में लक्ष्मी है, जहां पर लोग संध्या की बेला में आकर भोजन प्राप्त कर सकते हैं। दीप सरस्वती का भी चिह्न बन गया क्योंकि अंधकार को अविद्या से जोड़ा गया। दीप दुर्गा या शक्ति का भी चिह्न बन गया क्योंकि इससे यात्रियों को पता चलता है कि शरण कहां मिल सकती है। इसलिए भारत में दीप को बहुत ही पवित्र माना गया है।

दक्षिण भारत में अपना धन दिखाने के लिए राजा मंदिरों में दीप देते थे। लेकिन, दीप देते समय उनसे कहा जाता कि दीप में घी होने के लिए उन्हें गाय और बकरी का भी दान देना होगा। इससे किसी ग्वाले को रोज़गार मिल जाता। तो बहुत अधिक दीप देने का मतलब है राजा के पास इतना धन है और उसके साथ उतने लोगों का घर चल रहा है। इस प्रकार दीप खुशहाली का संकेतक है। इसलिए दिवाली के समय हम दीप को इतना महत्व देते हैं।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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