हिम्मत शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, हिम + मत। हिम का अर्थ है, बर्फ और मत का अर्थ है विचार। जिसकी विचारधारा में हिम जैसी दृढ़ता, अडिगता, अचलता हो उसे कहते हैं हिम्मत का धनी। मार्ग में बाधाएं तो आनी हैं फिर भी कुछ कर गुज़रने का जज्बा, चुनौतियों को भी चुनौती देने का संकल्प, बाधाओं को कुचलकर आगे बढ़ने का साहस, इसे हिम्मत कहा जाता है।
हर व्यक्ति में हिम्मत होती है, परंतु कईयों की सुषुप्त अवस्था में चली जाती है। जब उस सोई हुई हिम्मत को पहचान नहीं पाते, उसे कार्य में लगा नहीं पाते तब मन में विचार आने लगते हैं कि पता नहीं कार्य होगा या नहीं होगा, पता नहीं परिस्थितियों के बादल छंटेंगे या नहीं। भगवान कहते हैं कि यह गे-गे की भाषा बाल अवस्था की भाषा है। छोटा बच्चा ‘ गे-गे ‘ करता है, परंतु परिपक्व अवस्था वाले की भाषा में ‘गे’ की बजाय ‘है’ होता है। वह कहेगा, बादल छंटने ही हैं, विघ्न हटने ही हैं, कार्य होना ही है। मुझे करना ही है और कार्य हुआ ही पड़ा है, ये हैं हिम्मत के बोल।
मकड़ी का उद्यम बना उत्प्रेरक
सोई हुई हिम्मत को जागृत करने में कई बार कोई घटना, दृश्य या संस्मरण भी उत्प्रेरक बन जाता है। युद्ध में पराजित, निराश, हताश एक राजा के लिए एक छोटी-सी मकड़ी का उद्यम ही उत्प्रेरक बन गया। उदास राजा ने देखा कि दीवार पर चढ़ने के प्रयास में एक मकड़ी कई बार गिरी, परंतु उसने चढ़ने का प्रयास जारी रखा। आखिर में वह सफल हुई। इसे देख उदास राजा की आंखों में चमक आ गई और मन में साहस तथा आत्म-विश्वास का संचार हो गया। इसी साहस के बल पर वह अपने अभियान में विजयी हो गया।
सामने की बात पर नहीं, अपने बल पर केन्द्रित हो जाओ
एक बार जागने के बाद भी हिम्मत पुनः डांवांडोल हो जाती है। किसी विरोध को या प्रतिकूल लोगों को देखकर हिम्मत टूटने और बिखरने लगती है। ऐसे में लगने लगता है कि सामने वाली बात बहुत बड़ी है और मुझमें तो इसका सामना करने की शक्ति नहीं है। ऐसा इसलिए होता है कि हम सामने आई बात के बारे में सोच-सोच कर उसको तो ऊर्जावान बना देते हैं और अपने को ऊर्जाहीन बना लेते हैं। होना यह चाहिए कि हम अपने बल पर पूर्ण एकाग्र होकर, अपने लक्ष्य पर केन्द्रित हो जाएं, इससे हम ऊर्जावान हो जाएंगे और हर बड़ी बात छोटी होकर हमारा स्वागत करेगी तथा हमें मार्ग दे देगी।
सोचा और किया, इसमें है आनंद
कार्य को करने की बजाय सोचते ही जाना, टालते जाना, भविष्य पर छोड़ देना, ये सब हिम्मतहीनता के लक्षण हैं। संकल्प उठा और कर दिखाया, इसका अपना एक आंतरिक आनंद होता है। ताज़ा भोजन खाने में और बासी भोजन खाने में जो अंतर है वही अंतर तुरंत करने में और सोच-सोच कर करने में है। ताजे भोजन में स्वाद और पौष्टिकता दोनों होते हैं, उसी प्रकार, सोचते ही कर लेने में हल्कापन, खुशी, स्वतंत्रता और आंतरिक आनंद जैसे कई सुंदर अनुभव समाए रहते हैं। ऐसे व्यक्ति का आत्म-बल, आत्म-विश्वास भी चरम पर पहुंच जाता है। उसका संकल्प होता है, सबकुछ संभव है।
प्रतीक्षा, बहाना और आलस्य
हिम्मतवान किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करते कि यह सहयोगी बने, यह अनुकूल हो, ये हालात बदलें। वे तो दृढ़ प्रतिज्ञा करते हैं कि चाहे जान चली जाए पर प्रतिज्ञा नहीं जा सकती। जब जान की ही बाजी लगा दी, तो इससे बड़ी बाजी तो कोई होती नहीं। इस बाजी का अर्थ है, कैसी भी परिस्थितियां हों, पर हिम्मत को हिला नहीं सकती। हम हार खा नहीं सकते, विजय का हार पहनेंगे। पीछे हट नहीं सकते बल्कि पीछे वालों को भी आगे ले आएंगे। प्रतिज्ञावान प्रतीक्षा नहीं करते और न ही बहानेबाजी करते हैं। बहाने करने वालों के बोल होते हैं, ऐसे नहीं था, ऐसे था, ऐसा नहीं होता तो ऐसे हो जाता, वैसे नहीं होता तो वैसे हो जाता, इसने ऐसा कर दिया, परिस्थिति ऐसी आ गई, बात ही ऐसी थी, उसने वैसा कर दिया आदि-आदि। ‘ऐसा-वैसा’ यह भाषा बहानेबाजी की है और ‘लक्ष्य जैसा’ यह भाषा हिम्मत और दृढ़ता की है। हिम्मवान यह नहीं सोचता कि दूसरों को मुझे बनाना है, वह सोचता है, मुझे बनना है। दूसरे ऐसा करें तो मैं बनूं, सहयोग दें तो मैं आगे बढूं, नहीं। उसकी धारणा होती है, स्व को देखना, स्व को बदलना और स्व के मान में रहना।
हिम्मत में कमी आने का एक अन्य कारण है आलस्य और लापरवाही, जिसके शब्द हैं; यह तो होता ही है, चलता ही है, हो जाएगा, देख लेना, मेरे पर विश्वास करो आदि-आदि। बड़े-बड़े भी ऐसे करते हैं, हम तो हैं ही छोटे, यह है स्व को देखने की नज़र की कमजोरी और पर को देखने की नज़र की तेजी। ऐसी नज़र हिम्मतहीन कर देती है।
80/20 का फॉर्मूला
कोई भी व्यक्ति, समाज, संगठन या देश हिम्मत के बिना आगे नहीं बढ़ सकता। कई बार सरकारें ऐसी योजनाएं बनाती हैं जिनमें जन-सहभागिता अनिवार्य होती है। मान लीजिए, किसी गांव में तालाब बनाने का बजट 20 लाख रुपए है। सरकारी आदेश आता है कि 20 प्रतिशत धन ग्रामवासी एकत्रित करेंगे और 80 प्रतिशत धन सरकार देगी। यदि सभी ग्रामवासी हिम्मत का कदम उठाकर 20 प्रतिशत एकत्रित करेंगे, तो ही सरकारी सहयोग मिलेगा और गांव का विकास होगा अन्यथा सरकार से मिलने वाले 80 प्रतिशत धन को भी वे खो देंगे। कई ग्रामवासी एकजुट होकर यह कर दिखाते हैं और कई एकजुटता की हिम्मत नहीं दिखा पाते इसलिए पिछड़ जाते हैं।
यही फॉर्मूला हम पर भी लागू होता है। हिम्मत के 20 नहीं मात्र एक कदम बढ़ाने से ईश्वरीय मदद के 80 नहीं, 100 के 100 कदम मदद के मिल जाते हैं। यदि एक कदम नहीं बढ़ाएंगे तो प्रभु के 100 कदमों की मदद ना मिलने का नुकसान भी हम ही उठाएंगे।
हिम्मते मर्दा, मददे खुदा
भगवान भी उसकी मदद करते हैं, जो हिम्मतवान बनता है। जो हिम्मत ही हार गया, वह मदद को ले कैसे सकेगा? मदद को स्वीकार करने के लिए भी पहले हिम्मत करनी पड़ती है। जब हम ईश्वरीय मार्ग पर पांव रखते हैं, तो हिम्मत से दृढ़ संकल्प करते हैं कि हमें इस गंदी, पुरानी, विकृतियों से भरी तमोगुणी दुनिया में पवित्र रहना है। यह संकल्प ऐसा ही है जैसे धारा के विपरीत तैरने का संकल्प करना। धारा की दिशा में तो मुर्दा भी बह जाता है, परंतु उसके विपरीत चलना मानो धारा की प्रचंड शक्ति को चुनौती देना है। बने बनाए रास्तों पर चलना सहज होता है, परंतु पवित्रता के नए मार्ग का निर्माण करना, इसमें आंतरिक बल की आवश्यकता होती है।
आप सबने वो कहानी सुनी होगी कि एक बार जंगल में आग लग गई। सभी पशु, प्राणी, पंछी भयभीत होकर जंगल छोड़कर भागने लगे। उन्हीं के बीच एक छोटी चिड़िया भी थी, जो जंगल से भागने की बजाए आग बुझाने का उपाय सोचने लगी। समाधान भरी इस सोच के साथ वह जंगल के जलाशय से अपनी चोंच में पानी भर-भर कर आग पर डालने लगी। उसे यह कार्य करते देख एक कौवे ने कहा, आपकी चोंच के बूंद भर पानी से क्या यह आग बुझ जाएगी? चिड़िया ने कहा, कौवा भैया, आप भी मेरे साथ लग जाओ, हमारे संयुक्त प्रयास से आग कुछ अधिक बुझेगी। परंतु कौवा यह कहते हुए दूर उड़ गया कि इस असंभव कार्य में हाथ डालकर क्यों समय बर्बाद करूं। तभी एक लोमड़ी भी चिड़िया को मेहनत करते देखकर पूछने लगी, आपके इस प्रयास से क्या आग बुझेगी? चिड़िया ने कहा, आप भी लग जाओ, दोनों मिलकर करेंगे, तो अवश्य कार्य जल्दी हो जाएगा। लोमड़ी भी यह कहकर जंगल छोड़कर भाग गई कि जब सब भाग गए तो मुझे क्या पड़ी है आग बुझाने की, मैं तो अपनी सुरक्षा खोजूं। चिड़िया अपने काम में लगी रही। तभी वहां से हाथियों का एक झुंड गुजरा। हाथी के एक छोटे बच्चे ने चिड़िया को अति व्यस्त देखकर पूछा, चिड़िया रानी, क्या कर रही हो? उसने कहा, जंगल में आग लगी है, आप भी चलो आग बुझाने में मदद करो। हाथी का बच्चा चल पड़ा जलाशय की ओर तथा अपनी सूंड में पानी भर कर आग पर डालने लगा। बाकी हाथी अपने एक साथी को न पाकर उसे ढूंढ़ने लगे। जब देखा कि वह अकेला आग बुझाने में लगा है, तो बाकी सभी हाथी भी अपनी-अपनी सूंड में पानी भरकर आग बुझाने में लग गए। इस प्रकार चिड़िया की हिम्मत और हाथियों की एकता से देखते ही देखते आग बुझ गई। कहानी हमें बताती है कि अच्छे कार्य में आप हिम्मत के साथ लग जाओ। भगवान आपकी मदद के लिए हजारों सहयोगी बना देंगे और आप अवश्य सफल हो जाएंगे।
हिम्मत का कदम बढ़ाते ही परमात्मा पिता से आंतरिक बल, ज्ञान का बल, ईश्वरीय बल मिलना प्रारम्भ हो जाता है कि ”बच्चे, आप आदि-अनादि पवित्र आत्मा हैं, आपने यह संकल्प पहली बार नहीं किया, आप अनेकों बार कीचड़ में कमल बनी हैं और बनती रहेंगी। मंदिरों में आपके ही परम पवित्र रूप की पूजा हो रही है और भक्त आपके जड़ चित्रों से पवित्रता का बल मांगते हैं। आपकी पवित्रता की वे महिमा गाते हैं। पवित्रता की निशानी के रूप में आप पूज्य आत्मा के सिर पर लाइट का ताज है। बच्चे, माया का काम है आना और आपका काम है विजय प्राप्त करना। आपकी हिम्मत और बाप की मदद से असंभव संभव होना ही है।”
साहस और दुस्साहस
कई बार व्यक्ति में हिम्मत तो होती है, परंतु उस हिम्मत को सही दिशा न मिलने से वह दुस्साहस में बदल जाती है। दुस्साहस अर्थात ताकत का दुरुपयोग। एक स्काउट ने अपने साथ बीती एक घटना सुनाई कि वह अपने दोस्तों के साथ एक मॉल में गया। दोस्तों ने तय किया कि अपनी बहादुरी साबित करने के लिए वे मॉल से कुछ चुराएंगे। उन्होंने इस स्काउट से पूछा कि तुम क्या चुराओगे? इसने जवाब दिया, कुछ नहीं, मैं यह नहीं करूंगा। एक लड़के ने पूछा, क्या बात है, क्या तुम्हें डर है कि तुम पकड़े जाओगे? स्काउट ने कहा, मैं डरपोक नहीं हूं, परंतु दुस्साहस के वश कोई काम नहीं करना चाहता। यह कहकर यह स्काउट अलग चल पड़ा। तुरंत ही, अन्य लड़के भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े क्योंकि उन्होंने भी यह निर्णय लिया कि दुस्साहसी बनने की बजाय न करना बेहतर है।
भगवान शिव कहते हैं, ”कई बच्चे मदद के पात्र होते भी मदद से वंचित क्यों रह जाते हैं? हिम्मत की विधि भूलने के कारण। अभिमान अर्थात अलबेलापन और स्व के ऊपर अटेंशन की कमी के कारण। विधि नहीं तो वरदान से वंचित बन जाते। जैसे तालाब का पानी खड़ा हुआ होता है, ऐसे पुरुषार्थ के बीच में खड़े हो जाते हैं, इसलिए कभी मेहनत, कभी मौज में रहते। आज देखो तो बड़ी मौज में हैं और कल छोटे से रोड़े के कारण उसको हटाने की मेहनत में लगे हुए हैं। अगर कोई उन्हें कहता है कि यह तो बहुत छोटा कंकड़ है तो हंसी की बात क्या कहते, आपको क्या पता, आपके आगे आए तो पता पड़े। भगवान को भी कहते हैं, आप तो हो ही निराकार, आपको भी क्या पता। लेकिन इसका कारण है छोटी-सी भूल। हिम्मते बच्चे, मददे खुदा इस राज को भूल जाते हैं। मदद का सागर होते हुए भी भगवान ने यह विधान की विधि रखी है कि जितना चाहो हिम्मत रखो और मदद लो।”