जो सोचें वह हो जाए, कैसे?

जो सोचे वह हो जाए, कैसे?

जैसे कच्चे और पके मटके में अंतर होता है, उसी प्रकार मानव के कच्चे और पक्के विचारों में अंतर होता है।

एक मटका मिट्टी और पानी के सहयोग से बनता है। यदि इस पर पानी की बूंदें पड़ जाएं, तो यह गल सकता है और यदि पानी का तेज़ बहाव आए तो गलने के साथ-साथ बह भी सकता है परंतु जब इस कच्चे मटके को अग्नि का संग देकर पका दिया जाता है, तो यह पानी की बूंदों के प्रहार से और पानी के बहाव से तो सुरक्षित हो ही जाता है, साथ-साथ पानी को अपने अंदर शरण देने वाला बन जाता है।

कच्चे और पक्के विचार

जैसे कच्चे और पके मटके में अंतर होता है, उसी प्रकार मानव के कच्चे और पक्के विचारों में अंतर होता है। जब कोई मानव पहले-पहले यह विचार करता है कि मुझे हर परिस्थिति में शांत रहना है, तब मानो वह शांति का कच्चा घड़ा तैयार करता है। लेकिन, अशांति, विरोध, प्रतिकूलता, नकारात्मकता की बूंदें पड़ते ही विचारों का यह कच्चा घड़ा भी गलने और बहने लगता है। तब वह सोचता है, मैं तो शांत रहना चाहता हूं, शांति मुझे प्रिय है, मैं किसी को अशांत नहीं करता हूं परंतु फिर भी मेरा मन अशांत क्यों हो जाता है? कारण यह है कि संकल्प रूपी घड़े को पकाया नहीं गया है। इसे पकाने के लिए चाहिए ईश्वरीय संग रूपी अग्नि जिसे दूसरे शब्दों में योगाग्नि कहा जाता है। जब हम योगबल से अपने विचारों को फौलादी स्वरूप दे देते हैं, तब मानो वे पक जाते हैं और फिर कैसी भी विपरीत बात आने पर भी अपने स्वरूप में अडिग रह पाते हैं।

परमात्मा पिता के संग का बल

बात केवल शांति के संकल्प की नहीं है, कोई भी उत्तम विचार पहले योगाग्नि से तपाना पड़ता है, तब वह दृढ़ हो पाता है। योगाग्नि में तपाने का अर्थ है, परमात्मा पिता के मानसिक संग से उत्पन्न लगन, स्नेह, दृढ़ता, सफलता, विजय और समानता के विश्वास में संकल्प को रंगना। ऐसा संकल्प जब बार-बार परमात्मा पिता के संग का बल पाता है, तो वो उन्हीं के समान दृढ़ और शक्तिवान बन जाता है। अतः हम शांति, प्रेम, पवित्रता, त्याग, दया, उदारता, करुणा… के संकल्पों को तो पकड़ें परंतु साथ-साथ परमात्मा पिता के संग की मज़बूती भी उन्हें दें।

भगवान कहते हैं, किसी भी संकल्प रूपी बीज को फलीभूत बनाने का साधन एक ही है, वह है, ‘सदा बीज रूप बाप से हर समय सर्व शक्तियों का बल उस बीज में भरते रहना।’ बीज रूप द्वारा आपके संकल्प रूपी बीज सहज और स्वतः वृद्धि को पाते फलीभूत हो जाएंगे। बीज रूप से निरंतर कनेक्शन न होने के कारण अन्य आत्माओं को व साधनों को वृद्धि की विधि बना देते हैं। इस कारण ऐसे करें, वैसे करें, इस जैसा करें, इस विस्तार में समय और मेहनत ज्यादा लगाते हैं।

चित्त को चैन आए कैसे?

आज हम देख रहे हैं कि मानव आत्माओं की अत्याचार, अनाचार, दुराचार, अन्याय, पक्षपात, प्रतिशोध, ईर्ष्या आदि की आग्नेय वृत्तियों से यह संसार अदृश्य रूप से सुलग रहा है। एक छोटा बच्चा भी जन्म के कुछ समय बाद इस सुलगाहट का शिकार हो जाता है। घर से बाहर गए व्यक्ति की जान और माल, मान और इज्जत खतरे में है तो घर के अंदर भाव-स्वभाव की टकराहट में उसका चैन टूक-टूक हुआ जा रहा है। मनोरंजन के साधन भी सामाजिक विकृतियों को बढ़ा-चढ़ा कर परोस रहे हैं। उन्हें देखने वाले अपनी विकृतियों का शमन करने की बजाय और अधिक भड़का बैठते हैं। चारों तरफ आपराधिक माहौल है। ऐसे में व्यक्ति जाए तो जाए कहां? सुकून पाए कहां? चित्त को चैन आए कैसे?

परमपिता परमात्मा शिव, संसार के वर्तमान स्वरूप से पहले से ही भिज्ञ थे, इसलिए ऐसा कठिन समय आने से बहुत पहले ही वे अवतरित हो गए और पिछले 83 वर्षों से वृत्ति द्वारा वृत्ति के परिवर्तन की पढ़ाई पढ़ा रहे हैं। जैसे यादगार शास्त्रों में दिखाते हैं कि रावण के अस्त्रों को श्री राम काट गिराते हैं या आसुरी शक्ति वालों को ईश्वरीय शक्ति वाले निरस्त कर देते हैं, ऐसे ही हम यदि ईश्वरीय संग में रंगे हुए संकल्पों की एक बाड़, एक कवच अपने चारों ओर बना लें, तो उसमें आसुरी वृत्तियां प्रवेश नहीं कर पाएंगी और हम सुरक्षित रह पाएंगे।

क्या अर्थ है वृत्ति का

कई बार यह सवाल उठाया जाता है कि विचार और वृत्ति में क्या अंतर है। वृत्ति भी विचार ही है परंतु जब एक ही प्रकार के विचार बार-बार मन में उठते हैं और कर्म में भी आते हैं, तो वह व्यक्ति की वृत्ति कहलाती है। जैसे एक शब्द है त्याग और दूसरा शब्द है त्याग-वृत्ति। दोनों में क्या अंतर है? कई परिस्थितियों में किसी विशेष प्रेरणा के वश, अच्छे संग के प्रभाव से या मजबूरी से हम कई बातों का त्याग कर देते हैं, परंतु उस प्रभाव, परिस्थिति, मजबूरी आदि के पूरा होते ही हम पुनः पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। इसका अर्थ यह है कि हमने अल्पकाल के लिए त्याग किया पर त्याग-वृत्ति नहीं बनाई। वृत्ति का अर्थ है संस्कार। वृत्ति निर्मित होने पर, परिस्थिति अनुकूल हो या प्रतिकूल वह प्रकट होती ही रहती है।

वृत्ति अर्थात एक ही दिशा में बार-बार उठने वाले दृढ़ विचार। ये विचार वाचा और कर्म में आते-आते हमारे व्यक्तित्व को उसी रूप में ढाल देते हैं और वैसी ही हमारी पहचान बना देते हैं। फिर लोग उसी रूप में हमें पहचानने लगते हैं। जैसे सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति अपराध-वृत्ति का है, अमुक में दया-वृत्ति बहुत है, अमुक की क्रोध-वृत्ति, कभी भी प्रकट हो जाती है आदि-आदि।

स्वच्छ मनोवृत्ति

यदि स्वच्छ, उजले कपड़े को मैला पानी छू जाए तो उसकी उज्ज्वलता पर धब्बे नज़र आने लगते हैं। फिर पानी से ये धब्बे उतारे जाते हैं। इसी प्रकार स्वच्छ आत्मा को जब मैली मनोवृत्ति छू लेती है, तो वह दागदार हो जाती है। इन दागों को उतारने के लिए पुनः मनोवृत्ति का ही सहयोग लेना पड़ता है। विकार रहित मनोवृत्ति बनाकर हम आत्मा पर लगे भूतकाल और वर्तमान काल के धब्बे धो सकते हैं।

विचारों पर पहरा

मनोवृत्ति को ऐसा बनाने के लिए निरंतर स्वयं पर अटेंशन की ज़रुरत है। कोई भी नकारात्मक विचार आया और हम रुक गए, उस विचार पर विचार करने के लिए। वह क्यों उठा? किस पुराने संस्कार के प्रभाव से उठा, कितना नुकसान कर गया और भविष्य में न उठे, उसके लिए क्या प्रबंध किया जाए आदि-आदि। जैसे घर में यदि कोई जहरीला जंतु सर्प या बिच्छू प्रवेश कर जाए, तो हम पूरी जांच-पड़ताल करते हैं कि कहां से प्रवेश किया, कब प्रवेश किया, कितनों ने प्रवेश किया, कौन से छिद्र या बिल से प्रवेश किया आदि-आदि। इस सारी जांच-पड़ताल के बाद यदि कोई छिद्र या बिल मिल जाता है, तो उसे तुरंत बंद करने की कोशिश करते हैं और बार-बार उसकी चेकिंग करते हैं कि दोबारा घुसपैठ न हो जाए। गलत विचार, विकारी विचार सर्प की तरह जहरीला है, जिसकी समाप्ति का पुख्ता इलाज आवश्यक है। यदि लापरवाही की तो इनकी पूरी फौज इकट्ठी हो जाएगी। जैसे सीमा पर जिस पोस्ट पर थोड़ी चौकसी कम हो और शत्रु को इसकी भनक लग जाए, तो जत्थे-के-जत्थे दुश्मनों के घुसपैठ करके तबाही मचा देते हैं, ऐसे ही यदि साधारण चिंतन है, विचारों पर पहरा नहीं है तो कोई भी कुविचार प्रवेश कर अंदर भारी तबाही मचा सकता है।

भगवान कहते हैं, ‘वृत्ति बहुत तीखे राकेट से भी तेज़ है। वृत्ति द्वारा वायुमंडल का परिवर्तन कर सकते हैं। जहां चाहें, जितनी आत्माओं तक चाहें, बैठे-बैठे पहुंच सकते हैं। इसके लिए सिर्फ वृत्ति में सर्व के प्रति शुभभावना, शुभव कामना हो और बेहद की भावना हो। दूसरे के नकारात्मक भावों को सकारात्मक बनाने की भावना हो। ब्रह्माकुमारीज की स्थापना के समय, यज्ञ में साधनों की कमी नहीं थी परंतु साथ-साथ बेहद की वैराग्य वृत्ति भी थी। अब भी साधनों का प्रयोग करो, लेकिन जितना हो सके उतना वैराग्यवृत्ति के साथ, साधनों के वशीभूत होकर नहीं। एक तरफ संसार में भ्रष्टाचार-पापाचार की अग्नि है, दूसरी तरफ आप बच्चों की शक्तिशाली योग की अग्नि आवश्यक है। आपकी योग अग्नि, उस अग्नि को समाप्त करेगी।’

‘वाणी और वृत्ति से साथ-साथ सेवा में लगे रहें। आपके बोल, कर्म, वृत्ति से सबको हल्केपन की अनुभूति हो। इसमें सहनशक्ति को धारण करने की आवश्यकता है। जो भी आवे उसे कुछ ईश्वरीय तोहफा दें, वह खाली हाथ नहीं जाए। आप मास्टर स्नेह के सागर हो, सारी दुनिया आप पर क्रोध करे, पर आप दुनिया की परवाह मत करो, बेपरवाह बादशाह बनो, तब आपकी श्रेष्ठ वृत्ति से शक्तिशाली वायुमंडल बनेगा। जैसे आजकल साइंस के साधनों से रद्दी माल को भी बहुत सुंदर रूप में बदल देते हैं, आपकी श्रेष्ठ वृत्ति भी व्यर्थ को समर्थ में बदल दे।’

X

आनंदमय और स्वस्थ जीवन आपसे कुछ ही क्लिक्स दूर है

सकारात्मकता, सुखी जीवन और प्रेरणा के अपने दैनिक फीड के लिए सदस्यता लें।