अगर उत्तर भारत से दक्षिण भारत में कर्म कांड और ज्ञान कांड का प्रचार हुआ तो दक्षिण भारत से उत्तर भारत में भक्ति भाव और नाट्यशास्त्र का प्रचार व विकास हुआ। सोलवेदा पर जानें उत्तर और दक्षिण के इस ज्ञान और भक्ति के लेन-देन के बारे में।

दक्षिण से उत्तर पहुंची भक्ति परंपरा

हिंदू धर्म का जो स्वरूप आज है, उसमें दक्षिण भारत से आई कई विचारधाराओं का भी योगदान है।

जब हम हिंदू धर्म की बात करते हैं, तो मुख्यतः उत्तर भारत के बारे में बात करते हैं, जैसे मौर्य साम्राज्य के बारे में, जिसका राज्य मगध में था और जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। या गुप्त साम्राज्य की बात करते हैं, जो पाटलिपुत्र से ही जुड़ा हुआ था। उत्तर भारत की हड़प्पा और गंगा घाटी सभ्यताओं की भी बात होती है। हम अक्सर दक्षिण भारत की उपेक्षा कर देते हैं। लेकिन, हिंदू धर्म का जो स्वरूप आज है, उसमें दक्षिण भारत से आई कई विचारधाराओं का भी योगदान है।

कहते हैं कि उत्तर भारत से कई ऋषि आर्य और वैदिक परंपरा को लेकर दक्षिण भारत गए। पुराणों के अनुसार अगस्त्य मुनि विंध्य पर्वत को लांघकर उत्तर भारत से दक्षिण भारत गए और वहां उन्होंने वैदिक संप्रदाय का प्रचार-प्रसार किया। लोक कथा के अनुसार वे गंगाजल और हिमालय के कुछ पर्वत अपने साथ लेकर गए। उन्होंने जहां-जहां इन पर्वतों को धरती पर रखा या जहां-जहां उनके कमंडल से गंगाजल नीचे झलका, वहां-वहां नए पहाड़ों और नदियों का निर्माण हुआ। इसलिए दक्षिण भारत में कई जगहों को दक्षिणकाशी या दक्षिणगंगा भी कहा जाता है।

इतिहासकारों के अनुसार लगभग दो हज़ार वर्ष पहले दक्षिण में संगम काव्य रचे गए। संगम काव्य प्राचीन तमिल भाषा में रचे गए, जो संस्कृत से बिल्कुल भिन्न है। प्राचीन तमिल संस्कृति के बीज पूरे दक्षिण भारत में फैले हुए थे। संगम काव्य में हमें दो प्रकार की कविताएं मिलती हैं; पहली, अंतरमन की कविताएं जिनमें रस और भावनाओं के बारे में बात की गई है। दूसरी; नगर की कविताएं, जिनमें राजा और युद्ध के बारे में वर्णन मिलते हैं। यहां पहली बार हम अलग प्रकार के देवी-देवताओं का उल्लेख पाते हैं, जैसे पहाड़ों के देवता मुरुगण, जंगलों के देवता पेरुमल और समुद्र के देवता वरुण। इनके अलावा मैदानों के वेलन राजा की बात होती है, जिसे इंद्र से जोड़ा गया है। कोटरवै नामक देवी की बात होती है, जो धीरे-धीरे देवी चामुंडा का रूप लेती गईं।

संगम काव्य में जैन परंपरा और बौद्ध परंपरा की भी चर्चा होती है। इसका यह अर्थ निकाला जाता है कि दो हज़ार वर्ष पहले उत्तर भारत से जैन मुनियों, बौद्ध भिक्षुओं और कई वैदिक ब्राह्मणों ने दक्षिण भारत जाकर अपना प्रचार और प्रसार किया। दक्षिण भारत में ऐसी कई जगहें हैं, जहां हमें जैन और बौद्ध संप्रदाय के मठों व विहारों के प्रमाण मिलते हैं।

लगभग 1500 वर्ष पहले यहां महाकाव्यों की रचना हुई। पहला महाकाव्य है मणि मेघलय और दूसरा है शिल्ल पदिकारम्। इनमें स्त्री पात्रों को काफी महत्व दिया गया है। उनमें गणिका, भिक्खुनी और पतिव्रता नारियों के बारे में भी बताया गया है। यह कहना कठिन है कि क्या यह हिंदू काव्य हैं। इन पर हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों के प्रभाव के साथ-साथ तमिल लोक परंपरा का प्रभाव भी दिखाई देता है। यहां की सभ्यता और उत्तर भारत की सभ्यता में बहुत अंतर है। संगम काव्य पढ़कर यही लगता है कि इनके रचियताओं को रामायण और महाभारत का काफी ज्ञान था। संगम काल की एक दंतकथा के अनुसार दक्षिण भारत के एक राजा ने कुरुक्षेत्र में कौरवों और पांडवों के लिए भोजन की व्यवस्था की थी।

दक्षिण भारत का भारत को सबसे बड़ा योगदान भक्ति परंपरा का रही है। भगवद्गीता में भक्ति योग का उल्लेख है। हम जिस रस और भाव को भक्ति से जोड़ते हैं और जिन भक्ति कविताओं की बात करते हैं, इनकी शुरुआत दक्षिण भारत में हुई। यहां पर शिव के भक्त नयनार कहलाए और विष्णु के भक्तों को अलवार कहा गया। इनमें से एक कवयित्री का नाम था, आंडाल जिसे दक्षिण भारत की मीराबाई कहा जाता है। भक्ति परंपरा में शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य जैसे बुद्धजीवियों ने बड़ा योगदान दिया। दक्षिण भारत से वल्लभाचार्य और रामानंदजी जैसे कई विद्वान उत्तर भारत आए और उन्होंने भक्ति परंपरा का प्रचार किया। यह परंपरा 600-700 वर्ष पहले महाराष्ट्र, गंगा घाटी, गुजरात और राजस्थान तक पहुंच गई और उससे संत परंपरा का विकास हुआ। तो हम कह सकते हैं कि यदि उत्तर भारत से दक्षिण भारत में कर्म कांड और ज्ञान कांड का प्रचार हुआ तो दक्षिण भारत से उत्तर भारत में भक्ति भाव और नाट्यशास्त्र का प्रचार व विकास हुआ।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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