ये बहुत पुरानी नहींबल्कि पिछले महीने की ही बात है, जब मुझे भी नवाबों के शहर जाने का मौका मिला। यूं तो शुरुआत से ही इस नवाबों के शहर और उत्तर प्रदेश की राजधानी की तारीफें और शान के किस्से, मैं अपने दोस्तों से सुनती आई थी।लेकिन, जब मैंने वहां जाकर खुद लखनऊ की हवाओं को खुद पर महसूस किया तब जाना कि हां इस शहर में कुछ तो बात है। यूं ही लखनऊ को नवाबों का शहर नहीं कहा जाता। अवध के नवाबों ने बड़ी संजीदगी से लखनऊ को संवारा है। लखनऊ की संस्कृति हो या यहां की जीवनशैली से जुड़े किस्से, नवाबी रंगत आपको हर कहीं दिख जाएगी। लखनऊ की हर गली में छुपी है एक कहानी और किसी हलवाई की दुकान से आती स्वादिष्ट खाने की महक।
लखनऊ में ऐसी ही स्वादिष्ट खुशबूओं ने मुझे बार-बार अपनी ओर खींच लिया। मेरे लिए तो लखनऊ के पकवान और डाइट एक मियान में दो तलवारों जैसा है। लज़ीज़ खाने के सामने आपका भी मेरी तरह डाइट करने का इरादा पल भर में छूट जाएगा। अब लखनवी पान हो या लखनवी भाषा आपको यहां हर चीज़ में मिठास मिल जाएगी। लखनऊ अपनी विरासत में मिली संस्कृति को आधुनिक जीवनशैली के संग बड़ी सुंदरता के साथ आज भी संजोये हुए है। यहां के लोग नवाबों के समय से ही‘पहले आप’ वाली शैली अपनायें हुए हैं। हालांकि, वक्त के साथ अब बहुत कुछ बदल चुका है, लेकिन यहां की एक तिहाई जनसंख्या इस तहजीब को आज भी संभाले हुए है।
तो फिर चलिए आज मैं और सोलवेदा मिलकर आपको ले चलते हैं लखनऊ की सड़कों पर।
क्या है लखनऊ का इतिहास? (Kya hai lucknow ka itihaas?)
लखनऊ का इतिहास बेहद दिलचस्प रहा है क्योंकि इसके निर्माण में अवध के कई नवाबों का हाथ रहा है। हालांकि, इसकी नींव रखने वाले नवाब का नाम नवाब आसफउद्दौला था।उस वक्त लखनऊ का नाम अवध हुआ करता था और यह शासकों की राजधानी हुआ करता था। राजधानी के दौरान लखनऊ के काफी चर्चे रहे और 1850 में लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह थे। इसके बाद, अवध पर ब्रिटिश साम्राज्य का शासन शुरू हो गया।
अवध का नाम लखनऊ कैसे पड़ा, इसको लेकर इतिहासकारों में बहुत विवाद हैं। कई इतिहासकारों का मानना है कि लखनऊ को प्राचीन काल में लक्ष्मणपुर और लखनपुर के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि अयोध्या के श्री राम ने लक्ष्मण को लखनऊ भेंट किया था। वहीं दूसरे मत के हिसाब से, लखनऊ का नाम ‘लाखन पासी अहीर’ नामक व्यक्ति से प्रभावित होकर रखा गया है। यह भीकहा जाता है कि राजा लाखन की पत्नी का नाम लखनावती था और राजा ने अपनी पत्नी के लिए किला लाखन का निर्माण भी करवाया गया था। इसलिए कुछ दिनों तक लखनऊ का नाम भी लखनावती चलता था। राजा लाखन ने लखनावती वाटिका का निर्माण कराया था।
शायरी और शायरों का लखनऊका तालमेल (Shayari aur shayaron ka lucknowka taalmel)
स्वादिष्ट खाने, इमारतें और अपनी अदब भरी शैली के साथ-साथ लखनऊ की खासियत में एक और नाम जुड़ता है और वो है शेर-ओ-शायरी। दुनिया भर में लखनऊ से निकली उर्दू शायरी ने लाखों नौजवानों के दिलों पर राज किया है। लखनऊ के नवाब पुराने समय से ही शायरों और संगीतकारों का दिल खोल कर स्वागत करते रहे हैं। इसलिए सौदा और मीर तकी मीर जैसे मशहूर शायर दिल्ली छोड़ लखनऊ में आ बसे। धीरे-धीरे लखनऊ शायरों और उनके कद्रदानों का इतना बड़ा केंद्र हो गया कि यह शायरों की रूह की सीमा तक समां गया। इसका अनुमान उनके शेरों से लगाया जा सकता है।
“ज़िंदगी जिन्दादिली का नाम है,
मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं”
इस शेर के लेखक शेख इमाम बख्श नासिख, जो लखनऊ चौक के टकसाल मोहल्ले में रहते थे। लखनऊ से ऐसे बहुत से कलाकार निकलें और उन्होंने अपनी कला से दुनियाभर में राज किया।
लखनऊ आए और इमामबाड़ा न देखा तो क्या देखा? (Lucknow aaye aur Imambara na dekha toh kya dekha?)
जैसा कि मैंने ऊपर कहा लखनऊ की हर गली में छिपी है एक कहानी। लखनऊ में घूमने कीजगह कई हैं और हर जगह की अपनी एक कहानी है। ऐसी ही कहानी है लखनऊ के बड़े इमामबाड़े की।लखनऊ का विशाल इमामबाड़ा, यहां के मशहूर ऐतिहासिक स्थलों में से एक है। इसका निर्माण 1784 ई. में अवध के नवाब आसफ-उद-दौला ने कराया था ताकि लोगों को रोज़गार मिल सके। उस वक्त लखनऊ में अकाल पड़ गया था। इस अकाल की पूर्ति के लिए सुबह इसको बनाने की शुरुआत होती और रात में इसको गिरा दिया जाता था। फिर अगले दिन इस को दोबारा बनाया जाता था।
इसमें नवाब साहब की कब्र होने की वजह से आसफी इमामबाड़ा और उल्टे-सीधे भ्रम पैदा करने वाले रास्तों की वजह से भूल-भुलैया भी कहा जाता है। ये गोमती नदी के किनारे बना हुआ है और इस बड़े इमामबाड़ा की वास्तुकला, ठेठ मुगल शैली को दिखाती है जो पाकिस्तान में लाहौर की बादशाही मस्जिद से काफी मिलती जुलती हैं और इसे दुनिया की सबसे बड़ी पाचंवी मस्जिद भी माना जाता है।शहर में जो भी पर्यटक आता है, वह भूल-भुलैया ज़रूर जाता है। मैंने भी इस भूल-भुलैया में अपने दोस्तों के साथ खूब मस्ती की और खूब सारी तस्वीरें भी लीं।
लखनवी पान के बिना लखनऊ का सफर है अधूरा (Lucknow ke paan ke bina lucknow ka safar hai adhura)
अगर आप सोच रहें हैं कि लखनऊ में क्या प्रसिद्ध हैतो जान लें कि नवाबों के शौक की शुरुआत लखनवी पान से होती है। दुनियाभर में शोहरत बटोरने वाले बनारसी पान खाने के लिए भले ही थोड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, पर लखनऊवी पान मुंह में डालते ही घुल जाता है और ज़रा भी मशक्कत नहीं करनी पड़ती।पान के भीगे पत्ते, कत्थे का चटख रंग, इलायची की भीनी महक और गुलकंद की मिठास के साथ तैयार किया गया पान किसी को भी दीवाना बना दे और पान लखनऊवी हो तो कहने ही क्या?लखनऊ के मशहूर लेखकों में शुमार अब्दुल हलीम शरर अपनी किताब में लिखते हैं कि लखनवी तहजीब में सबसे पहली तरक्की पान के पत्ते को लेकर हुई। पहले पान के पत्तों में सुधार किया गया। महोबा का पान कुदरती तौर पर बहुत अच्छा होता था, लेकिन उस वक्त लखनऊ में भी पान की खेती शुरू की गई। पानवाले पान को जमीन में दफन करके रखते थे ताकि उसका कच्चापन दूर हो जाए। इससे पत्ते में सफेदी आ जाती और कसैलापन भी दूर हो जाता। इसे बेगम पान कहते थे, क्योंकि यह काफी नर्म और स्वाद में अच्छे होते थे।
नवाबी दौर में चूने को मुगलई अंदाज़ में खाने की बजाय उसे बेहतर और खुशबूदार बनाने की ओर ध्यान दिया गया। चूने को खूब छानने के बाद उसमें थोड़ी मलाई मिलाई जाती थी। कुछ लोग इसमें ताजी दही भी मिला देते थे। इससे चूने की तेजी और होने वाले नुकसान कम हो जाते थे।पान और लखनऊ का साथ बहुत पुराना और मजबूत रहा है। मेरे लखनऊ का सफर बहुत ही बेहतरीनरहा। अगर आप भी लखनऊ के अंदाज़ में पान चबाना चाहते हैं तो फिर चले आइए नवाबों के शहर लखनऊ में।
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