सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताओं की खासियत

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविताओं में है देशभक्ति और करुणा भाव

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला... जिन्हें हम हिंदी साहित्य के स्तंभ के रूप में जानते हैं। इनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है ‘सरोज-स्मृति’, इस कविता को उन्होंने अपनी बेटी की याद में लिखा। 19 साल की उम्र में अपनी बेटी के देहांत के बाद, उन्होंने इसकी रचना की। इस लेख में हम उनकी रचनाओं और उसकी खासियत के बारे में जानेंगे। जानने के लिए पढ़ें ये आर्टिकल।

‘महाप्राण’ नाम से प्रसिद्ध सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (Suryakant Tripathi Nirala) हिंदी साहित्य के बड़े नामों में से एक हैं, जिनकी कविताएं पढ़ते-सुनते हम बड़े हुए हैं। इससे पहले कि निराला जी की रचनाओं और उसकी खासियत के बारे में जानें, हम पहले उनके जीवन के बारे में जान लेते हैं।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म जिला मेदनीपुर (पश्चिम बंगाल) में 1896 में हुआ था। वहीं, 1961 में उनका देहांत हो गया। उन्होंने कम उम्र में ही काफी दुख देखे थे, जिनका दर्द उनकी कविताओं में साफ तौर पर देखने को मिलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्होंने महज तीन साल की उम्र में अपनी मां को और 20 साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया। इसके अलावा, पहले विश्व युद्ध के बाद महामारी की वजह से इनकी पत्नी का भी देहांत हो गया। इस वजह से उनकी कविताओं में करुणा की झलक है और आक्रोश भी देखने को मिलता है।

उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में सांध्य काकली, अनामिका, गीत कुंज, परिमल, आराधना, गीतिका, अर्चना, तुलसीदास, नए पत्ते, कुकुरमुत्ता, बेला, अणिमा खास हैं। ये काव्य काफी प्रसिद्ध हुए।

आइए, उनकी लोकप्रिय रचनाओं के कुछ अंश देखते हैं :

“जागो एक बार फिर …” से जगाई देशभक्ति की भावना

“जागो फिर एक बार!
प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार
जागो फिर एक बार!”

देश को अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद कराने में देश के कवियों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इस योगदान के लिए सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की रचना “जागो एक बार फिर…” को भुलाया नहीं जा सकता। ये कविता परिमल संग्रह से ली गई है। इस कविता में निराला जी ने कहीं भी अंग्रेजों और भारत का नाम नहीं लिया। बावजूद इसके, निराला की इस कविता ने उस दौरान देश के युवाओं को जगाया और अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का बिगूल फूंका। निराला जी इस कविता के ज़रिए कह रहे हैं, “ओ प्यारे देशवासियों, सभी तारे तुम लोगों को जगा-जगाकर थक गए हैं। सूर्य की रोशनी तुम्हारे दरवाजे पर खड़ी है, ये किरणें दरवाजा खोल रही हैं। उठो और जागो।”

“दान” में झलकता है प्रकृति प्रेम

निकला पहला अरविन्द आज,
देखता अनिन्द्य रहस्य-साज; 
सौरभ-वसना समीर बहती, 
कानों में प्राणों की कहती; 
गोमती क्षीण-कटि नटी नवल, 
नृत्यपर मधुर-आवेश-चपल।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (Suryakant Tripathi Nirala) ने अपनी ‘दान’ कविता में प्रकृति के प्रति प्रेम को दिखाया है। वहीं गोमती नदी के छोर पर प्रकृति की खूबसूरती का उन्होंने बखूबी वर्णन किया है। इस काव्य के ज़रिए वे कहना चाहते हैं कि प्रकृति की सुंदरता की एक झलक पाने के लिए, कमल का फूल सूर्य की किरणें निकलते ही खिल गया। खुशबू से भरे कपड़ों को पहनकर हवा धीरे-धीरे बह रही है। जब हवा कानों को छूकर गुजरती है, तो काफी आनंद महसूस होता है। गोमती नदी की तुलना नायिका से की गई है, जिस प्रकार नदी में कहीं-कहीं पानी कम होने से उसके छोर पतले व बड़े होते हैं, ये ठीक एक नायिका जैसे ही हैं। हवा के कारण धारा की हिलोरें नृत्य के समान दिख रही है।

सरोज-स्मृति में दिखता है करुणा भाव

देखा विवाह आमूल नवल, 
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल। 
देखती मुझे तू हंसी मंद, 
होठों में बिजली फंसी स्पंद 
उर में भर झूली छबि सुंदर 
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर 
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग, 
विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग 
नत नयनों से आलोक उतर 
कांपा अधरों पर थर-थर-थर। 
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति 
मेरे वसंत की प्रथम गीति।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (Suryakant Tripathi Nirala) ने बेटी के बिछड़ने के दुख में ‘सरोज-स्मृति’ की रचना की। इस काव्य में आप उनके करुणा भाव को महसूस कर सकते हैं। जब आप इस पूरे काव्य को पढ़ेंगे, तब आप देखेंगे कि उन्होंने बेटी के बचपन से लेकर मृत्यु तक की यादों को शब्दों के ज़रिए इसमें पिरोया है।

इस काव्य में निराला जी काफी दुखी हैं और अपनी बेटी की शादी के समय को याद करते हैं। कविता में वे अपनी बेटी से कहते हैं कि “तेरी शादी को मैंने एक नए रूप में देखा। उस समय जब तुम पर जल गिराया जा रहा था, तुम मेरी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी। तुम्हारे होंठ कांप रहे थे, तुम्हारी दुल्हन-सी खूबसूरती और साज-सज्जा ये बता रहे थे कि तुम्हारे दिल में अपने पति की तस्वीर है। तुम ये भी कहना चाह रही थी कि खुशी के इस समय में मां का साथ न होना कितना तकलीफदेह है। तुम्हें देखकर मुझे मन ही मन यह एहसास हो रहा था कि मेरे जीवन के खुशनुमा पलों की पहली गीत तुम ही थी।”

‘भिक्षुक’ कविता में मानवतावादी का दिया परिचय

वह आता- 
दो टूक कलेजे के करता 
पछताता पथ पर आता। 
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक, 
चल रहा लकुटिया टेक, 
मुट्ठीभर दाने को, भूख मिटाने को, 
मुंह फटी पुरानी झोली को फैलाता 
दो टूक कलेजे के करता 
पछताता पथ पर आता। 
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये, 
बायें से वे मलते हुए पेट चलते हैं, 
और दाहिना दयादृष्टि पाने की ओर बढ़ाये।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (Suryakant Tripathi Nirala) ने ‘भिक्षुक’ कविता में एक भिखारी के दर्द को बयां किया है। इस काव्य के ज़रिए उन्होंने अपने मानवतावादी व्यवहार का परिचय दिया है। समाज की अमीरी-गरीबी की लकीर पर प्रहार किया है। इस काव्य के ज़रिए वे कहते हैं कि जब भी मुझे कोई भिखारी करीब आते हुए दिखता है, तो उसे देखकर मेरे दिल के टुकड़े-टुकड़े होने लगते हैं। भिखारी शारीरिक तौर पर इतना कमजोर है कि उसके पेट और पीठ एक दिखाई देते हैं। वो अपने दुख से भरे जीवन को देखकर और दुखी होता है और लाठी के सहारे धीरे-धीरे चलता है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (Suryakant Tripathi Nirala) के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है, उनकी रचनाओं को चंद शब्दों में समेटकर नहीं रख सकते। यदि उनसे कुछ हासिल कर सकते हैं, तो प्रेरणा, सकारात्मकता और जीवन जीने की सीख। ऐसे ही लेखकों की रचनाओं के बारे में जानने और उनसे सीख लेने के लिए पढ़ते रहें सोलवेदा पर लेख।

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