इंतज़ार खत्म हुआ

ये इतने साल फिर भी उस एक चिट्ठी के सहारे गुज़र गये, पर आगे के दो साल तक रमेश की तरफ से ना कोई फोन आया ना कोई चिट्ठी।

जिस इंसान के इंतज़ार मैं हमने सब कुछ भुला दिया हो, जिसके आने की आहट सुनने के लिए कान तरसते हों, उस शख्स आ जाना, सदियों से बंज़र पड़ी किसी ज़मीन पर फिर से उम्मीद के फूल खिल जाने जैसा ही है।

ऐसा ही कुछ माधवी और रमेश के साथ हुआ। जब बचपन के साथी सपनों और देश भक्ति के लिए जुदा हो गये थे। माधवी बचपन से अनाथ थी, और रमेश के घर में उसके मम्मी पापा माधवी को अपनी बेटी की तरह रखते थे, बचपन से ही उसकी दोस्ती और करीबी का एहसास सबको था। उसके बचपन का दोस्त रमेश बचपन से ही एक सिपाही बनने का सपना लेकर बड़ा हुआ, और बस इक्कीस की उम्र में ही उसने ये सपना पूरा कर लिया और माधवी से दूर, देश का वीर जवान बनने चला गया। रमेश की आंखों के सपने को माधवी ने हमेशा से पढ़ा और समझा, इसलिए रमेश से दूर होने के दुख के बावजूद उसने रमेश को हंसी खुशी विदा किया।

दोनों को बिछड़े हुए 5 साल हुए, हर दिन माधवी के लिए भारी रहा। हर दिन रात सिर्फ रमेश की सलामती मांगती, और हर चिठ्ठी में उससे वापस आने का वक़्त पूछती। माधवी की लिखी सारी चिट्ठीयों का जवाब महीनों बाद एक चिट्ठी में आता कि “अभी नहीं आ पाऊंगा।”

ये इतने साल फिर भी उस एक चिट्टी के सहारे गुज़र गये, पर आगे के दो साल तक रमेश की तरफ से न कोई फोन आया ना कोई चिट्ठी।

माधवी बड़ी कम उम्र में ही सजने संवरने का शौक भूला चुकी थी। उसे देख कर लगता जैसे वो रमेश की विधवा का जीवन जी रही है। रमेश की जब कोई खबर नहीं मिली, तो घरवालों ने भी उसके वापस आने की आस छोड़ दी। पर माधवी की उम्मीद कभी नहीं टूटी। और एक दिन अचानक उसे एक खत मिला, “मैं वापस आ रहा हूं!” चिट्ठी को पढ़के जैसे माधवी की उम्मीद लौट आई हो, उसनें जल्दी से चिठ्ठी को चूम लिया पर साथ ही उसे लगा जैसे- ये किसी का मज़ाक है या वो सपना देख रही है।

चिट्टी में लिखे वक़्त पर वो बस स्टैंड पर जाकर खड़ी हो गयी और आते जाते हर शख्स में रमेश को ढूंढ़ने लगी। सात सालों में रमेश जाने कितना बदल गया होगा? उसे मैं पसंद आऊंगी या नहीं? यही सब सोचते सोचते वो कभी अपने बाल संभालती तो कभी दुपट्टा सही करती। लेकिन वहां खड़े हुए भी उसे एक घंटा गुज़र गया। आने वाले आ गये और जाने वाले चले गये थे, बस स्टैंड बिलकुल खाली हो चुका था। माधवी की उम्मीद भी टूट गयी थी, उसकी आंखे भरी हुई थीं और वो वापस लौटने लगी। तभी किसी ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रखा, वो रमेश था।

पर अरे नहीं! ये क्या? रमेश का एक हाथ नहीं था। ये देख कर माधवी बुरी तरह बिलखते हुए रमेश से लिपट गई।

उसका इंतज़ार तो खत्म हो हो गया था, पर एक नया दुख उसके सामने था।

उसने जब रमेश से पूछा कि ये सब कैसे हुआ तो रमेश बोला, “देश के लिए जान गवाना हम जैसे लोगों के लिए गर्व की बात है, और मेरा तो बस हाथ ही गया है। पर मैं ये भी जनता था कि तुम्हारे और मां-पापा के लिए ये दुख झेलना कितना मुश्किल होगा। तुम लोगों को इस दुख से दूर रखने के लिए ही मैं तुमसे दूर रहा। और आज हिम्मत करके वापस आया हूं। तुम मुझे ऐसे अपनाओ या मत अपनाओ ये तुम्हारी मर्ज़ी…”

रमेश की बात सुनकर माधवी फिर से उसके गले लग कर बोली, “तुम हमेशा से मेरे थे और रहोगे…”  और इस तरह माधवी का इंतज़ार हमेशा के लिए खत्म हो गया।

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