ज़िंदगी की सांझ में व समय के गुजरने के साथ वक्त थम सा जाता है। सेवानिवृत्त होने की पार्टी खत्म हो जाती है। मेहमानों के साथ बच्चे भी चले जाते हैं। भीतर से बाहर तक कुछ भी खाली नहीं रहता। हर गुज़रती शाम में यह अकेलापन बढ़ता ही जाता है। ऐसे में कोई मददगार मिल जाता तो अच्छा होता लेकिन कोई नहीं मिलता। अगले दिन सुबह उठने के लिए न तो कोई ऊर्जा बचती है और न ही कोई मकसद। ऐसे में हर एक दिन के साथ वीकेंड और पूरा महीना ही लंबा लगने लगता है। कई लोग कहते हैं कि ज़िंदगी के सबसे अच्छे पल रिटायरमेंट के बाद ही आते हैं। लेकिन कई लोगों के लिए तो यह सिर्फ अकेलापन लेकर ही आता है।
इस आर्टिकल के जरिए हम बुजुर्गों की मानसिकता (Bujurgo Ki mansikta) पर विचार करने के साथ-साथ यह जानने की भी कोशिश करेंगे कि वे ज़िंदगी के सांझ के पलों में कैसे निपट सकते हैं, ताकि वे पुन: अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जी सकें।
रिसर्च से पता चलता है कि बुजुर्गों में एकाकीपन और अवसाद सामान्य बात होती है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अकेले जीवन गुजार रहे हैं या नहीं। वरिष्ठ नागरिक अक्सर खुद को असहाय और दुखी महसूस करते हैं।
बुजुर्ग मनोचिकित्सक सलाहकार डॉ. सौम्या हेगड़े के अनुसार अकेले होने का अहसास काफी जल्दी घर कर जाता है और यह अलग-अलग स्तर पर होता है। इसकी शुरुआत तब होती है जब बच्चे पढ़ाई के लिए घर छोड़कर चले जाते हैं। उसके कुछ समय के बाद पैरेंट्स भी रिटायर हो जाते हैं। बाद में जब आपके जीवनसाथी अथवा सहयोगी या फिर किसी मित्र की मृत्यु होती है तो यह एकाकीपन व अकेलेपन की भावना और भी बढ़ जाती है।
जीवन की सांझ (Evening of life) में यह दौर भले ही पीड़ादायक हो, लेकिन यह हमारे ही जीवन का हिस्सा होता है। डॉ. हेगड़े बताते हैं कि ऐसे बदलाव के लिए तैयार न होना भी बुढ़ापे को ज्यादा कष्टदायक बनाने में सहयोग देने वाला साबित होता है। इसकी वजह से कुछ मानसिक तनाव भी बढ़ जाते हैं। यह बात 80 वर्षीय ललिता पर लागू होती है। वह बंगलौर में अपने बेटे के परिवार के साथ रहती हैं। 10 साल पहले तक वह हमेशा अपने पति की सेवा में जुटी रहती थीं, लेकिन उनका निधन होने से ललिता ने खुद को एक कमरे तक सीमित कर लिया और वह किसी से नहीं मिलती। दिव्या, ललिता की पोती है। उसके अनुसार उसे उसके पिता ने बताया है कि दादी ने कभी दोस्त बनाए ही नहीं। मेरे दादाजी ही उनके काफी खास थे। उनके जाने के बाद अब सिर्फ भोजन की टेबल पर पोतियों के साथ जो बात होती है वह उतनी ही बात करती हैं।
प्रगति के दादा-दादी की भी उम्र 80 के आसपास ही है। वो दोनों भी ज़िंदगी के सांझ के पलों में इसी समस्या से जूझते हैं। प्रगति कहती हैं कि जब वो दोनों मुंबई में होते हैं तो खुद को अकेला महसूस करते हैं। लेकिन यहां आने पर जैसे ही हम उनके लिए कुछ करने की कोशिश करते हैं तो वह उन्हें अपने जीवन में दखलंदाजी लगती है। फिर वो दोनों यह भी शिकायत करते हैं कि हम उनके साथ बात नहीं करते। जब हम उन्हें डेली फोन करते हैं, तो कहते हैं कि उनके पास कोई बात नहीं है बताने को।
इसके तरीके में कुछ चेंजेस ज़िंदगी की सांझ में सहायक साबित होते हैं। टिलबुर्ग विश्वविद्यालय, नीदरलैंड के एक अध्य्यन के अनुसार किसी शौक अथवा काम में खुद को व्यस्त रखना जीवन को नई ऊर्जा प्रदान करता है। ऐसा करने से बुजुर्ग खुद को शारीरिक रूप से सक्रिय भी रख सकते हैं। फिर अपने शौक पूरे करते वक्त बनाए गए मित्र भी आपके अकेलेपन को दूर करने में सहायक साबित होते हैं। डॉ. हेगड़े की 85 वर्षीय मरीज खुद को बुनाई, बेकिंग व आचार बनाने में व्यस्त रखती हैं। वह ओल्ड एज होम में रहती हैं। बावजूद इसके कि उनके बेटे उसी शहर में रहते हैं। उनका मानना है कि बेटे के साथ रहकर वह खुद को अकेला महसूस करेंगी। वृद्धाश्रम में उन्होंने अपने अनेक मित्र बनाए जिनके साथ वह अपने शौक पूरे करते हुए मजे से दिन गुजारती हैं। डॉ. हेगड़े से मिलने आते वक्त उन्हें अक्सर दो बसें बदलनी पड़ती हैं।
कुछ बुजुर्ग ज़िंदगी की सांझ में जिस उत्साह के साथ जीवन जीते हैं वह तारीफ के काबिल है। 70 वर्षीय लालिन्तका पोलामदा, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बंगलौर से रिटायर होने के बाद अपने पति के साथ तीर्थ यात्रा पर निकल गई। फिर कुछ रिश्तेदारों के साथ अपना कुछ समय गुजारा। इसके बाद भी उनके पास बहुत खाली वक्त था। ऐसे में उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर अपने ग्रैंड सन के साथ खेलने के लिए एक वैदिक गेम तैयार किया। लालिन्तका कहती हैं कि यह गेम रामायण एवं महाभारत पर आधारित है। मेरे पति ने अब इसे छपवा लिया है। मुझे उम्मीद है कि यह जल्दी लोकप्रिय हो सकता है।
डॉ. हेगड़े का कहना है, “बच्चों को बुजुर्गों का ध्यान रखना चाहिए। हो सके तो सप्ताह में एक दिन उनके साथ कहीं बाहर जाने का प्रोग्राम बनाएं। उन्हें तकनीक से अवगत करवाया जाए ताकि वे अपने परिजनों से वीडियो कॉल पर बात कर सकें। सबसे अहम बात यह कि अवसाद के लक्षण पर नज़र रखें व किसी में इसके लक्षण दिखाई देते ही किसी विशेषज्ञ से उन्हें मिलवा दें।” उनका मानना है कि कभी-कभी सिर्फ प्यार की दो बातें भी कमाल कर जाती हैं।
ज़िंदगी की सांझ में आराम करते हुए जीवन भर की कड़ी मेहनत के बाद थोड़ा सुस्ताने का वक्त निकल ही आता है। लेकिन उस दौर में अकेलेपन और पराधीन होने की भावनाओं में अकेलापन काफी खलता है। ऐसे में ज़िंदगी के प्रति अपना नजरिया बदल लेने से काफी हद तक इससे निजात मिल सकती है।
फ्रेंच दार्शनिक सिमोन द बोउआर ने ‘द कमिंग ऑफ एज’ में लिखा है कि यदि हम बुढ़ापे को हमारे गुजरे जमाने की तरह नहीं बिताना चाहते हैं तो हमें कुछ ऐसा सीखने और करने की कोशिश करनी होगी, जिससे कि हमारी ज़िंदगी की सांझ खुशनुमा हो सके।