विष्णु की नींद

विष्णु की नींद

विष्णु भगवान आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक सोते हैं।

वर्षा ऋतु का प्रारंभ वह संकेत है कि विश्व के संरक्षक विष्णु नींद में हैं। चार महीनों की इस अवधि को चातुर्मास कहते हैं। चातुर्मास में पृथ्वी पानी में डूब जाती है। यह वार्षिक प्रलय विश्व को फिर से तरोताज़ा बना देता है।

प्राचीन काल के ऋषि हर वर्ष को दो भागों में बांटते थे। जनवरी से लेकर जून के पूर्वार्द्ध  में सूर्य ध्रुवतारा की ओर बढ़ता है। यह यात्रा सूर्य के मकर राशि में प्रवेश से शुरू होती है। मकर वात्सल्य और ऊर्जा का प्रतीक है। इसलिए वसंत और ग्रीष्म ऋतु के इस काल में दिन गरम और उज्ज्वल होते जाते हैं। जुलाई से लेकर दिसंबर के उत्तरार्ध में सूर्य दक्षिण की ओर गमन करता है। इस यात्रा का प्रारंभ सूर्य के कर्क राशि में प्रवेश से होता है। इस अवधि में उजाला घटते जाता है, जिससे दिन छोटे और ठंडे होते जाते हैं। इस काल में विष्णु सो जाते हैं और आकाश में काले बादल छा जाते हैं।

विष्णु जब सोते हैं, तब धरती के नीचे स्थित दैत्यों के गुरु शुक्र जादुई संजीवनी जड़ी बूटी कूटते हैं। कहते हैं कि इससे धरती का उपजाऊपन लौट आता है। धरती में बोए बीज उग आते हैं जिससे चारों ओर हरियाली फैलती है। कामदेव चंद्र पर हावी हो जाते हैं। कहा जाता है कि कामसूत्र इसी समय लिखा गया था।

विष्णु भगवान आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक के शुक्ल पक्ष की एकादशी तक सोते हैं। इस काल में सफ़र करना भी वर्जित होता है। साधारणतः ऋषियों और मुनियों को एक दिन से अधिक किसी जगह रुकना वर्जित होता था। लेकिन सफ़र पर पाबंदी लगी होने के कारण चार महीनों तक वे एक जगह पर रुक जाते।

ये चार महीने कई तरह के त्यौहारों और पूजाओं से भरे होते हैं। यह शायद इसलिए कि घर बैठे लोगों के पास बहुत समय होता था या इसलिए भी कि वे इन पूजाओं के जरिए पर्याप्त वर्षा की कामना करते थे। आषाढ़ महीने में गुरु पूर्णिमा पहला त्यौहार है। इसके दो सप्ताह बाद श्रावण शुरू होता है। श्रावण में लोग उपवास रखते हैं और मदिरा, मांसाहार तथा मसालेदार भोजन का सेवन कम से कम करते हैं।

श्रावण के शुक्ल पक्ष में नागपंचमी के दिन नागों की पूजा की जाती है और कृष्ण पक्ष में जन्माष्टमी के दिन श्रीकृष्ण का जन्मदिवस मनाया जाता है। इनके बीच की पूर्णिमा के दिन रक्षाबंधन पड़ता है। तब तक बारिश कम हो जाती है और समुद्र भी मछलियों से परिपूर्ण हो जाता है। इसलिए अपना आभार व्यक्त करने के लिए मछुआरे समुद्र में नारियल फेंकते हैं। इस दिन को नारळी पूर्णिमा कहते हैं।

इसके बाद भाद्रपद महीने में गणेशजी हमारे जीवन में पधारते हैं। साथ में उनकी मां गौरी भी आती हैं, हरी साड़ी पहनी हुई, चारों ओर की हरियाली का प्रतीक। दस दिन के पूजन के बाद अनंत चतुर्दशी के दिन गणेश की मूर्ति का विसर्जन होता है। विसर्जन इस बात का प्रतीक है कि विश्व में सबकुछ नश्वर है और आते-जाते रहता है। गणेश के जाने के बाद पितृ जागते हैं और लोग उन्हें पूजते हैं। पितृ यह आश्वासन चाहते हैं कि उनका पुनर्जन्म होगा। श्राद्ध का रिवाज़ उन्हें यह आश्वासन देता है कि उस हेतु से उनके वंशज बच्चों को जन्म दे रहे हैं।

फिर फ़सलों को काटने का समय आ जाता है। धरती के नीचे से ऊपर उठे दैत्यों को ‘मारने’ की इस क्रिया से मनुष्यों को अन्न मिलता है। चातुर्मास का आख़िरी महीना असुरों का वध मनाने वाले त्यौहारों से भरा है। लगातार नौ रात लड़ने के बाद दुर्गा महिषा का वध करती हैं। उसी समय राम रावण का वध करते हैं। इन वधों के बाद दशहरा मनाया जाता है। दशहरा के बाद शरद पूर्णिमा या कोजागिरी पूर्णिमा के दिन देवी अपने कोमल रूप में राधा बनकर कृष्ण के साथ नृत्य करती हैं। इसके दो सप्ताह बाद कृष्ण नरका का वध करते हैं और वामन, बलि को धरती के नीचे कुचलते हैं। यह दिवाली के दिनों में होता है। दैत्यों का वध धन-धान्य संपत्ति लाती है। इसलिए देवी के लक्ष्मी का रूप पूजा जाता है।

लक्ष्मी के आने के कुछ दिन बाद कार्तिक महीने के 11वें दिन विष्णु जाग जाते हैं। गन्ना या शालिग्राम पत्थर का रूप लेकर वे लक्ष्मी से विवाह करते हैं, जो स्वयं तुलसी का रूप लेती हैं। विष्णु का विवाह उनकी नींद की समाप्ति का प्रतीक है। इस दिन के बाद विवाह के मुहुर्त शुरू हो जाते हैं।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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