विद्रोह क्या है

विद्रोह क्या है?

विद्रोह धर्म की आत्मा है। विद्रोह का अर्थ है: समाज से, संस्कार से, शास्त्र से, सिद्धांत से, शब्द से मुक्ति।

आदमी का मन तो प्याज जैसा है, जिस पर पर्त-पर्त संस्कार जम गए हैं। इन परतों के भीतर खो गया है आदमी का स्व। जैसे प्याज को कोई उधेड़ता है, एक-एक पर्त को अलग करता है, ऐसे ही मनुष्य के मन की परतें भी अलग करनी होती हैं। जब तक सारे संस्कारों से छुटकारा न हो जाए, तब तक स्व का कोई साक्षात नहीं है। संस्कारों से छुटकारा कठिन बात है। कपड़े उतारने जैसा नहीं, चमड़ी छीलने जैसा है। क्योंकि संस्कार बहुत गहरे चले गए हैं। संस्कारों के जोड़ का नाम ही हमारा अहंकार है। संस्कारों के सारे समूह का नाम ही हमारा मन हैं। विद्रोह का अर्थ है, मन को तोड़ डालना। मन बना है समाज से। मन है समाज की देन। तुम तो हो परमात्मा से, तुम्हारा मन है समाज से। जब तक तुम्हारा मन सब तरह से समाप्त न हो जाए, तब तक तुम्हें उसका कोई पता न चलेगा, जो तुम परमात्मा से हो, जैसे तुम परमात्मा से हो। इसलिए विद्रोह- समाज, संस्कार, सभ्यता, संस्कृति इन सबसे विद्रोह धर्म का मौलिक आधार है।

धर्म शुद्ध विद्रोह है। याद रहे, विद्रोह से अर्थ क्रांति का नहीं है। क्रांति तो फिर संगठन। विद्रोह वैयक्तिक है। क्रांति में तो फिर संगठन है। क्रांति में तो फिर समाज का नया ढांचा है। पुराना ढांचा बदलेगी क्रांति, लेकिन नए ढांचे को स्थापित कर देगी। पुराना समाज तोड़ेगी, लेकिन नए समाज को बना देगी। क्रांति में तो समाज फिर पीछे के द्वार से वापस आ जाता है।

अस्तित्व के सामने तो अकेले होने का साहस करना होगा; भीड़-भाड़ नहीं चलेगी। अस्तित्व के सामने तो नग्न और निपट अकेले खड़े होने का साहस करना होगा। अस्तित्व के सामने तो तुम जैसे हो, अकेले असहाय, वैसा ही अपने को छोड़ देना होगा। कोई लाग-लगाव नहीं, कोई छिपाव नहीं, कोई पाखंड नहीं।

क्रांति समाज को बदलती है, व्यक्ति को नहीं बदलती, व्यक्ति वैसा का वैसा बना रहता है। 1917 में रूस में बड़ी क्रांति हुई। समाज बदल गया, व्यक्ति वही के वही हैं। पहले व्यक्ति धर्म को मानता था, क्योंकि जार धर्म को मानता था। अब व्यक्ति धर्म को नहीं मानता, साम्यवाद को मानता था, क्योंकि सरकार साम्यवाद को मानती है। पहले व्यक्ति बाइबिल को पूजता था, अब दास कैपिटल को पूजता है। पहले मूसा और जीसस महत्वपूर्ण थे, अब मार्क्स, एंजिल और लेनिन महत्वपूर्ण हो गए। मगर व्यक्ति वही है, बंधंन वैसे के वैसे हैं, जरा भी अंतर नहीं पड़ा। व्यक्ति उतना ही सोया हुआ है, जितना पहले था। उसकी नींद में कोई भेद नहीं हुआ है। शायद बिस्तर बदल गया- नींद जारी है। कमरा बदल गया- बेहोशी जारी है।

क्रांति से व्यक्ति नहीं बदलता, क्रांति से समाज बदलता है। धर्म व्यक्ति के जीवन में बदलाहट का आधार है।

तो धर्म विद्रोह है- वैयक्तिक विद्रोह है।
विद्रोह का अर्थ है, उधार धर्म से मुक्ति, नगद धर्म की खोज। विद्रोह का अर्थ है, औपचारिक धर्म से मुक्ति, वास्तविक धर्म की खोज।

एक औपचारिक धर्म है। तुम्हारी मां है, तो तुम पैर छूते हो, चाहे पैर छूने का कोई भाव हृदय में उठता न हो; चाहे पैर छूने की कोई भावना न हो। शायद पैर छूना तो दूर, क्रोध हो मन में। शायद मां को क्षमा करने की भी क्षमता तुममें न हो। लेकिन तुम पैर छूते हो। एक औपचारिक, एक व्यावहारिक बात है। छूना चाहिए-मां है।

ऐसे ही तुम मंदिर जाते हो। ऐसे ही तुम शास्त्र पढ़ लेते हो। ऐसे ही तुम प्रार्थना कर लेते हो। तुम्हारा हृदय अछूता ही रह जाता है। तुम्हारे हृदय में कोई तरंगें नहीं उठतीं; संगीत नहीं गूंजता; कोई नाद नहीं उठता। तुम्हारी हृदय की वीणा अकंपित ही रह जाती है। बस, औपचारिक; करना था कर लिया-ऐसे करते जाते हो, जैसे तुम्हें प्रयोजन ही नहीं है। तुमने मंदिर जाते लोगों को देखा! तुमने अपने पर खुद विचार किया, जब तुम सुबह उठ कर बैठ कर गीत पढ़ लेते हो या पूजा कर लेते हो या घंटी बजा देते हो, पानी ढाल देते हो! सब यंत्रवत! न तो तुम्हें रोमांच होता परमात्मा पर पानी ढालते वक्त, न तुम्हारी आंख से आनंद के अश्रु बहते। न भगवान को भोग लगाते वक्त तुम्हारे हृदय में कोई उत्सव होता, न तुम गीत गुनगुनाते। बस उपचार।

धार्मिक होना हो, तो हार्दिक होना ज़रूरी है। विद्रोह का अर्थ है, जीवन में हार्दिकता आए। वही करो, जो तुम्हारा हृदय करना चाहता है। रुको, अगर अभी सच्ची प्रार्थना पैदा नहीं हुई है, तो कोई ज़रुरत नहीं है झूठी प्रार्थना के साथ मन बहलाने का। किसको धोखा दोगे? परमात्मा को तो धोखा नहीं दे सकते। अपने को ही धोखा दे रहे हो। तो व्यर्थ क्यों समय खोते हो?

ओशो, कन थोरे कांकर घने, # 9 से उद्धृत

ओशो को आंतरिक परिवर्तन यानि इनर ट्रांसफॉर्मेशन के विज्ञान में उनके योगदान के लिए काफी माना जाता है। इनके अनुसार ध्यान के जरिए मौजूदा जीवन को स्वीकार किया जा सकता है।

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