रसोईघर

रसोईघर से जुड़ीं अन्य बातें

धार्मिक और सामुदायिक पहचान को स्थापित करने के लिए खाना एक शक्तिशाली साधन बना।

दैनिक जीवन में समझौता कैसे करते हैं यह हम भारतीय रसोईघरों में मसाले के डिब्बे के उपयोग से सहजता से समझ सकते हैं। प्रत्येक डिब्बे में मसाले एक जैसे होते हैं। लेकिन हर रसोइया उनकी मात्रा बदलकर व्यंजन का स्वाद बदल देता है। किसी एक मसाले का प्रमाण बदलकर कोई बुरा चखने वाला व्यंजन सुधारा जा सकता है। इस प्रकार, थोड़ी रचनात्मकता से सभी कुछ संभाला जा सकता है। आजकल तैयार मसालों के पैकेट मिल रहें हैं। इसलिए, इन मसालों से बनें व्यंजनों का स्वाद भी लगभग एक जैसा होता है। क्या यह पाश्चात्यीकरण का संकेत है?

विश्व के अधिकतर भागों में लोग आंच के इर्द-गिर्द बैठकर खाते थे। रेगिस्तानों में आंच पर पके हुए मांस को काटकर रोटी पर परोसा जाता था। ठंडी जगहों में, आंच के ऊपर एक मटका टंगा जाता था। दिनभर जो भी इकठ्ठा किया या पकड़ा जाता था, उसे मटके में डाला जाता था। इस तरह सूप और स्टू बनने लगें, जिन्हें लोग ब्रेड के साथ खाते थे। इस्लामी देशों में, समानता और भाईचारे को उत्पन्न करने के लिए सारा खाना एक ही बर्तन में परोसा जाता था।

पंजाब के ग्रामीण भागों में महिलाएं जैसी भोर में कुंए के पास मिलकर पानी निकालती थी वैसी वे शाम में सामूहिक चूल्हे में मिलकर रोटी बनाती थी। मिलकर खाना बनाने की इस क्रिया से रूमानी ‘सांझा चूल्हा’ की धारणा उत्पन्न हुई। चीन में सारा खाना मेज़ के बीच रखा जाता था और सभी एक साथ खाते थे, जो एकता का चिन्ह था। यूरोप में भोजन को मेज़ के बीच परोसा जाता था और आप वो खाते थे, जिस तक आप पहुंच सकते थे या जो आपका पड़ोसी आप तक पहुंचा देता था। बफ़े की शुरुआत यही से हुई, जहां हर कोई अपने लिए परोसता है और वह सभी व्यंजनों तक पहुंच सकता है।

फिर जैसे-जैसे लोग धनवान होते गए, वैसे-वैसे उन्होंने खाना परोसने के लिए नौकरों को काम पर लगाया। 16वीं सदी में छूरियों और कांटों का उपयोग लोकप्रिय बन गया; उसके पहले सभी हाथों से खाते थें।

भारत में, खाना हमेशा थाली पर परोसा जाता था, जो या तो पत्तों की होती थी (बायोडिग्रेडेबल होने के कारण ऐसी थाली फेंकी जा सकती थी) या धातु की होती थी (बायोडिग्रेडेबल नहीं होने के कारण ऐसी थाली धोनी पड़ती थी)। सभी लोग अलग-अलग थालियों में खाते थे, जिससे ‘झूठे’ की धारणा सुदृढ़ बनती गई। महिलाएं पहले पुरुषों और फिर बच्चों को परोसती थी और उनके बाद ही खाती थी। यह पदानुक्रम निर्धारित था।

भारत में अच्छा खाना क्या है उसे भी अक्सर जाति वर्गीकरण ने निर्धारित किया गया: उच्च वर्ग के लोग ब्राह्मणों द्वारा घी में पकाए हुए खाने को पसंद करते थे। इसलिए, राजसी और धनवान घरों में ‘महाराज’ खाना पकाने लगें। इन घरों में ‘महाराज’ का दर्जा घर के सदस्यों से ऊंचा होता था और इसलिए रसोईघर के चूल्हे पर घर की महिलाओं से भी अधिक अधिकार ‘महाराज’ का होता था।

अधिकतर संस्कृतियों में, भोज त्यौहारों तथा विवाह, जन्म और मृत्यु जैसे यादगार घटनाओं से जुड़ गए। धार्मिक और सामुदायिक पहचान को स्थापित करने के लिए खाना एक शक्तिशाली साधन बन गया। विश्वभर स्थानांतरित होने वाले यहूदियों ने कोशर खाने से अपनी पहचान बनाए रखी। इस्लामी घरों में, रमज़ान में, लोग दिनभर रोज़ा रखते हैं, सांझ होते ही खजूर खाकर रोज़ा तोड़ते हैं और फिर रात में भोज करते हैं। कई ईसाई घरों में, ‘लेंट’ के दिनों में अंडे या मछलियां नहीं खाईं जाती हैं, जिस कारण लेंट ख़त्म होते ही ईस्टर के बाद अंडों का सेवन बढ़ता है।

श्रावण और कार्तिक के महीनों में कई हिंदू शाकाहारी बन जाते हैं। शुक्रवार के दिन खट्टा खाना नहीं खाया जाता है, ताकि गृहस्थी को संतोषी माँ की याद दिलाई जा सकें। यदि घर में किसी का निधन होता है तो कई दिनों तक चूल्हा नहीं जलाया जाता है। हिंदू शिव को कच्चा दूध, कृष्ण को मक्खन और देवी को नींबू अर्पण करते हैं। इस प्रकार, अनुष्ठानों के माध्यम से खाना महत्त्वपूर्ण बन जाता है।

खाना खाने की प्रक्रिया का भी हमारे विचार करने की प्रक्रिया पर असर होता है। पश्चिम में चरणों या कोर्सेज़ में खाना परोसा जाता है। उदाहरणार्थ, फ़ोर कोर्स खाने में पहले सूप परोसा जाता है, फिर सलाद, फिर मेन कोर्स और अंत में मीठा। यह एक नियंत्रित और क्रमिक प्रक्रिया है। लेकिन भारतीय थाली में सलाद, चावल, रोटी, सब्ज़ी, मिठाइयां, चटनी और पापड, सभी एकसाथ परोसे जाते हैं। इस तरह, पश्चिम में भोजन ‘रैखीय’ तरीक़े से जबकि भारत में वह ‘चक्रीय’ तरीक़े से परोसा जाता है।

पाश्चात्य खाने में मांस को काटने और फिर कांटे से खाने के लिए हाथ रैखीय तरीक़े से हिलता है। उधर, भारतीय खाने में रोटी तोड़ने या चावल में दाल मिलाने में हाथ चक्रीय तरीक़े से हिलता है। भारतीय व्यंजन एक-एक करके नहीं बल्कि एक साथ, मिलाकर खाए जाते हैं, जो विशिष्ट रूप से भारतीय प्रथा है। इस तरह, पाश्चात्य पाकशैली में हम रसोइए का खाना चखते हैं जबकि भारतीय पाकशैली में हम अपने आप मिश्रित खाना चखते हैं। क्या इससे ज़्यादा व्यक्तिगत कुछ हो सकता है? और क्या यह इसकी वजह हो सकती है कि भारत के लोग समूह में काम करना पसंद नहीं करते हैं?

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

टिप्पणी

टिप्पणी

X

आनंदमय और स्वस्थ जीवन आपसे कुछ ही क्लिक्स दूर है

सकारात्मकता, सुखी जीवन और प्रेरणा के अपने दैनिक फीड के लिए सदस्यता लें।

A Soulful Shift

Your Soulveda favorites have found a new home!

Get 5% off on your first wellness purchase!

Use code: S5AVE

Visit Cycle.in

×