प्रेम अर्थ

प्रेम के तीन अर्थ

प्रेम के तीन अर्थ होते हैं। पहला अर्थ, जिसको तुम सामान्य तौर पर जानते हो, जिसको हम कहते हैं, प्रेम में गिरना व फालिंग इन लव। वह गिरना ही है। वस्तुतः गिरना है। जब कोई प्रेम में गिर जाता है, तो उसका अर्थ क्या होता है?

प्रेम में गिरने का अर्थ होता है कि उसने अपनी स्वायत्तता (स्वयं फैसला लेने का अधिकार) खो दिया, निजता खो दी, वह दूसरे का गुलाम हो गया। तुम एक स्त्री के प्रेम में गिर गए, तुम उस स्त्री के गुलाम हो गए या किसी पुरुष के प्रेम में पड़ गए, तो तुम उस पुरुष के गुलाम हो गए। अब यह एक गुलामी का नया सिलसिला शुरू हुआ, जिसका तुमने बड़ा सुंदर नाम दिया है; प्रेम। अब तुम उस स्त्री के बिना नहीं रह सकते, अब वह स्त्री तुम्हारी अनिवार्यता हो गई, तुम्हारी आवश्यकता हो गई, उसके बिना तुम्हें मुश्किल होगी, कठिनाई होगी, जीना व्यर्थ मालूम होगा; अकेलापन लगेगा, खालीपन लगेगा। उस स्त्री ने तुम्हारी आत्मा में जगह बना ली। निश्चित ही जिसके ऊपर तुम निर्भर हो जाओगे, वह तुम्हारा मालिक हो गया। जब कोई मालिक हो जाएगा, तो अज़ीज़ नहीं लगेगा, दुखद लगेगा।

इसलिए प्रेम के ये सारे संबंध दुख में ले जाते हैं, कलह में ले जाते हैं। क्योंकि कौन किसको अपना मालिक बनाना चाहता है? गए थे प्रेम करने और हो गया कुछ और। गए थे राम-भजन को, ओटन लगे कपास। सोचा तो था कि प्रेम में उठेंगे और प्रेम मुक्ति लाएगा, लेकिन प्रेम लाया बंधन, कारागृह, जंजीरें। जिस पर तुम निर्भर हो, उसको तुम कभी क्षमा नहीं कर सकते। उस पर तुम क्रोधित ही रहोगे। इसलिए पति, पत्नियों पर क्रोधित हैं, पत्नियां पतियों पर क्रोधित हैं। कहते हो, न कहते हो, उसका सवाल नहीं है, मगर भीतर क्रोध की आग है और कारण?

कारण पत्नी नहीं है, ना पति है, कारण तुम्हारी निर्भरता है। निर्भरता के प्रति रोष पैदा होता है। कोई नहीं चाहता कि अपनी आत्मा को बेचे और गुलाम हो जाए।

इससे ऊंचा एक प्रेम होता है। उसको प्रेम में गिरना नहीं कह सकते। उसको हम कहेंगे, प्रेम में होना, बीइंग इन लव। वह औरब ड़ी बात है। उसका स्वभाव मैत्री का, असली प्रेमी ना, तो एक-दूसरे के बहुत पास होते हैं, ना बहुत दूर होते हैं। थोड़ा सा फासला रखते हैं, ताकि एक-दूसरे की स्वतंत्रता जीवित रहे। ताकि एक-दूसरे की स्वतंत्रता में बाधा ना हो, अतिक्रमण न हो। ताकि एक-दूसरे की सीमा में बिना किसी कारण के हस्तक्षेप ना हो। ऐसा दूसरा प्रेम बहुत कठिन है।

रहीम जिसकी बात कर रहे हैं, वह तो तीसरा प्रेम है, वह तो अति कठिन है। यह दूसरा प्रेम भी शायद कभी-कभी संभव हो जाता है- किसी कवि को, किसी चित्रकार को, किसी मूर्तिकार को, किसी संगीतज्ञ को। पहला प्रेम तो साधारण, आम जन का प्रेम है; पृथक जन का प्रेम है; भीड़-भाड़ का, भेड़ों का। दूसरा प्रेम मनुष्यों का प्रेम है, जिनकी थोड़ी गरिमा है, जिनमें थोड़ा बोध है, प्रतिभा है। दूसरा भी बहुत कठिन है। रहीम तो तीसरे प्रेम की बात कर रहे हैं।

पहला प्रेम : फालिंग इन लव, प्रेम में गिरना।

दूसरा प्रेम : बीइंग इन लव, प्रेम में होना।

तीसरा : बीइंग लव, प्रेम ही होना।

तीसरा कोई संबंध ही नहीं है, उसका दूसरे से कोई नाता ही नहीं है। वह तो प्रेम की चैतन्य दशा है। वह तो भीतर से उमगता हुआ प्रेम है सारे अस्तित्व के प्रति- इस कूकती कोयल के प्रति, इन पक्षियों की आवाज़ों के प्रति, सूरज की इन किरणों के प्रति, वृक्षों के प्रति, लोगों के प्रति, यह सारे समग्र अस्तित्व के प्रति। सच पूछो तो प्रति का सवाल ही नहीं है। किसी का पता नहीं है उस प्रेम पर। जैसे कोई झरना फूट रहा हो या जैसे किसी फूल से सुगंध उठ रही हो। वह किसी पते-ठिकाने पर नहीं जा रही। वह पहले पोस्ट-ऑफिस नहीं जाएगी, वह किसी पोस्टमैन पर सवार नहीं होगी, वह किसी लिफाफे में बंद नहीं होगी। वह उड़ेगी खुले आकाश में, जिसको लेना हो, ले ले और ना लेना हो तो ना लें। जैसे दीये से झरता प्रकाश है। वह झर रहा है सिर्फ, वह दीये का स्वभाव है।

प्रेम पंथ ऐसो कठिन / साभार ओशो इंटरनैशनल फाऊंडेशन

ओशो को आंतरिक परिवर्तन यानि इनर ट्रांसफॉर्मेशन के विज्ञान में उनके योगदान के लिए काफी माना जाता है। इनके अनुसार ध्यान के जरिए मौजूदा जीवन को स्वीकार किया जा सकता है।

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