नारद मुनि की कथाओं से मिलता है कौन-सा ज्ञान

नारद मुनि की कथाओं से मिलता है कौन-सा ज्ञान?

आख्यानों में नारद मुनि एक बड़े ही महत्वपूर्ण पात्र हैं। नारायण नारायण कहते हुए जब वे आते हैं, तब सब समझ जाते हैं कि कुछ निर्णायक होने वाला है - ऐसा कुछ जिससे कथा आगे बढ़ेगी और जिससे अंत में कुछ ज्ञान प्राप्त होगा।

नारद मुनि को लड़ाई झगड़ों, कलह, ईर्ष्या और महत्त्वाकांक्षा से भी जोड़कर देखा जाता है। नारद जी को देव ऋषि भी माना जाता है, जो देवलोक, भूलोक और पाताल लोक में आते और जाते हुए इसकी खबर उधर देते हैं और उसकी खबर इधर। यानी खबरों को इधर-उधर करने का काम भी करते हैं। लोकप्रिय नाटकों में तो उनका यही रूप दर्शाया गया है।

नारद का चरित्र आखिर इतने महत्वपूर्ण क्यों है? पुराणों से हमें यह पता चलता है कि नारद, ब्रह्माजी के एक मानस पुत्र हैं। उनके कारण दक्ष प्रजापति के सभी पुत्र गृहस्थ जीवन को त्यागकर संन्यास की ओर जा रहे थे। वे नारद की इस बात से प्रेरित थे कि जीवन का मूल लक्ष्य ब्रह्मविद्या ही है। इस कारण दक्ष ने नारद को श्राप भी दिया था कि उन्हें (नारदजी) तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी और वे भूलोक व इस सांसारिक जीवन में तब तक अटके रहेंगे, जब तक कि लोगों को यह नहीं सिखाएंगे कि वे गृहस्थ जीवन में ब्रह्मविद्या कैसे प्राप्त कर सकते हैं।

माना जाता है कि इसके बाद ही नारद जी हाथों में तंबूरा लिए चारों ओर जाकर नारायण की कथा सुनाने लगे। इस प्रकार भजन और कीर्तन का प्रारंभ नारद से हुआ। नारद को भक्ति योग और भक्ति सूत्र से जोड़ा गया है। जो आख्यानकार, कथाकार और संगीतकार लोगों से भक्ति की बातें करते हैं, वे नारद से प्रेरित हैं। नारद को धर्म शास्त्र से भी जोड़ा गया है। जैन धर्म में भी कहा गया है कि हर कल्प में नौ नारद मुनि आते हैं और वे नौ वासुदेव और नौ बलदेव के मित्र बन जाते हैं।

इससे भी गूढ़ बात हम उनके नाम से समझ सकते हैं। नारायण शब्द का अर्थ है, वह जो नर के भीतर वास करता है। गीता में कहा गया है कि हमारा शरीर देह है और उसके भीतर जो आत्मा वास करती है, वह देहि है। इस प्रकार, जैसे देह के भीतर देहि वास करता है, वैसे ही नर या मनुष्य के भीतर आत्मा वास करती है। इस आत्मा को हम नारायण कहते हैं।

महाभारत के युद्ध के प्रारंभ के पहले पांडव और कौरव श्रीकृष्ण के पास उनकी मदद मांगने के लिए गए। तब श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि या तो वे निहत्थे नारायण को चुन सकते हैं या नारायणी सेना को। पांडवों ने नारायण को चुना और कौरवों ने नारायणी सेना को। नारायण का अर्थ है हमारी आत्मा जो निर्गुण है, वह जिसे ‘मैं’ कहते हैं। इसके विपरीत नारायणी सेना का अर्थ है सगुण दुनिया, अर्थात हमारे अस्त्र-शस्त्र, हमारा शरीर, हमारी धन धान्य संपत्ति, वह सबकुछ जिसे हम ‘मेरा’ कहते हैं। ‘मैं’ और ‘मेरा’ या ‘तू’ और ‘तेरा’ के बीच का संबंध नारायण और नर के बीच के संबंध जैसा है।

नारद मुनि की कथाओं से हम बहुत ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। यदि हम उनकी कलह से संबंधित कथाओं की पड़ताल करें, तो हमें पता चलेगा कि वे हमेशा मनुष्यों को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि नारायणी और नारायण में अंतर क्या है – ‘मैं’ और ‘मेरा’ में अंतर क्या है। यह इसलिए कि इस विश्व में जितना भी कलह, मोह और ईर्ष्या पाई जाती है, वह हमेशा ‘मेरा’ और ‘तेरा’ के बीच में होती है, ना कि ‘मैं’ और ‘तू’ के बीच में। चूंकि नारायणी का विश्व मोह-माया, धन-धान्य-संपत्ति, शक्ति, लोभ और ईर्ष्या का विश्व है, उस विश्व में भय और भूख होती है। चूंकि नारायण के विश्व में हमारा ध्यान स्वयं पर होता है, हम दूसरों से तुलना करना बंद कर देते हैं। इस प्रकार हम मोह माया, कलह, लोभ और ईर्ष्या जैसी सांसारिक उलझनों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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