मानव के ईश्वरीय अधिकार

मानव का दिव्यीकरण

आज संसार में मुख्यतः 7 बातों के बारे में चर्चा-परिचर्चा है। संस्थाएं तथा व्यक्ति उन्हीं सात में से किन्हीं एक-दो को लेकर कुछ-न-कुछ करने में प्रयत्नशील हैं।

चर्चा के वे सात विषय हैं – नई-नई खोज करना और साक्षरता फैलाना, अधिकार की मांग, स्वतन्त्रता की प्रप्ति, निर्धनता को मिटाना और जीवन-स्तर ऊंचा करना, जनसंख्या में भयावह वृद्धि और उसके लिए सन्तति नियंत्रण, विज्ञान और सभ्यता द्वारा उत्पन्न समस्याएं और अनुशासन की कमी तथा पारस्परिक सम्बन्धों में विषमता।

नई खोज और साक्षरता (Nai khoj aur saksharta)

मनुष्य को खोज और शोध कार्य के लिए जितने साधन और जितनी सुविधाएं आज उपलब्ध हैं, उतनी शायद पहले कभी नहीं थीं। अतः पिछले लगभग 200 वर्षों में संसार की ज्ञान-राशि में कल्पनातीत वृद्धि हुई है, परन्तु विडम्बना यह है कि एक ओर तो समाज साक्षरता के लिए भरसक यत्न कर रहा है और दूसरी तरफ हर आए दिन विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में उनकी पाठ्य परिधि को भी बढ़ाया जाता है। लेकिन, तीसरी और समाज में असन्तोष बढ़ता हुआ दिखाई देता है। यद्यपि आज मनुष्य चांद, मंगल और बृहस्पति इत्यादि ग्रहों के बारे में खोज करने में सक्षम हुआ है और भौतिकी में चार्म्ड पार्टीकल्स तथा परमाणु के हेड्रोन्स, क्वार्क्स इत्यादि तक जा पहुंचा है और शरीर के भी जैनेटिक कोड के रहस्य को उसने जान लिया है, तथापि इन सबको जानने वाले स्वयं को वह नहीं जानता। यह जो उक्ति है कि ज्ञान का प्रकाश, शक्ति और दिव्यता देने वाला है, इसका मनुष्य पर कोई नैतिक प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता। आज मनुष्य ने ज्ञान और विज्ञान की अनेक सूक्ष्म और गहन बातों को तो जान लिया है, परन्तु उस ज्ञान को प्राप्त नहीं कर पाया, जिससे उसमें शान्ति, सन्तोष, सद्भावना, सहानुभूति, सहअस्तित्व और सदाचार का विकास हो।

अधिकार (Adhikar)

आज कहीं पर राजनीतिक, कहीं सामाजिक, कहीं वैधानिक और कहीं आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष हो रहा है। एक अधिकार की प्राप्ति के लिए किए गए संघर्ष में सफलता पा लेने के बाद मनुष्य के जीवन में एक दूसरी प्रकार कर संघर्ष चल पड़ता है। और तो क्या, आज अधिकार की परिभाषा क्या है तथा मनुष्य के कौन-कौन से अधिकार मौलिक अधिकार हैं – इन प्रश्नों को लेकर काफी चर्चा-परिचर्चा होती है और समाज में जहां-तहां संघर्ष बढ़ा हुआ है। परन्तु यह कैसी विडम्बना है कि मानव इन सांसारिक अधिकारों के लिए तो इतना हो-हल करता है, परन्तु उसका जो ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार है, उसके लिए वह सतर्क नहीं है। आज हरिजनों, मजदूरों, किसानों, नागरिकों और महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए नारे तो लगाए जाते हैं और निस्संदेह इनको अधिकार मिलने भी चाहिए, परन्तु मनुष्य उस अधिकार को प्राप्त करने के बारे में अचेत अथवा निश्चेष्ट-सा है जिसकी प्राप्ति से उसे सर्व अधिकार स्वतः ही मिल जाएंगे और जिसके बाद अधिकार और कर्त्तव्य की लड़ाई बंद हो जाएगी। किन्तु ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार तो पवित्र अधिकार हैं, जो कि मनुष्य के दिव्यीकरण से ही प्राप्त हो सकते हैं।

स्वतंत्रता (Swatantra)

हर ओर, हर लब पर आज स्वतंत्रता का ही नारा है। परन्तु फिर भी हम देखते हैं कि न चाहने पर भी मनुष्य आज कई प्रकार के बंघनों में बंध है। अपने कर्मों के, अपने संस्कारों के, अपनी आदतों के, परिस्थितियों और वातावरण के अथवा रोग और शोक के बंधनों में बंधा है। काश, मनुष्य ऐसी स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करता, जिससे ये सभी प्रकार के बंधन टूक-टूक हो जाते हैं, परिस्थितियों की बेड़ियां और संस्कारों की हथकिड़यां सदा के लिए टूट जाती हैं और मनुष्य विकारों की जेल से मुक्त हो जाता है।

निर्धनता दूर करने और जीवन-स्तर ऊंचा करने की चर्चा (Nirdhanta dur karne aur jivan star uncha karne ki charcha)

वर्तमान दौर एक ऐसा दौर है, जबकि हर देश की सरकार का ध्यान निर्धनों का जीवन-स्तर ऊंचा करने तथा पूंजीपतियों द्वारा किसानों व मजदूरों का शोषण रोकने की ओर गया है। परन्तु जबकि दिनों-दिन जनसंख्या बड़ी तीव्र गति से बढ़ रही है और जीवन-स्तर के बारे में भी कोई स्थिर दृष्टिकोण नहीं है, बल्कि मनुष्य अधिकाधिक सुविधाएं चाहता है, तो भला निर्धनता को कैसे दूर किया जा सकता है। पुनश्च, मनुष्य का साथ देने वाला धन तो ज्ञान-धन, चरित्र-धन और उसके ऊंचे कर्म हैं। आज इनकी तरफ लोगों का कहां तक और कितना ध्यान है? इनके बिना जीवन में सच्चा सुख और सच्ची शान्ति कैसे संभव हो सकती है? अतः इस विषय में भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ईश्वरीय ज्ञान-धन द्वारा मनुष्य की मानसिक और बौद्धिक दरिद्रता दूर करने और उसे दिव्य बनाने की जरूरत है।

आज भाषा-भेद, धर्म-भेद, नीति-भेद, प्रान्त-भेद, रंग-भेद इत्यादि भेदों को लेकर मनुष्य, मनुष्य को शत्रुता की दृष्टि से देख रहा है। जीवन में नैतिक मूल्यों का और दिव्यता का ह्रास स्पष्ट दिखाई देता है, जिसके कारण संसार में खलबली मची हुई है। कोई स्थिर नैतिक मूल्य नहीं जिनसे कि मनुष्य का व्यवहार और आचरण नियंत्रित एवं संचालित होते हों। आज मनुष्य में सहयोग, सहानुभूति और भ्रतृत्व का प्रयःलोप हो रहा है।

उपरोक्त सात बातों पर विचार करने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इन सभी के एक साथ हल के लिए मनुष्य का दिव्यीकरण ही एकमात्र उपाय है और उसके लिए दिव्य ज्ञान की धारणा और दिव्य योग का अभ्यास आवश्यक है। इस ज्ञान से ही मनुष्य अपने कर्मों को दिव्य बनाता हुआ पवित्रता, शान्ति और शक्ति के ईश्वरीय जन्म-सिद्ध अधिकार को, जिससे कि उसे सर्व प्रकार के धन एक साथ उपलब्ध हो सकते हैं, प्राप्त कर सकेगा। इससे वह रोग और शोक के बंधनों से भी मुक्त हो सकेगा तथा सर्व प्रकार के कष्टों-क्लेशों और समस्याओं से भी मुक्ति पा सकेगा।

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