यह तो एक पौराणिक कथा है, एक आख्यान है। कुछ लोग कहते हैं कि ब्रह्मा के कमंडल से यह अमृत गिरा था, कुछ लोग कहते हैं कि गरुड़ जब इंद्र लोक से नाग लोक तक अमृत का कुंड लेकर जा रहे थे, तब चार बूंद गिरी थी। कुछ लोग कहते हैं कि ये चार बूंदें विष्णु भगवान ही धरती पर लाए थे। कुछ लोगों का मानना है कि शिवजी ये बूंद धरती पर लेकर आए थे। तो ऐसी तो कथाएं तो अनंत हैं। अपने-अपने विश्वास की बात है।
साधारणतः हम हिंदू धर्म को मूर्ति पूजा और मंदिरों से जोड़ते हैं। लेकिन, कुंभ मेले में रोचक बात यह है कि यहां न मंदिर है, न पूजा घर है, न ब्राह्मण है, न यज्ञ है और न पूजा है। यहां केवल प्रकृति है। यह प्रकृति के बीच, प्रकृति से जुड़ा हुआ एक बहुत ही प्राचीन उत्सव है।
कहते हैं कि कुंभ मेले में स्थान और काल का मिलन होता है। जब बृहस्पति, सूरज और चंद्रमा कुंभ या सिंह राशि जैसी किसी राशि में प्रवेश करते हैं, तब जहां नदी में संगम होता है, वहां पर लोग नहाने और पानी में डुबकी लगाने जाते हैं। यह इस विश्वास से कि उस शुभ मुहूर्त पर, उस स्थान और काल को लेकर, उस पानी में अमृत की उत्पत्ति होती है। यह मान्यता है कि उस समय जल में एक रासायनिक बदलाव आता है, जिससे हमारे सारे पाप धुल जाते हैं। इसलिए लाखों करोड़ों की संख्या में भारतवर्ष के लोग कुंभ मेले में जाते हैं। सबसे बड़ा कुंभ मेला तो प्रयाग में होता है, जहां गंगा और यमुना का मिलन होता है। अन्य कुंभ हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में होते हैं।
इतिहासकारों का मानना है कि शुरू-शुरू में यह कुंभ मेले मुख्य रूप से ऋषि-मुनियों के लिए थे। वे उनमें हर साल आते थे। चूंकि ऋषि-मुनि साधारणतः किसी जगह पर रुकते नहीं थे, कुंभ मेले के समय एक मिलन का वातावरण होता था जहां पर आध्यात्मिक विषयों पर संवाद होता था। कुछ लोगों का मानना है कि पहले कुंभ का आयोजन शायद जनक ने ही किया होगा, जहां पर उपनिषद की बातें हुई होंगी और जहां पर याज्ञवल्क्य बैठे हुए होंगे। लेकिन, इसका कोई प्रमाण नहीं है। कुंभ मेले में जिन अखाड़ों के बीच मतभेद होते हैं, वही अखाड़े एक-दूसरे से बातचीत करके मतभेदों का समाधान भी करते हैं। चूंकि संन्यासी हर तीन चार साल अलग-अलग कुंभ मेलों में मिलते हैं, इससे उन्हें पता चलता है कि संन्यासियों और अखाड़ों में क्या बदला है, कौन-सा महंत समाधि ले चुका है, कितने नए शिष्यों को दीक्षा दी गई है और किस अखाड़े के महामंडलेश्वर आचार्य बन गए हैं। इससे एक प्रकार की चक्रीय पद्धति बन जाती है, जो भारतवर्ष को स्थान और काल से जोड़ती है।
एक रोचक बात यह भी है कि सभी कुंभ मेले उत्तर भारत में होते हैं, दक्षिण भारत में नहीं। लेकिन, कुंबकोणम जैसी कई जगहों में कुंभ जैसे ही मेले आयोजित किए जाते हैं। ऐसे मेले नदियों से नहीं, बल्कि कुंड से जुड़े हुए होते हैं। शायद जो ब्राह्मण अगस्त्य मुनि के साथ उत्तर भारत से दक्षिण भारत गए, उन्होंने इन मेलों को स्थापित किया होगा। आख्यानों के अनुसार अगस्त्य मुनि हिमालय पर्वत से गंगा जल लेकर दक्षिण भारत गए थे। ऐसी कई कथाएं हैं, जिनमें ऋषियों ने गंगाजल दक्षिण भारत ले जाने के कारण उस भूमि को भी वैदिक धर्म से पावन कर दिया।
अमृत के संबंध में विद्वान मानते हैं कि अमृत तो ज्ञान है। लेकिन साधारण मनुष्य आत्मज्ञान नहीं ढूंढता। वह केवल अपने पाप से मुक्ति चाहता है और कुंभ मेले में एक क्रिया के माध्यम से अपना पाप धुलवाकर मोक्ष की प्राप्ति करता है। इस प्रकार यहां भक्ति और क्रिया का मेल देखने को मिलता है। अधिकतर ऋषि मुनि जो यहां आते हैं, वे अपने अखाड़ों का ऐश्वर्य दिखाते हैं। लेकिन आजकल यहां ज्ञान की बातें होती हैं कि नहीं, यह नहीं पता। जो विश्वास करता है, उसे लोगों की श्रद्धा देखकर ज्ञान मिल जाता है। लेकिन इन दिनों कुंभ मेलों पर राजनीति के प्रभाव से शायद ज्ञान का अनुभव कम और शक्ति का अनुभव ज़्यादा हो रहा है।