कृष्ण का मित्र

कृष्ण का मित्र

कृष्ण ने उन्हें समझाया कि वास्तव में बुद्धिमान व्यक्ति में श्रद्धा और धैर्य दोनों होते हैं।

कृष्ण के मित्र उद्धव अर्जुन की तरह उनके भाई भी थे। लेकिन जहां अर्जुन कृष्ण की बुआ कुंती का पुत्र था, उद्धव कृष्ण के चाचा देवभाग के पुत्र थे। उद्धव जिनका जन्म और पालन-पोषण मथुरा में हुआ था, एक बड़े बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने देवों के गुरु बृहस्पति से शिक्षा प्राप्त की थी। दोनों बिलकुल अलग थे। उद्धव शहर में जबकि कृष्ण गांव में ग्वालाओं के साथ बड़े हुए थे। शास्त्रों के विद्वान उद्धव गंभीर स्वभाव के थे, जबकि मज़ाकिया व्यवहार के कृष्ण सबको मोहित करते थे।

उद्धव दो मुख्य घटनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। पहली घटना में उन्हें वृंदावन जाकर ग्वालिनों को यह बताने के लिए कहा गया कि कृष्ण अपने वचन के विपरीत वृंदावन कभी नहीं लौटने वाले थे। दूसरी घटना में उद्धव को द्वारकावासियों को यह बताना था कि संपूर्ण यादव वंश का विध्वंस हो चुका है। दोनों घटनाएं विरह, पीड़ा और मृत्यु से जुड़ी हैं। पहली घटना उद्धव के लिए राहतभरी थी, क्योंकि कृष्ण उनके पास आ रहे थे, लेकिन दूसरी घटना में उन्हें पीड़ा सहनी पड़ी, क्योंकि कृष्ण उन्हें छोड़कर चले गए।

उद्धव ने गोपिकाओं को यह समझाने का प्रयास किया कि जीवन में बदलाव अनिवार्य है और बुद्धिमान लोग सांसारिक विश्व से तटस्थ रहते हैं। इस पर राधा सहित अन्य ग्वालिनों ने उन्हें फटकारा। लोकप्रिय भ्रमर गीत अर्थात भौंरे का गीत इसी पर आधारित है। इस गीत में ग्वालिनें अपने आप को उस फूल के समान मानती हैं, जिसमें से भौंरा रस और सुगंध निकालकर चले जाता है। यहाँ भौंरा अर्थात कृष्ण अन्य फूलों के पास अर्थात दूसरे देश में दूसरी महिलाओं के पास गए हैं। ग्वालिनें न कृष्ण पर नाराज़ हुईं, न उन्होंने चाहा कि कृष्ण उन्हीं के साथ रहें, लेकिन उन्होंने कृष्ण के लिए विलाप करने का अधिकार चाहा। इसे विरह भक्ति कहते हैं। उद्धव ने उन्हें बुद्धि पर आधारित सांत्वना दी, जिस पर ग्वालिनों ने कहा, ‘हम आपके ज्ञान और सांत्वना का क्या करें? कृष्ण की यादें तो हमारे रोम-रोम में बसी हैं!’ बुद्धिजीवी उद्धव ग्वालिनों का निस्स्वार्थ प्रेम देखकर विनम्र हुए। ज्ञान योगी पहली बार भक्ति योग से परिचित हुए। जीवन चलता रहा। कृष्ण यादवों को मथुरा से द्वारका ले गए। उन्होंने कुरुक्षेत्र का युद्ध जीतने में पांडवों की सहायता की। उद्धव ये सब देखते रहे। कृष्ण के जीवन के अंतिम चरण में यादवों में गृहयुद्ध हुआ। उनके संबंधी एक-दूसरे का वध कर रहे थे और कृष्ण ने उन्हें रोका नहीं। फिर एक शिकारी के विषैले बाण से कृष्ण के बाएं पैर का तलवा जख्मी हो गया। यदुवंश के दुःखद नरसंहार और कृष्ण की जल्दी ही होने वाली बैकुंठ धाम में वापसी ने उद्धव को भौंचक्का कर गया। लेकिन कृष्ण ने शांतिपूर्वक उनसे विनती की कि वे यह समाचार द्वारकावासियों सहित उनके पिता वासुदेव को दें। उद्धव ने उनसे पूछा कि आप इतने शांत कैसे रह सकते हैं? इस पर कृष्ण ने उन्हें उद्धव गीता बताई, जिसे हंस गीता भी कहा जाता है। उद्धव समझ गए कि जानकार होते हुए भी वे बुद्धिमान नहीं थे। वे हर शास्त्र के हर श्लोक जानते थे और तर्क-वितर्क में भी निपुण थे। लेकिन सच्चाई का सामना करने में वे ग्वालिनों की तरह ही थे, जिनके विलाप की उन्होंने हंसी उड़ाई थी। कृष्ण ने उन्हें समझाया कि वास्तव में बुद्धिमान व्यक्ति में श्रद्धा और धैर्य दोनों होते हैं। श्रद्धा इस बात को पूर्णतः स्वीकार करने में हमारी मदद करती है कि शारीरिक वस्तुओं के विपरीत आध्यात्मिक बातें बनी रहेंगी। अंततः कृष्ण वृंदावन छोड़ देंगे और फिर मथुरा व द्वारका भी छोड़ेंगे, लेकिन विष्णु का बैकुंठ बना रहेगा। राधा यह जानती थी और यह भी कि भले ही कृष्ण कभी लौटकर न आए, वे उसकी भावनाओं में हमेशा बने रहेंगे।

उद्धव को यह सीख मिलनी बाकी थी। कृष्ण ने उन्हें हंस जैसा बनने की सीख दी, जो पानी में तैरता है पर पानी को पंखों से चिपकने नहीं देता। कृष्ण ने अपने अनुभव के माध्यम से उद्धव को यह सीख दी। एक मित्र के लिए इससे अच्छी भेंट भला क्या हो सकती है?

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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