कोई भविष्य नहीं

कोई भविष्य नहीं

इसकी पूरी संभावना है कि जहां तक जीवन का संबंध है, कोई भविष्य नहीं होगा। हम ऐसे रास्ते के करीब आ रहे हैं, जिसके अंत में एक बंद गली है। इस तथ्य को स्वीकार करना दुखद है, लेकिन अच्छा होगा कि हम इसे स्वीकार करें; क्योंकि तब फिर एक नया मोड़ लेने की संभावना बनती है। आज घटनाएं जिस दिशा में गतिमान हैं, उनकी तार्किक निष्पत्ति एक ही है; सार्वभौमिक आत्मघात।

सर्वाधिक चौंका देने वाली बात यह है कि संसार का बुद्धिजीवी वर्ग, संसार के वैज्ञानिक, संसार के दार्शनिक इन सब तथ्यों की उपेक्षा कर रहे हैं।

प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति में यह संकल्प होना चाहिए कि हम किन्हीं निहित स्वार्थों को इस ग्रह को नष्ट करने नहीं देंगे। मनुष्य को बचाना अस्तित्व के महानतम सृजन को बचाना है। इस पृथ्वी को मनुष्य का सृजन करने में चालीस लाख वर्ष लगे। वह इतना मूल्यवान है! और भविष्य कहीं अधिक मूल्यवान है।

यदि भविष्य के लिए कुछ करना हो तो यही समय है, अन्यथा अस्तित्व का यह चेतना का सर्वश्रेष्ठ विकास खो जाएगा। यह न केवल पृथ्वी की हानि होगी, बल्कि पूरे अस्तित्व की हानि होगी।

इन लाखों वर्षों में हम चेतना की थोड़ी संभावना पैदा कर सके हैं, लेकिन हमारे पास इतना समय नहीं है कि हम प्रतीक्षा करें कि प्रकृति अपनी धीमी गति से विकसित होती रहे। प्रकृति के लिए अनंत काल उपलब्ध है, हमारे लिए नहीं है। हमारे पास सिर्फ 12 साल हैं, 20वीं सदी के अंत तक।

उदाहरण के लिए, संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वातावरण और विकास पर विश्व आयोग की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है, “हमारा सामूहिक भविष्य”। इस रिपोर्ट में अपील की गई है कि इस ग्रह को बचाने के लिए एक अविच्छिन्न (सस्टेनेबल) विकास की ज़रूरत है। इसकी व्यवस्था उन्होंने इस तरह की है, भविष्य के साधनों को नष्ट किए बगैर वर्तमान की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना। यह रिपोर्ट इसे भी स्वीकार करती है कि अगर कुछ करना है तो अभी, इसी समय करना चाहिए, अन्यथा भविष्य होगा ही नहीं।

यह निष्कर्ष सही है। लेकिन रिपोर्ट चालाकी से भरी है, इस अर्थ में कि वह इस संबंध में चर्चा नहीं करती कि वर्तमान समस्याएं किसने पैदा की हैं।

यदि हमें भविष्य की समस्याओं को हल करके उन्हें विसर्जित करना है, तो हमें उनकी जड़ों को अतीत में खोजना होगा। यह हमारा समूचा अतीत है, उसके सभी आयामों में, जिसने इस खतरनाक स्थिति को पैदा किया है। लेकिन इस संबंध में कोई बात ही नहीं करता क्योंकि इससे पहले किसी भी पीढ़ी ने भविष्य की फिकर ही नहीं की थी। हजारों वर्षों तक मनुष्य मनमाने ढंग से जीता रहा है। उसने अगली पीढ़ी को उसके मनचाहे ढंग से जीने के लिए बाध्य किया। अब यह और आगे संभव नहीं है।

हमें एक आमूल छलांग (क्वांटम लीप) लेनी है और नई पीढ़ी को सिखाना है कि हम जिस भांति जिएं हैं उस भांति वह न जिएं। केवल तभी भविष्य बदल सकता है।

मनुष्य का स्वर्णिम भविष्य: एक महान चुनौती से उद्धृत

ओशो को आंतरिक परिवर्तन यानि इनर ट्रांसफॉर्मेशन के विज्ञान में उनके योगदान के लिए काफी माना जाता है। इनके अनुसार ध्यान के जरिए मौजूदा जीवन को स्वीकार किया जा सकता है।

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