ज़बान के धनी और ज़बान के कंजूस

जबान के धनी और जबान के कंजूस

एक कहावत है कि तलवार के घाव तो जल्दी भर जाते हैं, पर जबान के घाव भरने में ज्यादा देर लगती है।

हम देखते हैं कि हरेक देश की दंड-संहिता में तलवार से आघात पहुंचाने वाले व्यक्ति के लिए दंड निर्धारित है, किन्तु जबान से घाव करने वाले व्यक्ति के बारे में वैसा कोई कड़ा दंड नहीं है। लोहे की तलवार से तन को आहत करने वाले व्यक्ति को तो कत्ल का अपराधी माना जाता है, परन्तु जबान की तलवार से मन को आहत करने वाले व्यक्ति का कर्म वैसा बड़ा दंडनीय अपराध नहीं माना जाता। यों सभाओं में और समाज में भाषण या वार्तालाप में शिष्टता का व्यवहार करने के लिए भी मर्यादा प्रचलित हैं और सरकार के विरुद्ध या एक जाति को दूसरी जाति के विरुद्ध भड़काने एवं उकसाने के बारे में भी विधि-विधान हैं, परन्तु व्यक्तिगत व्यवहार में तथा घरेलू एवं पारिवारिक वार्तालाप में यदि कोई किसी को अपने शब्द रूपी बाण से जख्मी करता है, तो उसके अपराध के लिए कोई कड़ा दंड-विधान नहीं है।

ऐसा दंड निर्धारित न होने के कई कारण हो सकते हैं। शायद इस अपराध को दंड-संहिता में इसलिए सम्मिलित नहीं किया गया होगा कि इस प्रकार के रगड़े-झगड़े इतनी संख्या में होते हैं कि यदि सरकार अथवा पुलिस इन्हें भी दंडनीय अपराध मान लें तो न्यायालय में ऐसे अपराधों की अनंत लड़ी लग जाएगी। यह भी कारण हो सकता है कि ऐसे अपराधों को अदालत के कटघरे में कानूनी तौर पर सिद्ध करना कठिन होता है क्योंकि मन के घाव प्रगट नहीं होते और उसके लिए गवाह या दस्तावेज आदि भी नहीं होते। यह भी हो सकता है कि मन के घाव लगने में स्वयं व्यक्ति भी दोषी हो जो किसी बात को यों ही अपनी आदत के कारण महसूस कर गया हो। यह भी हो सकता है कि यह अपराध इतना आम हो कि इससे कोई छूटा न रह सकता हो। खैर इसके अपराध घोषित न होने का कारण कुछ भी रहे हो, इस बात से तो इनकार नहीं किया जा सकता कि जबान से किसी के मन को आहत और पीड़ित करना भी एक बहुत बुरा कर्म है।

कटु शब्द है खतरनाक

ध्यान से देखा जाए तो एक दृष्टि से जबान के घाव ज्यादा खतरनाक होते हैं, केवल इसलिए नहीं कि कटु शब्द से पीड़ित होकर कई व्यक्ति अपनी हत्या कर डालते हैं या कई परिवारों का संगठन टूट जाता है या परस्पर दुश्मनी के बढ़ने से कलह-क्लेश को बढ़ावा मिलता है, बल्कि इसलिए भी कि यदि तलवार द्वारा कोई व्यक्ति जख्मी हो जाता है, तो उसका जख्म उस तक ही सीमित रहता है। परन्तु जब शब्द-प्रहार से कोई आहत होता है, तो वह उत्तेजना, अपमान या अशिष्टता का अनुभव करने के परिणामस्वरूप सम्पर्क में आने वाले दूसरे व्यक्तियों को भी दुखी करता है। उदाहरण के तौर पर यदि किसी गृहिणी को कोई कटु वचन बोलता है, तो वह उद्विग्न होकर बच्चों या पति से खिन्न होकर बोलती है और पति बस में कंडक्टर या यात्रियों से अथवा ऑफिस में अपने सहकर्मियों से लड़ पड़ता है अथवा बच्चों पर अपना गुस्सा निकालता है और बच्चों की अपने पड़ोस के बच्चों से झड़प हो जाती है और इस प्रकार समाज में यत्र-तत्र-सर्वत्र तनाव तथा पर-पीड़ा व भंवर-सा चल पड़ता है। कटु अथवा अभद्रता-पूर्ण वचनों से चेहरे की कांति सूख जाती है, मुख पर से मुस्कान मिट जाती है, मन से उत्साह नष्ट हो जाता है और श्रोता के स्वास्थ्य तथा चिंतन को भी धक्का लगता है।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप

परन्तु कोई यह न समझ ले कि केवल कटुता अथवा अभद्रता ही वाणी के दोष हैं। वाणी के अनेक विकार हो सकते हैं। मान लीजिए कि कोई व्यक्ति बोलने में तो शिष्ट और मधुर है परन्तु ज़रुरत से ज्यादा लम्बी-लम्बी बातें करता है। वह वाचाल है, बातूनी है। इधर की, उधर की, इसकी-उसकी बातें कर-करके वह हमारा ध्यान अपनी बातों में लगाए रखता है। इस प्रकार वह हमारे समय को हर लेता है अथवा नष्ट करता है। जीवन का माप समय ही से तो किया जाता है। अतः यह बातूनी व्यक्ति भी तो हमारे जीवन को क्षति पहुंचाता है। देखने में तो वह हमारा निकटस्थ मित्र है, परंतु वास्तव में तो वह हमारी एकाग्रता, हमारी मानसिक शक्तियों और हमारे समय को हमसे मीठी रीति से छीन रहा है अथवा उनका अपव्यय कर रहा है। लगता तो ऐसा है कि वह हमारा मन बहला रहा है, परंतु वास्तव में तो वह हमारे मन की वृत्तियों को एकाग्र होने में सहायक होने की बजाय उन्हें बिखरा रहा है। फिर, वह जब दो-चार बातें सुनाता है, तब हमें भी तो एक-न-एक बात सुनानी ही पड़ती है, वर्ना तो ऐसा लगता है कि हम बात करना ही नहीं जानते या हमारा ज्ञान अति अल्प है। अतः परिस्थितिवश जब हम कुछ करते हैं, कोई गप्प हांकते या कोई समाचार सुनाते हैं, तो हमें भी तदानुसार ही आदतें पड़ जाती हैं। जिस प्रकार की बातें हम कहते और सुनते हैं वैसे ही तो हमारा स्वभाव बनता चला जाता है और हम इस बात से गाफिल होकर उस वाक-ताल में कूद पड़ते हैं अथवा दूसरे शब्दों में हम भी अपने शब्द रूपी धन का जुआ, शब्दों की चौपड़ पर लगाना शुरू कर देते हैं। हम यहां युक्तियुक्ति हास्य और विनोद के बारे में नहीं कर रहे हैं (वास्तव में हम देखते हैं कि युक्त विनोद भी शीघ्र ही अयुक्त होने लगता है) बल्कि हम तो बातूनीपन की आदत के बारे में कह रहे हैं।

बेमौका बातचीत

इसी प्रकार, बेमौका बातचीत से भी मनुष्य को बहुत हानि पहुंचती है। जो लोग शब्द-संयम वाले नहीं हैं, वे दूसरे का कल्याण सोचे बिना ही कुछ कह देते हैं। इस बात को यहां हम उदाहरण द्वारा कुछ स्पष्ट करते हैं। मान लीजिए कि एक व्यक्ति किसी जिज्ञासु को समझा रहा है कि ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग के अभ्यास द्वारा मनुष्य क्रोध को भी जीत लेता है और उसके अन्य मनोविकार भी नष्ट होने लगते हैं। इसी बात के दौरान एक तीसरा व्यक्ति वहां आकर बैठ जाता है और वह इस ज्ञान वार्तालाप का भागी न होते हुए भी कहता है, परन्तु मैं तो दो मास से यह ज्ञान सुन रहा हूं और इस योग को सीख रहा हूं, मेरा तो क्रोध का संस्कार नहीं मिटा और मैं तो समझता हूं कि संसार में ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं जिसमें क्रोध न हो। अब हो सकता है कि यह तीसरा व्यक्ति सच्ची बात कह रहा है, परंतु इस वार्तालाप में अपने विचार प्रगट कराने के लिए किसी द्वारा निवेदित किए जाने के बिना उसका बोल पड़ना अनाधिकार चेष्टा है और दूसरे के कल्याण कार्य में बाधा है। यद्यपि इस व्यक्ति ने यह वाक्य इस उद्देश्य से उच्चारित नहीं किया कि जिज्ञासु का कल्याण न हो तथापि उसके ये बोल शब्द-संयम की कमी के सूचक हैं। उसे चाहिए था कि जिज्ञासु से वार्ता समाप्त होने के बाद वह अपनी यह शंका प्रस्तुत करता। तब उसे समझाया जाता कि उसके योगाभ्यास में, ज्ञान की धारणा में या नियम-पालन में क्या कमी है जिस कारण से उसका क्रोध हल्का नहीं हो रहा। अब जब प्रारंभिक कोटि के जिज्ञासु को ज्ञान दिया जा रहा है, तो उसने एक अड़चन पैदा कर दी है और जिज्ञासु पर गलत प्रभाव डाला है, जिससे कि उसके मन में योग सीखने का उत्साह उत्पन्न होने की बजाय उसका उत्साह क्षीण ही होगा। ऐसे ही यदि कोई व्यक्ति किसी के घर में विवाह के अवसर पर कह दे, ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है’ तो वह भी बेमौका कथन ही तो होगा यद्यपि उसकी बात सही है।

अपने आप ही राय साहब

इसी प्रकार, संसार में आपको ऐसे भी बहुत लोग मिलेंगे जो बिना मांगे अपनी राय देते हैं। एक व्यक्ति अन्य से किसी संस्था के बारे में अपने विचार व्यक्त कर रहा है और तीसरा, उपस्थित व्यक्ति के कहे बिना, उस संस्था के विरुद्ध अपने विचार व्यक्त करना शुरू कर देता है। यह भी तो वैसे ही है जैसे कि किसी ऐसे व्यक्ति पर, जो लड़ाई के लिए तैयार न हो, यों अचानक ही हमला करना अथवा किसी की दाढ़ी में हाथ डालना।

शब्द-व्यय में कंजूस

फिर जैसे कुछ लोग शब्दों का फिजूल खर्च करते हैं, वैसे ही कई लोग ऐसे भी हैं जो इस मामले में बहुत ही कंजूस हैं। वे न तो किसी को नमस्ते या ‘ओम शांति’ कह कर अभिवादन करते हैं, न उनसे स्नेह-सूचक दो शब्द बोलते हैं और न ही किसी का धन्यवाद करते हैं। जैसे कुछ लोग अपने शब्द बाण द्वारा आघात पहुंचाते हैं वैसे ही ये लोग अपने अवांछित मौन से दूसरे के मन की खुशी को छीनते हैं। शायद वे सोचते हैं कि किसी का धन्यवाद या शुक्रिया करने से उनका मस्तक झुक जाएगा और वे उसके आभार से दब जाएंगे। ऐसा ही शायद वे लोग भी सोचते हैं, जो अपने बुरे कर्मों द्वारा किसी को कष्ट पहुंचाने पर भी ‘क्षमा कीजिए’ ‘माफ फर्माइए’ जैसे शब्द नहीं कहते।

वाणी के रूप

इस प्रकार हमें अपनी वाणी पर बहुत ही ध्यान देने की ज़रुरत है। यही वाणी अश्रुगैस का रूप धारण कर दूसरों के नेत्रों में आंसू भी ला सकती है और हंसाने वाली गैस बनकर दूसरों को हंसा भी सकती है। यही हमारे या अन्य के कार्य में रुकावट डालने वाला पत्थर भी बन सकती है और यही कारोबार रूपी मशीन में तेल का काम करके उसे सुचारू भी बना सकती है। यही शब्द बंदूक की गोलियों की तरह घातक भी हो सकती है और यही शब्द घायल मन के लिए संजीवनी बूटी का अथवा मरहम-पट्टी का भी काम कर सकते हैं। शब्दों का धनी बनकर, अपना वचन निभाकर दूसरों को प्रसन्न भी किया जा सकता है और शब्दों की कंजूसी करके दूसरों का दिल तोड़ा भी जा सकता है। यही वाणी दो-धारी तलवार भी हो सकती है और यही ढाल भी। यही कैंची का काम भी कर सकती है अर्थात् दो मनुष्यों के मन को कुतर कर अलग कर सकती है और यही सूई का काम भी कर सकती है अर्थात् उनको जोड़ भी सकती है। यह आक से भी अधिक कड़वी हो सकती है और सबसे अधिक मीठी भी। यही वाणी अमृतमयी भी हो सकती है और यही विष-भरी भी हो सकती है। मनुष्य की ढाई इंच की जिह्वा तख्त पर चढ़ाने वाली भी हो सकती है और तख्ते पर भी। इसी मुख से निकले हुए शब्द रत्नसम भी हो सकते हैं और पत्थर समान भी। यही वाणी घातक भी हो सकती है और तारक भी। हमें चाहिए कि हम अमृत-वर्षा अथवा रत्न-वर्षा करें। जैसे हम यह सोचते हैं कि हमारे मुख से किसी को दुर्गंध न आए वैसे ही हमें यह ख्याल भी रखना चाहिए कि हमारी वाणी से भी किसी को बदबू न आए।

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