गुरु और शिष्य

गुरु-शिष्य परंपरा पर कुछ बातें

आधुनिक शिक्षा प्रणाली और प्रवचनों तथा गुरु-शिष्य परंपरा में मुख्य अंतर ज्ञान की वस्तुनिष्ठता की धारणा को लेकर है। हालांकि सभी को जानकारी एक जैसी मिलती है, हर कोई उसे अलग तरह से समझकर ज्ञान भी अलग प्राप्त करता है।

बौद्ध धर्म के उभरने के पश्चात प्रवचन व्यापक होने लगें। इनमें ऋषि बहुधा उद्यान में पेड़ के नीचे बैठकर हज़ारों छात्रों को अपना ज्ञान बांटते थे। उससे पहले, उपनिषदों के अनुसार ऋषि और राजा, पति-पत्नी तथा देवता और मनुष्य आपस में वार्तालाप करते थे। और उससे भी पहले, ब्राह्मण और आरण्यक, इन वैदिक ग्रंथों के अनुसार लोग क्रमशः अनुष्ठान करने में व्यस्त रहते थे या वन में एकांत में समय बिताते थे। यह करते हुए वे इन अनुष्ठानों में किए गए उच्चार और अर्पण पर चिंतन करते थे।

इस बीच, रामायण और महाभारत के अनुसार छात्र गुरुकुलों में शिक्षा प्राप्त करने लगें। गुरुकुल की आधुनिक समझ यह है कि गुरु पेड़ के नीचे बैठकर अपने चारों ओर बैठें छात्रों को प्रवचन देते थे, मानो आज के क्लासरूम जैसे। और यही कारण है जो हम गुरु-शिष्य परंपरा को समझने में भूल कर देते हैं।

आधुनिक शिक्षा प्रणाली और प्रवचनों तथा गुरु-शिष्य परंपरा में मुख्य अंतर ज्ञान की वस्तुनिष्ठता की धारणा को लेकर है। हालांकि सभी को जानकारी एक जैसी मिलती है, हर कोई उसे अलग तरह से समझकर ज्ञान भी अलग प्राप्त करता है। समझने के लिए आवश्यक है कि हम दूसरों से मिली जानकारी का विश्लेषण कर उसे पहले से प्राप्त ज्ञान के संदर्भ में समझें। सीखना और ज्ञान प्राप्त करना अत्यधिक जटिल प्रक्रियाएं हैं। प्राचीन भारतीय इसके बारे में अवगत थे।

मार्शल आर्ट्स के प्रशिक्षण से हम चीनी शिक्षा प्रणाली समझ सकते हैं। उसमें शिक्षक निष्ठुरता से अपने विद्यार्थियों को अनुशासित कर उन्हें उन्नति की ओर प्रेरित करते हैं। यह गुरु-शिष्य परंपरा से अलग है।

यूरोपीय शिक्षण प्रणालियां तर्क-वितर्क की धारणाओं में जड़ीं थी। यह धारणाएं यूनान और रोम से आईं। प्राचीन काल के दार्शनिक आपस में तर्क करते थे। फिर, या तो एक दार्शनिक की जीत से या उनमें सर्वसम्मति से सच स्थापित होता था। यह सच छात्र कक्षाओं में बहुधा रटकर सीखते थे। हालांकि वे सच को चुनौती दे सकते थे, लेकिन अंतत: उन्हें उसे स्वीकारना ही पड़ता था। आधुनिक शिक्षण प्रणाली भी कुछ इसी तरह है। छात्रों की परीक्षा लेकर उनकी समझ और उनका विकास परखा जाता है।

यहूदी, ईसाई और इस्लामी अर्थात अब्राहमी परंपराओं के अनुसार गॉड संपूर्ण ज्ञान के स्रोत हैं। अन्य सब कुछ मनुष्यों की व्याख्या है। लेकिन यूनानी-रोमिय विचार बहुधा ‘धर्मनिरपेक्ष’ माना जाता है। इसलिए, दोनों बहुधा प्रतिपक्षी हैं।

यूरोपीय शिक्षण प्रतिरूप मिशनरी स्कूलों तथा उपनिवेशवाद के कारण और पूर्वी-एशियाई शिक्षण प्रतिरूप ब्रूस ली और जैकी चैन की तथा अन्य चीनी फ़िल्मों के कारण प्रसिद्ध हुआ। इसलिए, हम गुरु-शिष्य परंपरा का शिक्षण के यूरोपीय प्रतिरूपों के साथ आंकने का और उसे कुछ हद तक पूर्वी-एशियाई शिक्षण प्रणालियों से भी जोड़ने का प्रयास करते हैं। और यही कारण है कि हम उसे अच्छे से समझ नहीं पाते हैं।

भारतभर में मैकेनिक की दुकानों और ढाबों के मालिक युवकों को अपनी निगरानी के नीचे काम पर लगाते हैं। इस उस्ताद-चेला प्रतिरूप को समझने से हम गुरु-शिष्य परंपरा अच्छे से समझ सकते हैं। उस्ताद सिखाने का कोई प्रत्यक्ष प्रयास नहीं करता है। अपना काम करते-करते वह बात करता है और टिप्पणी देता है और चेला उसे देख-सुनकर सीखता है।

यहां चेले में सीखने की भूख होना आवश्यक है। जब वह पर्याप्त रूप से सीख लेता है, वह बहुधा स्वयं का उद्यम शुरू करता है। उस्ताद-चेले का प्रतिरूप अनौपचारिक, अव्यवस्थित रूप से चलता है। उसके उद्देश्य भी बहुधा अस्पष्ट होते हैं: क्या चेले को शिक्षा या रोज़गार दिया जा रहा है? वह कुछ सीख रहा है? या उसका शोषण हो रहा है?

संभवतः ब्राह्मणवादी संवेदनशीलता को इस बात से विस्मय हो कि उन्नत गुरु-शिष्य परंपरा को रास्ते के उस्ताद-चेला नातों से जोड़ा जा रहा है। लेकिन हमें ध्यान में रखना आवश्यक है कि कई गुरुओं का व्यवहार दमनकारी कहा जा सकता है। धौम्य के तीन छात्र थे। पहले छात्र, आरुणि ने अपने गुरु के खेत को पानी पहुंचाने वाले नाले में दरार को अपने शरीर से बंद किया। दूसरा शिष्य उपमन्यु अपने गुरु के गाय चराता था। लेकिन उसे उन गायों का दूध पीना मना था। इसलिए उसे विषैले पत्ते खाने पड़ें और कुछ समय के लिए उसकी दृष्टि भी चली गई। गुरु अपने तीसरे शिष्य वेद से उसके बुढ़ापे तक अपनी सेवा करवाई।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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