गतांक से आगे

गतांक से आगे

गतांक जिसे पिछला अंक कहते हैं, इस लेख में हम गतांक से आगे की बात को जानेंगे।

योग वही लगा सकता है जो पहले ‘योगी’ बने। योगी अर्थात लक्ष्य के प्रति गंभीर व संसार के प्रति वैरागी। योगी पुरुषार्थ के खेत में प्रलब्ध (ग्रहण किया हो) की फसल उगाता है। परंतु योगी तो कोई तब बने जब कलियुगी संसार के दुख-अशांति व सारहीनता का उसे अनुभव हो और वह इनसे मुक्त होने के ज्ञान की खोज में हो। यह ज्ञान उसे बताता है कि उसका लक्ष्य क्या है, उस लक्ष्य की प्राप्ति की विधि क्या है, उस विधि का दाता कौन है, वह दाता रहता कहां है, उसकी पहचान क्या है और उससे मिला कैसे जाता है? अब इन सब बातों का ज्ञान कौन दे? कलियुग के अंत में ज्यों ही ‘वसुंधरा’ (अभी है विशम-धरा) पर ‘ज्ञान’ अमृत की आवश्यकता होती है, त्योंहि इसका ‘दाता’ भी अवतरित होता है।

खोज करने वाली पतित आत्माओं की भेंट, पावन बनाने वाले परमात्मा से हो ही जाती है। अशांति से त्रस्त मनुष्यों को योग सीखने हेतु भटकता देख, योग सिखाने वाला खुद ही आ जाता है। आज लाखों-करोड़ों व्यक्ति योग से लाभ लेना चाहते हैं, परंतु उनका योग लगता नहीं क्योंकि उन्होंने आत्मज्ञान समझा नहीं है और वे योगी के स्वरूप से अनभिज्ञ हैं। उन्होंने मन को पवित्र, संतुलित व अनुशासनबद्ध नहीं किया है। उनका प्रयास तो मन रूपी हाथी को धागे से बांधने जैसा है। योग या याद एक यात्रा है और किसी भी यात्रा की पहले तैयारी की जाती है। बिना तैयारी के कोई ट्रेन में भी यूहीं नहीं बैठ जाता। यदि पड़ोसी से मिलने जाना हो, तो भी व्यक्ति सिर पर कंघी घुमाता है व वस्त्रों का अवलोकन करता है। कोई किसी बड़े महापुरुष या मंत्री से मिलने जाता है, तो नहा-धोकर अच्छे कपड़े पहनकर शालीनता के साथ जाता है। यदि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से मिलने का मौका मिलने वाला हो, तो और भी ज्यादा तैयारी करता है। राजयोगी तो सर्वोच्च सत्ता ‘ईश्वर’ से मिलने का कार्यक्रम रखता है, तो उसकी स्थिति कैसी होनी चाहिए? राजयोग सीखने को उत्सुक व्यक्ति अपने साधारण सांसारिक व अलबेले स्वरूप में रहते योग लगाना चाहते हैं, तो लग न सके।

मलीन मन नहीं होता ईश्वरीय स्मृति में लीन

आज मनुष्यों का मन ‘मलीन’ हो गया है, अतः ईश्वरीय-स्मृति में ‘लीन’ हो नहीं पाता। ‘मैं’ (अहंकार) में लीन रहना ही ‘मै-लीनता’ या मलीनता है। मन को अश्व भी कहा जाता है। शव यदि 100 प्रतिशत जड़ता है, तो अश्व है उच्च गतिशीलता। मन की शक्तियां अपार हैं, अतः कहावत है कि मन हाथी के समान है। महावत (शिवबाबा) मन को ज्ञान जल से नहलाकर साफ करता है और यह हाथी (मन) अपने उपर धूल डाल लेता है। महावत हाथी को नरम ‘कुश’ (घास) खिलाता है, तो उसकी मनमानी पर ‘अंकुश’ भी चुभोता है। उसी प्रकार योगेश्वर शिव यदि अभी परमपिता के रूप में बच्चों की ‘कुशलता’ चाहता है, तो समय आने पर विकर्मी-मनुष्यात्माओं के प्रति धर्मराज भी होगा।

आराधना की बजाय राजयोग-साधना

यदि एक सीमित साधन वाला लौकिक पिता अपने बच्चे को बेफिक्र व साधन संपन्न बना सकता है, तो सर्व मनुष्यात्माओं के परमपिता शिव से यदि अटूट संबंध जोड़ लिया जाए, तो मनुष्य को क्या प्राप्त नहीं हो सकता! इसमें दो राय नहीं कि विश्व में सर्वाधिक लाभप्रद योग उस पारलौकिक पिता से होता है, जो खुद आकर बच्चों को अपना परिचय देता है। आत्मा अपने लौकिक पिता के पास आकर जन्म लेती है, जबकि पारलौकिक परमपिता शिव तो खुद मनुष्यात्माओं के पास आकर युक्ति से उन्हें अलौकिक जन्म दिलाते हैं। एक अनाथ बालक को यदि यह पता चल जाए कि वह अनाथ नहीं बल्कि फलाने व्यक्ति का पुत्र है, तो उसे अपने पिता से मिलने की धुन लग जाती है। आज सबको यह पता है कि ईश्वर या भगवान उनका परमपिता है, परंतु बिरला ही कोई अपने परमपिता से संबंध स्थापित करने की धुन में दिख पड़ता है। वह तो प्रातः श्रद्धा से अपने इष्टदेव के सामने अगरबत्तियां जलाकर अपने नीरस जीवन में सुख-शांति ढ़ूंढ़ता रहता है। आराधना में याचक या भिखारीपने की मनोवृत्ति उसे न तो ईश्वरीय-बच्चा होने की खुशी देती है, न ईश्वर से योगयुक्त होने देती है और ना ही उसे ईश्वर से ज्ञान-गुण व शक्तियों की असीम आत्मिक सम्पदाएं प्राप्त होने देती है। तो ज़रुरत ‘आराधना’ की नहीं, बल्कि राजयोग की ‘साधना’ की है, जिससे कोई भी मनुष्य ईश्वर की समीपता व उससे समानता का अनुभव करते हुए आत्मिक-संपन्नता व बचे हुए जीवन में संतुष्टता प्राप्त कर सकता है।

ईश्वर से डरो नहीं, प्रेम करो

एक युवक को यह धुन लग गई कि वह योगी बनेगा। उसने सुन रखा था कि ऋषिकेश के पास पहाड़ियों में एक पहुंचा हुआ वृद्ध महात्मा रहता है, जिसे कई सिद्धियां प्राप्त हैं। वह उस महात्मा के पास गया। महात्माजी ने महसूस किया कि इस युवक का मन चंचल है अतः उसने योग सिखाने से पहले यह शर्त रखी कि वे पहले तलवार चलाना सिखाएंगे। युवक ने कहा कि मुझे कहीं युद्ध में तलवारबाजी तो करनी नहीं है, जो आप तलवार चलाना सिखाएंगे। जब महात्माजी अपनी बात पर अटल रहे तो युवक को मानना पड़ा। महात्माजी ने उसे एक लकड़ी की तलवार अपनी रक्षा के लिए दी और स्वयं भी लकड़ी की तलवार धारण कर ली। जब भी युवक लापरवाह दिखाई देता, महात्मा सामने से आकर उस पर वार कर देते और युवक कराह उठता। युवक जब चौकन्ना रहने लगा तो महात्माजी अगल-बगल से दबे पांव आते और उस पर प्रहार कर देते। युवक अब और ज्यादा जागरूक होकर उनके वार को अपनी तलवार से रोकने लगा। अब महात्माजी दबे पांव पीछे से आकर वार कर देते। युवक और भी ज्यादा चौकन्ना हो गया। अब उसे पीछे से आ रहे महात्मा का भी आभास हो जाता और वह बचाव कर लेता। उसका मन अब व्यर्थ की बातों में भटकने की बजाय केवल महात्मा की उपस्थिति पर एकाग्र रहने लगा। एक दिन युवक ने सोचा कि तलवारबाजी तो दोनों तरफ से होती है, अब एक बार मैं भी तो तलवार चलाऊं। उसके यह सोचते ही दूर बैठे महात्मा ने जोर से कहा, ‘नहीं बेटा, ऐसा मत करना, मैं वृद्ध हूं और चोट लगी तो मर जाऊंगा।’ युवक ने तलवार फेंक दी और महात्मा के चरण पकड़ लिए। महात्माजी ने कहा कि तेरा मन माया से मुक्त होकर मेरे में भयवश एकाग्र हो गया है, बस इसे शिव में प्रेमवश एकाग्र कर ले, तेरा योगी बनने का लक्ष्य पूरा हो जाएगा। यदि मैं तेरा प्रेम अपने से जोड़ने देता, तो तू ईश्वर को छोड़ मेरे से ही चिपका रहता। तो भय एक विकार होते हुए भी कभी-कभी ईश्वर की तरफ धकेलने का कार्य करता है। घनघोर जंगल से गुजरता हुआ एक नास्तिक भी शेर के भय से ईश्वर को याद करने लगता है। सांसारिक योग का बीज ‘भय’ है और ईश्वरीय योग का बीज ‘प्रेम’ है। भय है अपने धन व अपनों से बिछुड़ने की आशंका और प्रेम है ईश्वर से मिलने की आकांक्षा। कई धर्म यह कहते हैं कि ‘ईश्वर से डरो’ जबकि ईश्वरीय ज्ञान कहता है कि ‘ईश्वर से व उसकी रचना से प्रेम करो’।

ईश्वर की स्मृति हृदय का विषय है

निराकार शिव के बारे में मनुष्य कहते हैं कि जो अदृश्य है, बिन्दु है, उसे कैसे याद करें? तो फिर गर्भवती स्त्री अपने अनदेखे शिशु को कैसे याद करती रहती है? एक कन्या अपने अनदेखे भावी पति को कैसे याद करती है? विषम परिस्थितियों से बाहर आने के उपायों की अन्तः प्रेरणा कौन दे देता है? घोर संकट में फंसे एक नास्तिक को भी कैसे ईश्वर की याद आती है? एक नास्तिक किसी संत से तर्क कर रहा था कि ईश्वर तो एक कोरी कल्पना है। संत ने कहा कि तुम खुद ईश्वर को याद किए बिना नहीं रह सकते। तुम एक सप्ताह उसे बिल्कुल याद मत करना और तब मेरे पास आना। वह नास्तिक एक सप्ताह के बाद संत के पास आया और बोला कि आप ठीक कहते थे। ईश्वर को याद नहीं करने के प्रयास से वह और भी ज्यादा याद आया और अब मैं जीवन में पहली बार हल्का-तनावमुक्त महसूस कर रहा हूं। संत ने कहा कि ईश्वर इतना दयालु है कि उसके अस्तित्व को न स्वीकारने व उसे याद न करने के तुम्हारे प्रयास का भी उसने तुम्हें मीठा फल दिया है। रूस के नेता लेनिन कट्टर नास्तिक थे। फिर भी वे अक्सर ”ईश्वर ने चाहा तो” कहकर आशा व्यक्त किया करते थे, जो कि विरोधात्मक बात थी। ईश्वरीय याद मान्यता (आस्तिक या नास्तिक) का विषय नहीं बल्कि हृदय का विषय है और कोई भी नास्तिक मनुष्य ऐसा नहीं जिसने कभी न कभी ईश्वर को याद न किया हो या संकट में उसकी स्मृति में न टिका हो।

योगी का जीवन है बहुजन हिताए, बहुजन सुखाय

ईश्वर अर्थात् शिव और शिव अर्थात् जो सर्वोच्च-शक्ति है, सनातन है, जो ‘काल’ की परिधि से भी बाहर है और हमेशा से ‘है’। चूंकि शिव परम-कल्याणकारी है, ’सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय“ है अतः उससे योगयुक्त मनुष्यात्मा का जीवन भी ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के अनुरूप हो जाता है। चूंकि शिव निराकार व अव्यक्त है, अतः उससे योग कैसे लगाएं, यह सवाल खड़ा हो सकता है! इसका समाधान नाम, रूप और गुण, इन तीनों के आपसी संबंध के ज्ञान से होता है। यदि एक का वर्णन करें, तो बाकि दो स्वतः स्पष्ट हो जाते हैं। यदि श्रीकृष्ण का नाम लेते हैं, तो उसका रूप व उसके गुण स्वतः स्मरण हो आते हैं। उसी प्रकार जब सिर पर मोर-मुकुट, हाथों में मुरली का रूप बताते हैं, तो कृष्ण का नाम व गुण स्मरण हो आते हैं। जब 16 कला सम्पूर्ण, सर्व गुण संपन्न, देवी-देवताओं में सर्वश्रेष्ठ, इन गुणों का बखान करते हैं, तो पुनः श्रीकृष्ण का नाम व रूप सामने आ जाता है। उसी प्रकार यदि कहें चूड़ीदार पजामा, बंद गले का कोट, कोट पर गुलाब का फूल, सिर पर गांधी टोपी, तो जवाहरलाल नेहरू जी के नाम, गुण सामने आ जाते हैं। उसी प्रकार गुणों में सिंधु, रूप में बिंदु, सर्व के सद्गति दाता, ज्ञान-गुण व शक्तियों के सागर आदि कहने से ‘शिव’ का नाम व बिंदुरूप सामने आ जाता है या शिव नाम कहते ही शिवलिंग का रूप व उनके असंख्य गुण बुद्धि में कौंध जाते हैं।

मनोरंजन है पर खुशी नहीं

वर्तमान में इस धरा पर लगभग 730 करोड़ मनुष्य विहंगम दृश्य पेश कर रहे हैं। यहां भाग-दौड़, हंगामा, माया की चकाचौंध, विकारों का विस्फोट, वैज्ञानिकों की जादूगरी, अपराधियों का दुःसाहस, न्यायालयों के मेले, भक्तों की पुकार, राजनेताओं की मौकापरस्ती, रईसों की मौज-मस्ती आदि सब-कुछ चरम पर है। धार्मिक कार्य हो रहे हैं पर धर्म नहीं, सामाजिक सेवा कार्य चल रहे हैं पर नैतिकता नहीं, मनोरंजन के साधन हैं पर खुशी नहीं; संबंध निभाए जा रहे हैं पर त्याग भावना नहीं, शांति-सम्मेलन हो रहे हैं पर शांति नहीं, साधना हो रही है पर सिद्धि नहीं। ऐसे में ‘राजयोग’ का अमृत-कलश देकर परमपिता शिव सृष्टि का पुनरुद्धार कर रहे हैं। राजयोग द्वारा पुनरुद्धार है ब्रह्मा व शिव का कार्य, तत्पश्चात महाविनाश है प्रकृति व ड्रामा का कार्य।

राजयोग और महाविनाश

राजयोग ईश्वर से जुड़ना है, तो महाविनाश इस कलियुगी सृष्टि से छूटना है। योग से मनोरोगों व मनोविकारों का विनाश होता है, जबकि विनाश के नए व उन्नत साधनों से योग लगाकर विश्व महाविनाश के निकट आता जा रहा है। योग आत्मिक अशुद्धि को मिटाता है, तो महाविनाश 5 तत्वों की अशुद्धि को मिटाएगा ताकि पावन आत्माएं शुद्ध प्रकृति में देवी-देवताओं के रूप में प्रत्यक्ष हो सकें। चैतन्य-शाश्वत आत्माओं की देवरूप में प्रत्यक्षता हेतु एवं इस साकार लोक की शुद्धता हेतु, योग और महाविनाश दोनों ही आवश्यक हैं। जो मनुष्य अपनी आत्मिक पहचान का और परमपिता शिव के कर्त्तव्यों का अनुभव राजयोग की शिक्षा से कर लेंगे, वे अवश्यंभावी महाविनाश में सुरक्षित रह नई दुनिया ‘सतयुग’ के अधिकारी बन जाएंगे।

एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाये

कहावत है ’एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाये“ अर्थात् परिवार, घर, धन, स्वास्थ्य, गुरु, मान-सम्मान आदि सबको साधने में जीवन गुजर जाता है, परंतु हाथ कुछ नहीं लगता। यदि केवल एक ‘मन’ को साध लिया जाए, तो मन ‘ईश्वरीय साधना’ में सहयोगी बनकर सब कुछ प्राप्त करा सकता है। दूसरी कहावत यह भी है कि ”मन के साधे शिव सधें, सब साधे शिव जाये” अर्थात् मन यदि साध लिया जाए, तो यह बुद्धि के सहयोग से शिव को पहचान लेता है और उसकी साधना में टिक जाता है। चूंकि मनुष्य का मन नहीं सधा हुआ है अतः वह भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं को ईश्वर के रूप में साधते हुए मारा-मारा भटकता रहता है। द्वापरयुग से ‘मन’ को साधने के अथक प्रयास योगियों, ऋषि-मुनियों व विभिन्न साधकों ने किए हैं, परंतु मन को तो एक ऐसा केन्द्रबिन्दु चाहिए जिस पर वह समय-समय पर टिक कर शांति व ताजगी प्राप्त करता रहे। यह केन्द्रबिन्दु तो स्वयं निराकारी शिव हैं, जो ‘मनमना भवः’ का मंत्र देकर मन को अपने निराकारी बिन्दु-स्वरूप में टिकाने का ज्ञान व युक्ति मनुष्यों को देते हैं। जिस प्रकार मधुमक्खी कहीं भी उड़ती रहे, उसे छत्ता व रानी मधुमक्खी हमेशा याद रहते हैं, उसी प्रकार एक राजयोगी को बिन्दु-आत्माओं का छत्ता ‘परमधाम’ और वहां का रहवासी परमात्मा शिव हमेशा याद रहता है। सधे मन द्वारा आत्मा को ‘संपन्न व सम्पूर्ण’ बनाने का लक्ष्य और लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु ”राजयोग की पढ़ाई”, इनका ज्ञान तो परमपिता शिव के द्वारा ही मिलता है। आइए, राजयोगी बनकर अपनी आदी-मौलिक संपन्न व सम्पूर्ण अवस्था को प्राप्त करें।

X

आनंदमय और स्वस्थ जीवन आपसे कुछ ही क्लिक्स दूर है

सकारात्मकता, सुखी जीवन और प्रेरणा के अपने दैनिक फीड के लिए सदस्यता लें।