चोरी

चोरी

तन, मन अथवा धन से की हुई किसी भी भूल को छिपाना अथवा छिपाने की कोशिश करना 'चोरी' है। चोरी केवल धन की नहीं होती बल्कि तन और मन द्वारा किए गए अकर्त्तव्यों की भी हो सकती है।

मनुष्य-मनुष्य से अपना अकर्त्तव्य तभी छिपाता है, जब वह यह समझता है कि किसी को बताने से मेरी मानहानि होगी अथवा मुझे दण्ड मिलेगा। परंतु मनुष्य को यह याद रखना चाहिए कि दूसरों से छिपाने के बावजूद भी विकर्मों की सज़ा तो मिलती ही है क्योंकि जहां किसी की भी आंख न देखती हो, वहां धर्मराज की आंखें तो देखती हैं। धर्मराज, चोर को दिखाई नहीं देता (इसलिए धर्मराज को ‘चित्रगुप्त’ अर्थात गुप्त चित्र वाला भी कहा जाता है) परंतु धर्मराज तो चोर की चोरी को जानता ही है। इसलिए चोरी की आदत (टेव) वाले मनुष्य को चाहिए कि जब कभी भी अकर्त्तव्य करने का संकल्प उठे, उस समय यह चिंतन करे कि ‘हाय, मेरा अशुद्ध संकल्प तो धर्मराज के पास तत्क्षण पहुंच चुका है परंतु यदि मैं उसे वाचा और कर्मणा में नहीं लाऊगा और भगवान से छिपाने की कोशिश नहीं करूंगा, तो मुझ पर उसकी दया-दृष्टि और क्षमा-वृष्टि हो जाएगी।

यदि, किसी मनुष्य को कोई फोड़ा अथवा घाव हो और वह उसे छिपाता रहे, तो एक दिन वह घाव नासूर बन जाता है। उसमें से बदबू आती है। वह एक दिन मनुष्य के सर्वनाश का कारण बन जाता है।

अगर, कोई रोगी अपने रोग को प्रकट नहीं करता, तो उसका रोग पुराने एवं असाध्य रोग का रूप धारण कर लेता है, फिर एक दिन मनुष्य की जान लेकर ही जाता है। ऐसा ही परिणाम मन-वचन-कर्म की बीमारी अथवा अकर्त्तव्य या अपवित्रता को छिपाने से होती है। बीमारी को छिपाना अच्छा नहीं, बुरा है। गुप्त रोग को बताने से मान की जो हानि होती है, वह इतनी घातक नहीं होती जितनी कि न बताने के कारण बाद में वह हानिकारक सिद्ध होता है। जब उस रोग से सर्वनाश होने की स्थिति आ पहुंचेगी और बीमारी प्रकट हो जाएगी, तो सब कहेंगे कि इसमें इतना रोग था परंतु इसने बताया ही नहीं! इसलिए आध्यात्मिक सद्गुरु नाम का जो वैद्य परमात्मा शिव अथवा उसका जो साकार माध्यम है, उसको अपनी अवस्था की नाड़ी दिखाकर, विकारों का टैम्प्रेचर (तापमान) जांच कराकर अथवा अकर्त्तव्यों के लक्षण बताकर, ज्ञान की औषधि ले लेनी चाहिए। वैद्य से बीमारी छिपाने वाला और दाई अथवा मां से भूख छिपाने वाला मनुष्य बिना आई मौत मरता है। इसी प्रकार, अपनी आध्यात्मिक भूलें छिपाने वाला व्यक्ति भी पथ-भ्रष्ट हो जाता है।

गंदगी को छिपाकर रखने से बदबू आती है। गंदी जगह पर कोई भी मनुष्य बैठना नहीं चाहता। चोरी भी एक गंदगी ही तो है, जो कि और गंदगियों को भी इकट्ठा करती है। जिस दिन लोगों को यह मालूम हुआ कि तुम ऐसे चोर हो, तो तुम्हारे पास कौन बैठना पसंद करेगा? तुम्हारे हृदय में भगवान का शुभ नाम कैसे निवास कर सकेगा? इसलिए तुम जो अकर्त्तव्य को छिपाने का पुरुषार्थ करते हो, उसकी बजाय ज्ञान के झाड़ू से मन को साफ कर उसे मंदिर बनाने का पुरुषार्थ करो। तब तुम्हारे दुर्गुण, तुम्हारे लिए अपमान का कारण नहीं बनेंगे, बल्कि तुम्हें उन दुर्गुणों को निकालने का पुरुषार्थ करता हुआ देखकर, तुम्हारे लिए वे मान का कारण बन जाएंगे।

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