ऐसा क्यों? क्योंकि इस्लाम का कैलेंडर चांद पर आधारित है। चांद पर आधारित कैलेंडर के अनुसार एक साल में लगभग 354 दिन होते हैं, जबकि सूरज पर आधारित कैलेंडर के अनुसार एक साल में 365 दिन होते हैं। इसलिए इस्लामिक कैलेंडर की शुरुआत और अंत हमेशा अलग-अलग दिनों में होते हैं। रमज़ान साल के बारह में से नौवें महीने में मनाया जाता है और चूंकि साल की शुरुआत बदलती रहती है, इसलिए रमज़ान का महीना भी बदलते रहता है।
इस्लामी कैलेंडर यानि ‘हिजरी’ अरबी लोगों ने बनाया, लेकिन अरबी लोग तो गणित में निपुण थे। बीजगणित/अलजेब्रा शब्द भी अरबी भाषा से ही आते हैं। इसलिए लोग सोच में पड़ जाते हैं कि जो अरबी लोग गणित के इतने ज्ञानी थे, उन्होंने ऐसी भूल कैसे कर दी? एक मान्यता यह है कि उन्हें पता नहीं था कि रमज़ान का महीना कब आता है। कहते हैं कि रमज़ान के महीने में अल्लाह ने जिब्रील फरिश्ते के माध्यम से अपनी बातें मुहम्मद पैगंबर को बताईं। लेकिन, उन्होंने वह कौन से महीने में बताईं, वह किसी को नहीं पता था। इसलिए रमज़ान हर साल अलग-अलग ऋतु में आता है। इस्लामी कैलेंडर को जानबूझकर ऐसा बनाया गया है और यह कोई गलती नहीं है।
ऐसी भी मान्यता है कि इस्लाम के पहले मक्का-मदीना में लोग कई देवी-देवताओं की पूजा किया करते थे। इन देवी देवताओं में चांद और शुक्र ग्रह को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था। इसलिए आज भी ईद कब शुरू होती है, इसे निर्धारित करने में चांद की महत्वपूर्ण भूमिका है। चांद दिखने के बाद ही ईद मनाई जाती है। यूं माना जाता है कि हर सुबह जब शुक्र ग्रह मक्का में दिखाई देता है, तब पहली नमाज़ पढ़ाई जाती है। इस तरह मुसलमानों का दृढ़ विश्वास है कि चांद और शुक्र ग्रह का इस्लाम से संबंध है। इस कारण इस्लाम का चिह्न एक पंच कुंड तारा और एक वर्धमान चांद है। पंच कुंड तारा शुक्र का चिह्न है। इस चांद को ईद का चांद कहते हैं और यह कुछ ही समय के लिए आकर फिर चला जाता है।
लेकिन, यदि ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो यह चिह्न केवल इस्लाम का चिह्न नहीं है, जबकि इस्लाम का जन्म 1400 साल पहले हुआ था। इस चिह्न का प्रयोग केवल 400-500 साल पहले शुरू हुआ था। पहले टर्की के उस्मान राजवंशीय (ओटोमन) सुल्तानों ने इस्तांबुल में इस चिह्न को स्वीकार किया और आजकल इसे इस्लाम का चिह्न मानते हैं। लेकिन, इसके पहले यह चिह्न ईसाई धर्म का चिह्न था। इस्तांबुल के ईसाई राजा कॉनस्टनटीन इसका प्रयोग करते थे। आज भी कई देशों में ईसाई समूह इसका प्रयोग करते हैं। यहां पर पंच कुंड तारा को अष्ट कुंड तारा माना जाता है। अष्ट कुंड तारा को यीशु का चिह्न माना जाता है और चांद को माता मरियम के साथ जोड़ा जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह घटता हुआ चांद है और इसलिए यह जॉन द बैप्टिस्ट का प्रतीक है। इसका कारण यह है कि जॉन द बैप्टिस्ट ने कहा था कि जब उनकी प्रभा कम हो जाएगी, तब यीशु मसीह की प्रभा बढ़ेगी। इसलिए पूरा तारा यीशु का प्रतीक है और घटता हुआ चांद जॉन द बैप्टिस्ट का।
ईसाई धर्म के पहले यह चिह्न हमें प्राचीन यूनान में मिलता है, जहां पर यह आर्टेमिस और अपोलो इन दो भाई बहन का चिह्न है। चांद आर्टेमिस नामक देवी का चिह्न है। अपोलो सूरज है और इस तरह तारा सूरज का चिह्न है, ना कि शुक्र का।
वैसे हम देखते हैं कि इस्लाम में प्रतीकों के प्रयोग पर प्रतिबंध है, इसे शिर्क माना जाता है। प्रतीकों का इतिहास बहुत ही जटिल होता है और यह हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि मनुष्य प्रतीक क्यों चुनते हैं, संभवतः अपनी पहचान बनाने के लिए या अपने ध्वज पर लगाने के लिए।