बुनियादी आध्यात्मिक बातों की दोहराई से ऊब क्यों

बुनियादी आध्यात्मिक बातों की दोहराई से ऊब क्यों?

कुछ लोग कहते हैं कि 'दो-चार अथवा दस-बीस बार अथवा तीन-चार वर्ष ज्ञान सुनने के बाद यह तो मालूम हो ही जाता है कि आत्मा क्या है, परमात्मा का परिचय क्या है और हमें कर्म कैसा करना चाहिए आदि-आदि।

तब प्रतिदिन ज्ञान सुनने के लिए जाने का क्या लाभ? प्रतिदिन की ज्ञान-चर्चा में भी प्रायः वही मन्तव्य और सिद्धांत ही तो प्रतिपादित किए गए होते हैं, तब उनको रोज-रोज सुनकर तो मनुष्य बोर हो जाता है।’

वही-वही खाद्य-पदार्थ प्रतिदिन

वास्तव में उनका ऐसा सोचना गलत है। यों तो मनुष्य प्रतिदिन जो भोजन करता है, उसमें रोटी-पानी, नमक-मिर्च, चीनी-चावल तो वही-के-वही ही होते हैं। हां, कुछ सब्जी और कुछेक चीजें बदल दी जाती हैं, परन्तु फिर भी आटा, नमक, दूध, चीनी जैसी बुनियादी चीजें तो वही ही रहती हैं क्योंकि वे शारीरिक बल, स्वास्थ्य, सुदृढ़ता और स्थायित्व के लिए आवश्यक हैं। शायद ही कभी वह उनके लिए कहता हो कि ‘मैं रोज-रोज रोटी खाकर या दूध पीकर बोर हो गया हूं।’ ऐसा कह कर यदि वह भल्ले-पकौड़ी या लड्डू-बर्फी या ढोसा-इडली खा भी ले तो भी रोटी और दूध के महत्व को तो वह मानता ही है। इसी प्रकार, जो ईश्वरीय ज्ञान हम प्रतिदिन सुनते हैं, उसमें भी कुछ बुनियादी सिद्धांत और मौलिक धारणाएं जैसे कि ‘आत्माभिमानी बनो’ और ‘निराकार बाप को याद करो’ आदि का हर दिन आध्यात्मिक भोजन में सम्मिलित होना हमारे आत्मिक स्वास्थ्य, सौन्दर्य, स्थायित्व और बौद्धिक सुदृढ़ता के लिए आवश्यक है। परिवर्तन की दृष्टि से भी हमारे यहां समय-समय पर नए-नए कार्यक्रम बनते ही रहते हैं। अतः यह कहना कि हम प्रतिदिन वही-वही बातें सुनते-सुनते बोर हो जाते हैं, बुनियादी आध्यात्मिक तत्वों की आध्यात्मिक पौष्टिकता के महत्व को न जानना है।

रोग-निवारण की दृष्टि से

इसी बात पर एक अन्य दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है। मान लीजिए कि कोई व्यक्ति बीमार है। उसे डॉक्टर एक औषधि देता है। उस औषधि का 40 दिन का या एक वर्ष का कोर्स है। रोगी उस औषधि को लेता है। क्या वह डॉक्टर को यह कहता है कि ‘डॉक्टर साहब, इस औषधि को लेते-लेते तो मैं बोर हो गया हूं।’ जबकि रोग पुराना है, उसकी वही औषधि है और उसका लम्बा कोर्स है, तब बोर होने का प्रश्न ही कहां उठता है?

पढ़ाई में पुनरावृत्ति की आवश्यकता

फिर, यह तो सर्वोच्च विद्या है। पढ़ाई में दुहराई या पुनरावृत्ति को तो विशेष महत्व माना ही गया है। बच्चों को पाठ याद कराने के लिए उनसे बार-बार पाठ दुहरवाया जाता है। ऐसा ही इस ईश्वरीय विद्या के अध्ययन में भी ज़रूरी है। इसमें तो लौकिक विद्या से भी यह अधिक आवश्यक है क्योंकि इसमें बहुत-से पाठ उलटे पढ़ लिए गए हैं। उन उलटे पाठों को भुलाने या ईश्वरीय पाठों में संशय उत्पन्न करने के जो कारण प्रायः उपस्थित हो जाते हैं उनके निवारण के लिए बार-बार दोहराई आवश्यक है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य ने बहुत जन्मों से यह उलटा पाठ याद कर रखा है कि ‘मैं शरीर हूं।’ अतः अब एक ओर इस संस्कारभूत पाठ को भुलवाना और दूसरी ओर, ‘मैं आत्मा हूं’ का पाठ याद कराना अत्यंत कठिन है। फिर अनेक ऐसे लोग भी प्रायः मिल जाते हैं जो यह कहते हैं कि ‘आत्मा-वात्मा कुछ नहीं है, यह तो धार्मिक लोगों ने यों ही बहका रखा है।’ ऐसी सूरत में बार-बार आत्मा निश्चय में स्थित करने के लिए दुहराई का महत्व तो स्पष्ट ही है। इस पर भी प्रतिदिन ऐसी परिस्थितियां जीवन में उपस्थित हो जाती हैं, जो मनुष्य को देह-भान और देहाभिमान में लाती हैं और एक बार या 10-20 बार का पढ़ाया हुआ वह पाठ लुप्त-सा हो जाता है। उसे पुनः आचरण में लाने के लिए बार-बार उसकी पुनरावृत्ति करने के सिवा दूसरा कोई तरीका ही नहीं है। जब तक कोई पाठ पक्का नहीं हुआ तब तक तो उसका अध्ययन और अभ्यास ज़रूरी ही है। उसके बिना तो रहा-सहा भी भूल जाएगा।

गूढ़ (गुप्त) अर्थ अथवा नवीन रहस्य

मनुष्य का स्वभाव है कि वह जब किसी बात को सुनता है या किसी सिद्धांत का अध्ययन करता है, तब उसका ध्यान, उसके सभी पहलुओं पर नहीं जाता या वह उसकी समूची गहराई अथवा ऊंचाई को एक ही प्रयास से नहीं जान सकता। वह जब-जब उस पर पुनर्विचार करता है, तब-तब उसे उसका कोई नया ही रहस्य या रस मिलता है। इसी स्वभाव के अनुसार, यदि हम किन्हीं ईश्वरीय वाक्यों को फिर-फिर सुनते भी हैं, तो भी उनका सर्वतोमुखी बोध हमें एक बार ही में नहीं हो जाता, उन पर हम हर बार नवीन पहलू से विचार कर सकते हैं। यदि हम बोर हो जाते हैं, तो उसका कारण यही होगा कि हमें अनेक प्रकार से किसी विषय का चिंतन करने का अभ्यास नहीं है। सेब को वृक्ष से गिरते हुए तो कई जनों ने देखा होगा, शायद न्यूटन ने भी पहले कई बार देखा होगा, परन्तु एक बार जब देखते ही उसने उसके गिरने के कारण पर चिंतन किया तो एक बहुत बड़ा सिद्धांत उसके हाथ लग गया। इसी प्रकार हम चलते तो प्रतिदिन हैं परंतु कैसे चलते है? इसकी वैज्ञानिक व्याख्या हमें मालूम नहीं है जबकि एक वैज्ञानिक ने इसकी सही व्याख्या ढूंढ़ निकाली वर्ना यदि सामान्य मनुष्य से पूछा जाए कि ‘हम कैसे चलते हैं?’ तो वह यही कहेगा, ‘यह भी कोई पूछने की बात है?’ क्योंकि उसे इसका आधारभूत नियम ज्ञात नहीं है। अतः बार-बार देखी और सुनी हुई बातों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। हम प्रतिदिन अपने कमरे में जाते हैं, वहां बैठे भी रहते हैं परंतु कमरे की हर दीवार के हर इंच पर हमारा ध्यान नहीं जाता। अचानक से कभी किसी ओर जब ध्यान जाता है तब हम कहते हैं, ‘कमाल है, मैं तो इसे रोज देखता रहा परंतु इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था।’

एक बार नहीं, बार-बार

क्या सुनार सोने को पिघलाकर उससे उपयोगी चीजें बनाने के लिए तब तक उस पर अपना कार्य नहीं करता जब तक कि वह उसे सही रूप नहीं दे देता। क्या कुम्हार मिट्टी को तब तक अपने चाक पर बार-बार घुमाकर थप-थप नहीं करता, जब तक कि उसे शीतल जल देने वाला घड़ा-सुराही या प्रकाश देने वाला दीपक न बना दे। इसी प्रकार, किसी नाचीज को चीज़ बनाने के लिए सदा किसी क्रिया को बार-बार दोहराना ही पड़ता है।

जन्म-जन्मांतर की कमाई का साधन

हम देखते हैं कि मनुष्य नित्य प्रति तैयार होकर अपने ऑफिस या दुकान की ओर चल पड़ता है। प्रति दिन वह अपनी दुकान पर पड़े हुए 10-20 सौदे ही बेचता रहता है। ऑफिस में भी वर्षों तक एक ही प्रकार का कार्य करता रहता है। दो-चार वर्ष काम करने पर वह यह नहीं कहता कि मैं तो बोर हो गया हूं क्योंकि उसे मालूम है कि इस काम में कमाई है। कितनी ही महिलाएं हर रोज खाना बनाती हैं, हर रोज कपड़े धोती हैं क्योंकि ये जीवन के आवश्यक कार्य हैं। जीवित रहने के लिए ये ज़रूरी हैं। हम हर रात्रि को सो जाते हैं, यह क्यों नहीं कह देते कि रोज-रोज सोकर हम तो बोर हो गए हैं? हम जानते हैं कि यह तो जीवन के लिए ज़रूरी है। तो जो कार्य जीवन के लिए आवश्यक हो, उसमें बोर होने की बात कहां रही? रोज स्नान करना, दांत स्वच्छ करना आदि इनसे क्या हम कभी बोर होते हैं? रोज धनोपार्जन का कार्य करना, क्या यह हमें अरुचिकर है?

दक्षता, कुशलता और शक्ति-वृद्धि

वास्तव में हम जो कार्य बार-बार करते हैं उसमें हम अधिक कुशल होते हैं। उसमें हमारी कार्यक्षमता अथवा दक्षता बढ़ जाती है। हमें आत्म-निश्चय में भी दक्ष होना है, तब इसका पाठ भी तो पुनरावृत्त करना होगा। एक पहलवान अपने पुट्ठों को मजबूत करने के लिए बार-बार ही तो व्यायाम करता है। अतः हमारे ज्ञान-संस्कारों को सुदृढ़ करने के लिए भी योगाभ्यास और ज्ञानाभ्यास आवश्यक है।

इस प्रकार कितने ही तरीकों से यह बात समझी जा सकती है कि जो सर्वश्रेष्ठ ज्ञान हमें सर्वोच्च शिक्षक परमपिता परमात्मा प्रतिदिन देते हैं, उसमें जो कुछ भी दुहराया जाता है, वह अत्यंत आवश्यक है, वह आत्मिक स्नान के लिए जल है, आत्मा के लिए पुष्टीकारक दूध है, बुद्धि को दिव्य बनाने के लिए व्यायाम है, मन को संयमित करने के लिए अभ्यास है, विकारों रूपी रोग को शांत करने के लिए औषधि है।

वास्तव में आज मनुष्य का मन बहुत ही चंचल हो गया है। वह एकरस अवस्था में न टिककर, कई रसों के पीछे भागता है। उसे चैन नहीं है। नित्य नई चीजें देखने, सुनने और पढ़ने की उसे आदत हो गई है। इसलिए वह चटपटी और नई सामग्री ढूंढ़ता है परंतु ईश्वरीय ज्ञान का तो लक्ष्य ही अनेकता अथवा भटकने से निकाल कर एकरस अवस्था में स्थिर करना और चंचलता को समाप्त करना है। फिर भी इसमें दिव्य प्रकार की सूक्ष्मता और नवीनता तो होती है। योग है ही अनुशासन का नाम। योगी तो मन को अनेक ओर से हटाकर एक ओर ले आता है और उसे स्थिर करता है। इसलिए जिसके मन को इधर-उधर घूमने की आदत पड़ी है, वह स्थिर होना नहीं चाहता, परंतु यदि उसे स्थिर होने का रस आ जाए तो फिर वह भी इस सर्वोत्तम रस से बोर नहीं होगा। इस सर्वोत्तम रस का रसास्वादन कर पाने के लिए ही दोहराने की आवश्यकता है और इसी में ही आत्मा का कल्याण है।

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