आनंद

अद्वैत का आनंद

कहा जाता है, उत्सवप्रियाः जनाः। मनुष्यात्मा मूलतः सत्य है, चैतन्य है और आनंद-स्वरूप है। जीवन में आनंद है, तो जीवन सरस अनुभव होता है। स्व से लेकर सर्व में मानव को आनंद चाहिए। आध्यात्मिक जीवन में भी आनंद की अनुभूति बनी रहती है, तब हम जीवनभर आध्यात्मिक बने रह सकते हैं।

सच्चा आनंद है अन्तर की अनुभूति में

विचारणीय बात है कि अधिकतर संन्यासी, महात्माओं के नाम में ‘आनंद’ शब्द सम्मिलित होता है, जैसे कि स्वयं के स्वरूप में आनंद अनुभव करने वाले निजानंद, आत्मानंद, स्वरूपानंद गाए जाते हैं। धर्म, अध्यात्म में आनंद अनुभव करने वाले धर्मानंद, अध्यात्मानंद, परमानंद, तदरूपानंद कहे जाते हैं। सत्य, पवित्रता, ज्ञान में आनंद की अनुभूति करने वाले सच्चिदानंद, सत्यमित्रानंद, विशुद्धानंद, निश्चलानंद, मुक्तानंद आदि नामों से पुकारे जाते हैं। संन्यस्त जीवन वैराग्य, त्याग, तप तथा उपरामवृत्ति का प्रतीक है। अधिकतर लोग इस प्रकार के जीवन को नीरस, शुष्क तथा असहज समझते हैं, परन्तु नाम उन्हों के ‘आनंद’ शब्द से युक्त हैं। इससे स्पष्ट है कि सच्चा विवेकपूर्ण आनंद अंतर् की अनुभूति में है, स्वयं के सत्य स्वरूप में है, न कि बाह्य व्यक्ति, वस्तु, स्थान या क्रिया में है।

कार्यपरायण होने पर आती है कार्यकुशलता

हम सब अपने अनुभवों को भी देखें, जब भी किसी कार्य में हम एकाकार हो जाते हैं, तो उसमें आनंद अनुभव होता है। आधे-अधूरे मन से कार्य करते हैं, तो आनंद नहीं आता है। हमें उस कार्य से तद्रूप होना होता है। जब तक हमें अपने आपमें, अपने प्रत्येक कार्य में आनंद नहीं आता है, तब तक हम उस कार्य को लम्बे काल तक या आजीवन नहीं कर पाते हैं। कार्य जब अनमने से यानि कि भारी होकर करते हैं, तो उस कार्य में अनेक प्रकार की त्रुटियां रह जाती हैं और अततः परिणाम वांछित सफलता का नहीं आता है। कार्य में परायण होते हैं, तब कार्यकुशलता भी आती है और हमारा कर्म प्रशंसनीय, महिमा योग्य और उदाहरणरूप बन जाता है। यथार्थ विधि और रीति से कार्य करने पर ही खुशी होती है और बार-बार करने का उमंग आता है।

परमात्मा में अनन्य भाव से मिलता है अतीन्द्रिय सुख

भक्त भी भक्ति करते समय जब तक मन से भटकते रहते हैं, उन्हें मज़ा नहीं आता है। भले ही वे बाह्य रूप से क्रियाकांड करते रहते हैं, परंतु आत्मतुष्टि नहीं पाते हैं। जब परमात्मा से लगन लग जाती है, परम याद-प्यार में अनन्यभाव आ जाता है, तब ही हमें अतीन्द्रिय आनंद और ईश्वरीय सुख का अनुभव होता है, फिर दुनियावी सुख फीके लगने लगते हैं। इसीलिए भक्ति में भी अव्यभिचारी भक्ति, नौधा भक्ति गाई हुई है। भक्त अपने अस्तित्व को पूर्णतया परमात्मा प्रित समर्पित कर देता है, तब उसे साक्षात्कार होते हैं। तब उनके आराध्य, उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। प्रभुस्मृति के समय दैहिक, इहलौकिक सुधबुध से परे होकर परम रस में हम जब तक रम नहीं जाते, तब तक उच्च स्तरीय साधना की स्थिति नहीं बनती है। साधना की उत्कृष्टता में ही मौलाई मस्ती का, इलाही सुख का अनुभव होता है।

ऐक्यभाव से आनंद

भारत का इतिहास अनुभवसिद्ध भक्तों, संतों, योगियों के दिव्य चरित्रों से भरा हुआ है जैसे कि कबीर, सूरदास, रैदास, रहीम, तुलसीदास, मीराबाई, नरसिंह महेता, तुकाराम, ज्ञानदेव, अक्क महादेवी, तिरूवल्लूवर आदि-आदि अपने इष्ट से एकरूप हो गए। जब ऐक्यभाव बना तब आनंद में नाच उठे। भावातिरेक अवस्था में ही अनहद आनंद को प्रप्त हुए। उन्हें परिवार और समाज की तरफ से मिले हुए सितम भी प्रसाद अनुभव हुए। विरोध और अत्याचार की परिस्थितियों में भी वे हारे नहीं और ही अपने लक्ष्य के प्रित तीव्रगति से अग्रसर हुए। आंतरिक विचारों का, भावों का, भावनाओं का तादात्म्य जब परमात्मा से सध जाता है, तब स्वतः हमारे में सहनशीलता, निर्भयता, धीरज, स्थिरता आदि की धारणा हो जाती है। भक्ति के आदिकाल में हुए ऐसे ऋषि-मुनियों ने जब परमात्मा से अद्वैत रचाया, तब ही उनमें सृजनशीलता के, रचनात्मकता के नवीन विचार उत्पन्न हुए और नए-नए विचार दुनिया के आगे प्रस्तुत किए। एक वैज्ञानिक भी अपने संशोधन कार्य में खो जाता है, तब सत्य प्रप्त करता है और खुशी में फूला नहीं समाता है। उसे दुनियावी मान-शान, मौज-मजा का आकर्षण नहीं रहता है। हम कह सकते हैं कि ऐसे संशोधन कार्य में लगे हुए वैज्ञानिक भी एक प्रकार से तपस्वी हैं, साधक ही हैं, जो प्रकृति के पांच तत्वों प्रित एकाग्र होते हैं, सत्यान्वेषण करते हैं और प्रकृति जगत के राज़ को उजागर करते हैं। आज मानव समाज को सुख-सुविधा के अनेकानेक साधन जो उपलब्ध हुए हैं, वे हमारे वैज्ञानिकों की साधना का ही फल हैं। अगर, वे अपने संशोधन कार्य में, प्रयोगशाला में, प्रयोग करने में अपना संसार नहीं समझते और उसमें रच-बस नहीं जाते, तो जीवन इतना सुविधाजनक नहीं बनता।

विविधता में भी है आनंद

हमारे आपसी संबंधों में, परिवार-समाज में, संस्था-संगठनों में एकता होती है, तभी हम मिलजुल कर विचार कर पाते हैं। संसार तो विविधता से भरा हुआ है। सृष्टि-खेल में मनुष्य के साथ पशु-पंछी, जीव-जंतु, वृक्ष-लताएं भी हैं। हरेक की अपनी सुंदरता है। इस विविधता में तालमेल बना रहता है तभी इस खेल में सुख-आनंद अनुभव होता है। जब इनकी पारस्परिक संवादिता बिगड़ती है, तब इस भौतिक जगत के जीवन में दुख-तकलीफ शुरू होते हैं। भले ही हम जीवात्माएं भिन्न-भिन्न स्वभाव-संस्कार वाले हैं, परन्तु इस वैविध्य में ही आनंद है। हम सभी एक ही प्रकार के नमूने होते, कार्बन कॉपी होते तो सोचो, क्या अच्छा लगता? कितना नीरस और उलझाने वाला खेल हो जाता? लेकिन विविध नाम, रूप, गुण, कर्म वाले होने पर भी, जब हमारे आंतरिक आत्म-स्वरूप के मूलभूत-शांति, आनंद, प्रेम, ज्ञान, शक्ति आदि गुणों के आधार पर सामंजस्य बनता है, जब हमें एक-दो से सहयोग, साथ, शक्ति मिलती है और फिर हम मुश्किल कार्य भी सहज संपन्न कर लेते हैं। एक अकेला तो सब कुछ नहीं कर सकता है। जहां भी मानव और प्रकृति के बीच या मानव और मानव के बीच भावों में, विचारों में, उद्देश्यों में, कार्य-पद्धति में ऐक्य और न्यायोचित समानता रहती है, वहां कार्य की संपन्नता और सफलता का आनंद अनुभव होता है।

संस्कार मिलन का सुख

हमारे पारिवारिक जीवन में संस्कारों की रास मिलती है, तभी तो सुख का अहसास होता है। शारीरिक रूप से सभी साथ रहते हैं, परन्तु जब मनोमिलन नहीं होता तब संबंध बंधन लगते हैं, घर समरांगण बन जाता है और परिवार-समाज जंजीर महसूस होते हैं। ये सब आनंददायी, उत्साहवर्धक, शक्तिदायक तभी ही लगते हैं, जब आपसी मेलमिलाप होता है। जब किसी भी कार्य से संबंधित हमारी आपसी अद्वैत मत होती है, मनमेल होता है तभी हर हाल में आनंद अनुभव होता है। हमारे जीवन का बाह्य-भौतिक हाल साधारण हो तभी भी अंतर के ऐक्य के आधार पर ही हम आनंदविभोर रहते हैं।

दिखावट, बनावट बना देती है असहज

हमारे अपने आंतरिक व्यक्तित्व में भी जब तक द्वन्द्व है तब तक तनाव, अशांति, मूंझने की स्थिति बनी रहती है। हम सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ और हैं और करते कुछ तीसरा हैं, तो हम खुद ही खुद से संतुष्ट और प्रसन्न नहीं रहते हैं। तो हमारी कथनी-करनी में, हमारे विचार-वाणी-व्यवहार में समानता, अंदर-बाहर एकरूपता ज़रूरी है। जहां दोहरापन है वहां फिर दिखावट, बनावट स्थान लेने लगती है और ये हमारे आंतरिक असली शुद्ध, सत्य आत्मस्वरूप के विपरीत है। इसलिए फिर हम सहज नहीं रह पाते हैं।

सत्य के साथ एकमत हो जाएं

हम आत्माएं चूंकि अपने मूल स्वरूप से सत्य हैं, शुद्ध हैं, अविनाशी हैं इसलिए जब तक सत्य के आधार पर, शुद्ध विधि से सदाकाल के लिए प्रप्ति नहीं होती तब तक हम सदाकाल के सुख-आनंद का अनुभव नहीं कर पाते हैं। सत्य ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर ही हम अपनी अद्वैत स्थिति रच सकते हैं। भले ही हमारी व्यक्तिगत मत, राय, मान्यता भिन्न होती है, परंतु सत्य के साथ हमें एकमत हो जाना चाहिए और निर्विकल्प होकर स्वीकार कर लेना चाहिए। वहां अपना अहम बीच में न लाकर सत्य पर मतैक्य बना देना चाहिए। दो सुंदर-सही विचारों में से बहुमत से कोई एक मत को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। बेशक अंधश्रद्धा और अज्ञान न हो परन्तु व्यर्थ का तर्क-वितर्क या वादविवाद भी समय, शक्ति को बर्बाद करते हैं। अद्वैत स्थिति बनने से दृढ़ता और शक्ति से कार्य सम्पन्न कर सकते हैं।

आओ, हम सब एकमत, एकव्रता बन अद्वैत भाव और स्थिति का आनंद लेते हुए एकरस बनें।

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