अध्यात्म

अध्यात्म-गलतफहमी से दूर, सच्चाई की ओर…

युवावस्था में सीखी हुई आध्यात्मिक पढ़ाई के बल से उसका व्यवहार जीवन भर शांति, प्रेम, सहयोग व सहनशीलता से भरपूर रहेगा।

मनुष्य उत्तम नागरिक बने और समाज की सारी व्यवस्थाएं सुचारु रुप से चलती रहें, उसके लिए अलग-अलग विषयों पर शिक्षण दिया जाता है, जैसे कि वैद्यकीय, ईंजिनीयरिंग, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, गणित, प्राणिशास्त्र, कृषिविज्ञान आदि-आदि। लेकिन, एक विषय, जो सदियों पहले भारतीय संस्कृति की नींव था, वह कहीं भी पढ़ाया नहीं जा रहा है, न ही उसके बारे में कोई जानना चाहता है, वह है अध्यात्म, जो कल्पना व अंधश्रद्धा की धूल में दब चुका है।

अध्यात्म का इतना अनादर क्यों हुआ है?

अध्यात्म का वास्तविक अर्थ, उसका प्रयोग व उससे होने वाले लाभों के बारे में यर्थाथ रीति से कोई जानते नहीं हैं। सैकड़ों दार्शनिकों ने, विचारवादियों ने, भक्त आत्माओं ने अपनी-अपनी रीति से ही उसका वर्णन किया। उस वर्णन से अध्यात्म का वास्तविक रुप लुप्त होकर गलतफहमियों ने स्थान ग्रहण कर लिया और अध्यात्म के सुंदर रुप को विकराल बना दिया गया। आमतौर पर लोग समझते हैं, मंदिरों में जाकर देवताओं के सामने अपनी मांग रखना, मांग पूरी न होने पर भगवान को धन, सोना-चांदी, कपड़े, प्राणिबलि आदि का लालच दिखाना, पूजा-पाठ द्वारा भगवान को प्रसन्न करने का प्रयत्न करना, विधिपूर्वक पूजा न करने पर भगवान से श्रापित होने का डर रखना, इन बातों को ही अध्यात्म कहा जाता है। वास्तव में ये बातें भक्ति से संबंधित रिवाजें हैं, न कि अध्यात्म से। अन्य कुछ लोग समझते हैं, घर-परिवार, कार्य-व्यवहार, खुद की जिम्मेदारियां, समाज आदि का त्याग कर जंगल में या पहाड़ियों पर जाकर रहना या लंबे बाल रखकर, दाढ़ी-मूंछ बढ़ाकर गांव-गांव भटकते रहना, अपनी परवरिश के लिए दूसरों पर निर्भर रहना, यह अध्यात्म है लेकिन नहीं! ये सारी संन्यास मार्ग से संबंधित बातें हैं, न कि अध्यात्म की। कई ऐसे भी समझते हैं कि गरीबों की सेवा करो, उनको दान दो, इससे बढ़कर कोई अध्यात्म नहीं है। औरों की सेवा करना सर्वश्रेष्ठ कर्म तो है ही परंतु अध्यात्म इससे कुछ अलग विषय है।

अध्यात्म का एक अभिप्राय यह भी लिया जाता है कि मनुष्य का वृद्धावस्था में अपनी जिम्मेदारियां बच्चों के हाथ थमाकर तीर्थयात्रा पर निकल जाना या आश्रमों में जाकर रहना, भजन-कीर्तन में बचा हुआ जीवन बिताना लेकिन यह वानप्रस्थ है, न कि अध्यात्म। मनुष्य जब साठ साल की उम्र पार करता है तब शरीर, मन व बुद्धि की कार्यक्षमता क्षीण होती जाती है जिससे विघ्नों का सामना करने में और विविध संबंधों को समाने में वह अशांति व उद्वेग का अनुभव करता है। इसलिए, इस उम्र के बाद विश्राम या वानप्रस्थ लेने की सलाह दी जाती है। वानप्रस्थ अर्थात् वन की ओर प्रस्थान। समाज में कुछ ऐसे भी भयानक लोग हैं, जो समझते हैं कि श्मशान में जाकर रहना, रिद्धि-सिद्धि करना, भूतों को वश में कर लेना, यह अध्यात्म है। बिल्कुल भी नहीं, इसे तो क्षुद्रविद्या कहते हैं, जो वास्तव में समाज में वर्जित है। अध्यात्म तो सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है।

इस तरह, अध्यात्म के बारे में समझी गई कई गलतफहमियों के कारण इसका सही अर्थ और उद्देश्य लुप्त होकर यह एक निरुपयोगी व भय उत्पन्न करने वाला विषय बन चुका है। इसलिए ही बच्चों को और युवकों को आध्यात्मिक बातों से दूर रखते हैं। सोचते हैं, युवक अगर अध्यात्म के मार्ग पर चलने लगे तो लौकिक जिम्मेवारियां निभा नहीं सकेंगे, सुबकुछ छोड़ चले जाएंगे आदि-आदि। इसलिए, उसको केवल जीवन के अंतिम काल के ही योग्य समझ बैठे हैं। यह गलतफहमी ही भौतिकवाद अशांति, अतिवाद, हिंसा, संबंधों में अस्थिरता व मानसिक बीमारियों का प्रमुख कारण है।

आखिर अध्यात्म है क्या?

संस्कृत में अधि का अर्थ है शासक या शासन करने वाला, जैसे कि अधिकारी, अधिपति, अधिदेव, अधिनायक आदि। आत्म का अर्थ है स्वयं या मैं। इन दोनों का संयुक्त रुप है अध्यात्म अर्थात् शरीर में बैठकर कर्मेंद्रियों पर शासन करने वाला मैं आत्मा। आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात् मैं कौन हूं, मेरे गुण कौन-से हैं, मेरी शक्तियां क्या-क्या हैं, मेरी कलाएं कौन-सी हैं, और मेरा कर्तव्य क्या है? इन विषयों को जानना। मैं कौन हूं? इसका उत्तर है, मैं आत्मा हूं। मैं शरीर नहीं लेकिन शरीर द्वारा कर्म कराने वाली चैतन्य शक्ति हूं, शरीर मेरा रथ है। आत्मा के सात मूल गुण हैं- ज्ञान, शक्ति, प्रेम, आनंद, पवित्रता, सुख और शांति और आठ मूल शक्तियां भी हैं- सहन करने की, समाने की, परखने की, निर्णय लेने की, सहयोग देने की, समेटने की, संकीर्ण करने की और सामना करने की शक्ति। आत्मा की विशेष पांच प्रकार की कलाएं हैं, हर संकल्प-बोल व कर्म से किसी को दुख नहीं देना बल्कि सुख ही देना, हर व्यक्ति की विशेषताओं को देखना, अकल्याण के पीछे छिपे हुए कल्याण को पहचानना और स्वयं संतुष्ट रह, औरों को संतुष्ट करना।

आध्यात्मिक साधना क्या है?

जिनका जीवन सद्गुणों, नैतिक शक्तियों व कलाओं से भरपूर है, जो हर कदम पुण्यकर्म करते हैं, सदा औरों को सुख देते हैं, उनका ही सफल जीवन कहा जाता है, वे समाज के लिए आदर्श व्यक्ति माने जाते हैं और जिनका जीवन, तृष्णा, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, लालसा, मिथ्या अंहकार, रीस करना, बदला लेना आदि दुर्गुणों से भरा रहता है उनके जीवन का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है, वे समाज से वर्जित हो जाते हैं। तो, आध्यात्मिक साधना वह है जो दुर्गुणों को नियंत्रण में रखने की शक्ति प्रदान करे, साथ-साथ सद्गुणो, नैतिक शक्तियों व कलाओं को धारण करने में मनुष्य को सशक्त बनाए ताकि परिवार और समाज के साथ उसका मधुर संबंध बना रहे व उनके प्रति वह उपयोगी रहे।

क्या आध्यात्मिक साधना करने के लिए जंगल में जाना पड़ता है?

नहीं, यह सबसे बड़ी गलतफहमी है। डाक्टरी, इंजिनियरिंग, विज्ञान या अन्य कोई भी प्रकार की पढ़ाई पढ़ने वाले, पढ़ाई करने के लिए या उसके बाद क्या अपनी परिवार छोड़कर जंगल में चले जाते हैं? नहीं। पढ़ाई, परिवार को संभालने के लिए की जाती है, छोड़कर जाने के लिए नहीं। वैसे ही अध्यात्म भी, एक उन्नत स्तर की पढ़ाई है, जो जीने की कला सिखाती है, न कि छोड़कर जाने की कला। साधक, अगर जंगल चला जाएगा तो क्या अपने अंदर जागृत होने वाले सद्गगुणों, नैतिक शक्तियों व कलाओं को जंगल के पत्थरों या कांटों पर प्रयोग करेगा? उसकी साधना का लाभ क्या जंगल के प्राणी उठाएंगे? नहीं ना। एक दार्शनिक ने कहा है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, मिलकर जिंदगी जीना ही उसका गुणधर्म है जिसका आधार इंसानियत है और इंसानियत का संस्कार आध्यात्मिक शिक्षा से ही जागृत होता है।

क्या आध्यात्मिक शिक्षा लेने से सांसारिक कारोबार में रुचि कम हो जाती है?

बिल्कुल नहीं बल्कि जीने का उमंग-उत्साह और भी बढ़ जाता है। एक होता है सात्विक उमंग-उत्साह जो प्रेम, दया, शांति, पवित्रता, सहनशीलता आदि सकारात्मक विषयों की धारणा से प्रकट होता है और एक होती है तामसिक उत्तेजना, जो अश्लीलता, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि अवगुणों से उत्पन्न होती है। इस उत्तेजना से, स्वार्थ से भरी इच्छाएं पूर्ण होने के कारण अल्पकाल का आसुरी आनंद मिलता है, जो वास्तव में बहुतकाल के दुख का कारण बनने वाला होता है क्योंकि ये सारी बातें हिंसा से जुड़ी हुई हैं। लेकिन, इस उत्तेजना को ही सांसारिक आनंद समझने के कारण मनुष्य, सात्विकता से मिलने वाले असली आनंद को पहचान नहीं रहा है। इसलिए ही, मन में विक्षोभ उत्पन्न करने वाली बातों में रुचि कम हुई है, यह तो दिखाई दे जाता है परंतु सात्विकता के कारण जीवनशैली में, संबंध-संपर्क में, व्यवहार में मधुरता व सद्भावना को बनाए रखने की रुचि बढ़ रही है, इस बात को पहचान नहीं रहे हैं।

क्या अध्यात्म केवल वृद्धों के लिए है, युवकों के लिए नहीं?

इस एक गलत विचारधारा के कारण ही आज पूरी युवा पीढ़ी, सशक्तिकरण से वंचित रह गयी है। युवा, अध्यात्म से दूर रहे, यह विचार केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए हानिकारक है। आपने सुना होगा, कुछ दशकों पहले आठ साल का होते ही बच्चे को गुरुकुल भेजा जाता था। गुरुकुल, एक आश्रम होता था जहां सबसे पहले आध्यात्मिक व नैतिक पढ़ाई की मजबूत नींव डाली जाती थी, उसी नींव के आधार पर अन्य बातों की पढ़ाई होती थी। इसलिए ही उस समय, अनैतिकता और अपराध बहुत ही कम थे। आज भी भारत अन्य देशों के लिए एक आदर्श है। आप बताइए, दवाई देना, ऑपरेशन करना, ये सारी बातें एक डॉक्टर युवावस्था में ही तो सीखता है ना, तब ही वह जिंदगी भर मरीज़ों को मौत से बचा सकता है। वैसे ही, सद्गुणों, नैतिक शक्तियों व कलाओं को सीखने की जरुरत जिंदगी की शुरुआत अर्थात् नवयुवावस्था से ही होनी चाहिए तब ही वह जिंदगी में आने वाली शारीरिक, मानसिक, आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का निवारण कर सकता है।

मनुष्य अपने व्यवहार से जाना जाता है। आयु कितनी भी लंबी हो लेकिन अगर व्यवहार सही नहीं है तो निष्फल जीवन ही कहेंगे। युवावस्था में सीखी हुई आध्यात्मिक पढ़ाई के बल से उसका व्यवहार जीवन भर शांति, प्रेम, सहयोग व सहनशीलता से भरपूर रहेगा। मात्र आध्यात्मिकता ही, सकारात्मक रीति से सोचने, बोलने व करने के संस्कार युवाओं में डाल सकती है। आज युवाओं में नशीले पदार्थों का व्यसन, हिंसा, आतंकवाद, जाति व धर्म का भेद, भाषा का भेद आदि नकारात्मक बातें बढ़ क्यों रही हैं, इस का उत्तर एक ही है कि पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक विषय नहीं है।

एक और महाभ्रांति

कुछ लोग समझते हैं, आध्यात्मिक विषयों को सीखने का अधिकार केवल कुछ धर्म या जाति वालों को ही है। यह और एक बड़ी गलतफहमी, अनेकों को जीने की कला सिखाने वाली महत्वपूर्ण पढ़ाई से वंचित कर रही है। जैसे, विज्ञान पढ़ने का अधिकार हर एक मनुष्य को है, वैसे ही, आत्मिक ज्ञान प्रदान करने वाली आध्यात्मिक शिक्षा लेने का अधिकार भी हर एक मनुष्य को है।

आध्यात्मिक पढ़ाई किस प्रकार की हो?

पढ़ाई दो भागों में होती है, सिद्धांत और प्रयोग। केवल सैद्धांतिक ज्ञान से कोई भी लाभ नहीं है। पानी में कैसे तैरना है, इसके बारे में किताब पढ़कर तैराक नहीं बन सकते। पानी में उतर कर, प्रयोग करके ही लाभ हो सकता है। ऐसा सैद्धांतिक अध्यात्म ज्ञान जिसको बहुत ही सरल व परिणामकारी रीति से हम जीवन में धारण कर सकते हैं, प्रजापति ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में उपलब्ध है, घर-गृहस्थ में रहकर भी हम इसका लाभ उठा सकते हैं। वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित इस पढ़ाई को प्राप्त करने के लिए भाषा, आयु, शैक्षणिक योग्यता, जाति, धर्म, स्त्री-पुरुष आदि बातों की कोई भी सीमा नहीं है और न ही कोई रस्म-रिवाज का बंधन है। विश्वभर में लाखों लोग इस पढ़ाई को अपने कार्य-व्यवहार में प्रयोग करके स्वयं और समाज की उन्नति में योगदान दे रहे हैं।

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