छठ पूजा

आस्था का महापर्व छठ पूजा

कोई सिर पर दउरा उठाए, तो कोई केले का घवध लिए, वहीं कोई गन्ने को कांधे पर उठाए, पारंपरिक गीत गातीं महिलाएं... ऐसे ही सैकड़ों लोग घाट की ओर रुख करते हुए... आप समझ ही गए होंगे, हम बात कर रहे हैं छठ पूजा (Chhath Puja) की। आस्था के महापर्व पर्व छठ पूजा (Chhath Puja) के इतिहास, लोगों की आस्था और परंपराओं को जानने के लिए पढ़ें ये खास लेख।

छठ (Chhath Puja) एकमात्र ऐसा पर्व है, जिसमें उगते सूर्य की उपासना से पहले डूबते सूर्य की पूजा की जाती है। चार दिनों तक चलने वाला ये पवित्र पर्व बिहार, झारखंड व यूपी में घर-घर मनाया जाता है, अब यह त्योहार देश-दुनिया के कोने-कोने में भी मनाया जाने लगा है।

अक्टूबर का ये महीना त्योहारों की रौनक से भरा है। इस महीने में कई त्योहार जैसे दुर्गा पूजा, दशहरा, दीपावली और छठ पर्व जैसे महान त्योहार भी आते हैं। वे लोग जो इस पर्व पर भरपूर आस्था रखते हैं, वो इस पर्व का साल भर इंतजार करते हैं। यदि आप पूर्वोत्तर भारत में रहते हैं, तो दीपावली के खत्म होने के बाद से ही गली-मोहल्लों में छठ पर्व की रौनक देखने को मिल जाएगी। छठ पूजा के पारंपरिक गीत आपका ध्यान अपनी ओर खींच लेंगे। वहीं पूजा से चंद दिनों पहले बाज़ारों की रौनक देखते ही बनती है। पौराणिक काल से लेकर महाभारत में इस पर्व का जिक्र है।

आस्था ऐसी कि पूरी होती है मनोकामना (Aastha aisi ki puri hoti hai manokamna)

अब बात करते हैं इस पर्व के इतिहास की। हिंदू संस्कृति नदियों के किनारे रची-बसी है। इसलिए नदियों, प्रकृति, अग्नि, वायु, जल आदि का खास महत्व है। छठ पूजा में छठी मईया की पूजा की जाती है। इस पूर्व में डूबते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। इस पर्व को लेकर लोगों की आस्था ऐसी है कि वो मां से जो भी मांगते हैं उनकी मनोकामना पूरी होती है।

पौराणिक कथाओं की मानें, तो सूर्य देव की बहन छठी मईया हैं। यही वजह भी है कि इस त्योहार के मौके पर सूर्य देव की आराधना की जाती है। इस त्योहार में महिलाएं ही नहीं बल्कि पुरुष श्रद्धालु भी व्रत रखते हैं। महिलाएं पुत्र प्राप्ति सहित संतान की दीर्घायु, परिवार के सुख-समृद्धि आदि के लिए निर्जला व्रत रखती हैं।

महाभारत में भी है इस पर्व का वर्णन (Mahabharat mai bhi hai iss parv ka varnan)

पौराणिक इतिहास की बात करें तो छठ पूजा का महाभारत में भी वर्णन है। इस पर्व की शुरुआत सबसे पहले सूर्य देव के बेटे कर्ण ने की थी। पानी में खड़े होकर तपस्या करने वाले कर्ण ने सूर्य देव की आराधना कर इस परंपरा की शुरुआत की थी। जब-जब महान योद्धाओं को याद किया जाएगा, कर्ण की बात ज़रूर आएगी, सूर्य देव के आशीर्वाद का ही फल था कि वे महान योद्धाओं में से एक थे।

पौराणिक कथाओं की मानें, तो द्रौपदी ने भी इस व्रत को किया था। महाभारत काल के समय पांडव जुए में धन, दौलत, राज-पाट हार गए थे, उस वक्त द्रौपदी ने छठी मईया की पूजा की थी। वहीं व्रत रख यह मनोकामना की थी कि सारा राज-पाट वापिस मिल जाए। जो बाद में उन्हें वापिस मिल भी गया।

सज जाते हैं बाजार (Saz jate hai hain bazar)

छठ पर्व अमीर से लेकर गरीब काफी आस्था के साथ मनाते हैं। पर्व शुरू होने के पहले बाजार की रौनक देखते ही बनती है। पर्व में इस्तेमाल की जाने वाली आम की लकड़ी से लेकर सभी वस्तुएं बाजार में मिल जाती है। सामान की बात करें, तो इस पर्व में इन तमाम सामान की उपयोगिता होती है, जैसे साड़ी या धोती, बांस की दो बड़ी टोकरी, बांस या पीतल का सूप, ग्लास, लोटा और थाली, दूध और गंगा जल, नारियल, अगरबत्‍ती, कुमकुम, बत्‍ती, पारंपरिक सिंदूर, चौकी, केले के पत्‍ते, शहद, मिठाई, गुड़, गेहूं और चावल का आटा, चावल, एक दर्जन मिट्टी के दीपक, पान और सुपारी, गन्‍ना, शकरकंदी और सुथनी, केला, सेव, सिंघाड़ा, हल्‍दी, मूली और अदरक का पौधा व अन्य सामान की लोग खरीदारी करते हैं। कई लोग इन तमाम सामान की खरीदारी करने के लिए बगैर चप्पल, बेल्ट के ही बाजार जाते हैं।

चार दिनों तक की जाती है पूजा (Char dinon tak ki jati hai puja)

जो लोग छठ पूजा करते हैं या फिर जिनके घर में यह पूजा की जाती है वे लोग भली-भांति जानते हैं कि इस पर्व में सफाई का खास महत्व है। पूजा शुरू होने के पहले श्रद्धालु पूजा घर को खाली कर देते हैं, वहीं इस पर्व में शुद्धता का खास ख्याल रखते हैं। जिस बर्तन में प्रसाद बनाया जाता है उसका इस्तेमाल सिर्फ पूजा के लिए किया जाता है, इसके अतिरिक्त उस बर्तन का किसी अन्य काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इसलिए इस पूजा में इस्तेमाल किए जाने वाले बर्तन को अलग रखा जाता है।

मान्यता के अनुसार दीपावली के छठें दिन से पर्व की शुरुआत नहाय-खाय के साथ होती है। षष्ठी तिथि से शुरू होने वाला ये पर्व उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ खत्म होता है। नहाय खाय में छठ व्रतियां नहाने के बाद नए कपड़े पहनतीं हैं। खासतौर पर व्रतियां पीली व लाल साड़ी पहनतीं हैं। इसके बाद प्रसाद के रूप में व्रतियां चना दाल, कद्दू की सब्जी और चावल का सेवन करतीं हैं। प्रसाद ग्रहण करने के पहले सूर्य देव की पूजा करने के साथ छठी मईया की पूजा की जाती है। जब तक व्रतियां प्रसाद ग्रहण न कर लें, तबतक परिवार का कोई भी सदस्य प्रसाद का सेवन नहीं करता है। ये सात्विक प्रसाद का सेवन करना ही नहाय-खाय कहलाता है। पर्व में शुद्धता का इतना ख्याल रखा जाता है कि पूजा में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं को घर के बच्चों से दूर ही रखा जाता है, ताकि वे इसे जूठे हाथ से भी न छू दें।

प्रसाद को तैयार करने के लिए सब्जियों को अच्छे से धोया जाता है। वहीं काफी सफाई से इसे पकाया भी जाता है। प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी का चूल्हा और आम की लकड़ी का ही इस्तेमाल किया जाता है। इस पर्व की रौनक उस वक्त कई गुना अधिक बढ़ जाती है, जब घर की महिलाएं पर्व से जुड़ी तैयारी करते-करते पारंपरिक लोक गीत गातीं हैं। कई व्रतियां इस दिन नदी या तालाब में नहाने भी जातीं हैं, जिसके बाद वो तमाम अनुष्ठान करतीं हैं।

जमीन पर सोती हैं व्रती (Jamin par soti hain vrati)

जो श्रद्धालु इस व्रत को करते हैं, वो चार दिन पूजा घर में ज़मीन पर ही सोते हैं। घर के बड़े बुजुर्ग बताते हैं इस पर्व के दौरान सफाई का ख्याल रखने के साथ नए कपड़े ही पहनते हैं। नहाय-खाय के अगले दिन खरना होता है, इस दिन श्रद्धालु सूर्य देव और छठी मईया की आराधना करते हैं। फिर मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी की मदद से गुड़ और चावल की खीर बनाते हैं। यह काफी पवित्र माना जाता है। खरना के दिन सबसे पहले ये प्रसाद भगवान को भोग लगाते हैं, उसके बाद सबसे पहले छठ व्रती उसका सेवन करते हैं, फिर घर के अन्य सदस्य भगवान की पूजा करने के बाद छठ व्रतियों के पांव छूते हैं व प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस प्रसाद को ग्रहण करने के बाद 36 घंटे का निर्जला उपवास शुरू होता है।

निर्जला उपवास को माना जाता है कठिन (Nirjala upvas ko mana jata hai kathin)

छठ पूजा में 36 घंटे के निर्जला उपवास को कठिन माना जाता है, बावजूद इसके व्रतियां हंसी-खुशी व हर्षोल्लास के साथ इस व्रत को करतीं हैं। खरना के अगले दिन डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा है। इसके लिए श्रद्धालु गांव में छठ घाट, नदियों व शहर में रहने वाले लोग नदियों के घाट, घर के छत पर पानी के टैंक में खड़े होकर पूजा करते हैं। इस दौरान परिवार के सभी सदस्य नए कपड़े पहनकर, बिना चप्पल व जूतों के घाट तक जाते हैं। जो लोग मन्नत मांगते हैं, वो दंडवत होते हुए भी घाट तक का सफर तय करते हैं। सूर्य के डूबने से पहले तमाम श्रद्धालु घाट तक पहुंच जाते हैं। इस दौरान व्रती नदी में खड़े होते हैं, वहीं जब तक सूर्य डूब न जाए तब तक नदी या तालाब में ही रहते हैं। डूबते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद फलों का दउरा (टोकरी) उठाकर अपने-अपने घर चले जाते हैं। फिर अगले दिन सूर्य के उगने के पहले फिर घाट का रुख करते हैं। इस दौरान घर पहुंचने से लेकर घाट तक महिलाएं छठ गीत गातीं हैं। वहीं अगले दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद, छठी मईया से आशीर्वाद लेते हैं, फिर छठ व्रती प्रसाद ग्रहण करते हैं।

श्रद्धालु भी हक से मांगते हैं प्रसाद (Shradhalu bhi haq se mangte hain prasad)

इस पर्व का प्रसाद लोग मांगकर भी खाते हैं, लोगों की ऐसी मान्यता है कि प्रसाद मांगने में शर्म नहीं करनी चाहिए। यही कारण है कि घाट से लौटते वक्त श्रद्धालु व्रतियों से प्रसाद मांगते हैं, जिसमें केला, गन्ना, सिंघाड़ा, सेव व अन्य फलों के साथ-साथ ठेकुआ, मिठाईयां आदि भगवान को अर्पित करने के बाद भक्तों में बांटा जाता है। घर आने के बाद पारंपरिक व्यंजन बनाया जाता है, जिसमें चने, मूली व अन्य सब्जियों से तैयार सब्जी खास होती है। इसे चावल, दाल व कई पकौड़ों के साथ लोग खाते हैं।

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