राधा का ऐतिहासिक महत्व

राधा का निरूपण

विष्णु पुराण की तरह प्रारंभिक पुराणों में, जो 1,500 वर्ष से अधिक पुराने हैं, राधा का कोई उल्लेख नहीं है।

सभी धर्मशास्त्रों का कहना है कि सारी रीतियों और नीतियों को देश, काल और समुदायों की क्षमता अर्थात उनके गुणों के अनुसार बदलना चाहिए। मनुस्मृति में भी यही बात दोहराई गई है।

हिंदू धर्म में देश, काल और समुदायों के अनुसार राधा को कैसे दर्शाया गया है इसके अध्ययन से हम इस बात को आसानी से समझ सकते हैं। राजस्थान के नाथद्वारा मंदिर में कृष्ण को श्रीनाथजी के रूप में पूजा जाता है। यहाँ राधा की कोई मूर्ति नहीं है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में, पंढरपुर के विट्ठल मंदिर में, केरल के गुरुवायुर के गुरुवायुरप्पन मंदिर में और कर्नाटक के उडुपी में कृष्ण मंदिर में भी राधा की मूर्ति नहीं है। इसके बावजूद गंगा के मैदानी इलाकों में कृष्ण पूजा में राधा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

अब इसे इतिहास के दृष्टिकोण से देखते हैं। वेदों में राधा या कृष्ण का कोई उल्लेख नहीं है। हालाँकि 3,000 वर्षों से भी पहले रचे गए वेदों में एक चरवाहे का उल्लेख मिलता है, स्पष्ट रूप से कृष्ण का उल्लेख मुख्यतः महाभारत में ही पाया जाता है, जिसके प्रारंभिक लिखित प्रमाण 2,000 वर्ष से थोड़े और पुराने हैं। लेकिन इस महाभारत और इसके परिशिष्टहरिवंशमें राधा का कोई उल्लेख नहीं है।

हालाँकि राधा का पहला उल्लेख लगभग 1,000 वर्ष पुराने उत्तरकालीन प्राकृत साहित्य में पाया गया है, उसका निरूपण लगभग 800 साल पहले जयदेव द्वारा संस्कृत में लिखे गएगीत गोविंदनामक कविता में पूरी तरह से विकसित हुआ। विष्णु पुराण की तरह प्रारंभिक पुराणों में, जो 1,500 वर्ष से अधिक पुराने हैं, राधा का कोई उल्लेख नहीं है। ब्रह्मवैवर्त पुराण जैसे उत्तरकालीन पुराणों में, जो 600 वर्ष से कम पुराने हैं, राधा और कृष्ण को पौरुष और स्त्रैण सिद्धांत माना गया, जिनसे पूरे विश्व का उदय हुआ। इस प्रकार राधा का बाद के हिंदू इतिहास में ही उल्लेख होने लगा।

यह देखा गया है कि भारत के कई कृष्ण पंथों में राधा को एक समान स्वीकार नहीं किया गया है। 15वीं शताब्दी के संत चैतन्य महाप्रभु का बंगाल में वैष्णववाद पर गहरा प्रभाव रहा। उनके लिए राधा और कृष्ण को एक दूसरे से अलग करना अकल्पनीय था। लेकिन असम, जहाँ 15वीं और 16वीं शताब्दी के संत, कवि, नाटककार और संगीतकार शंकरदेव ने भागवत धर्म, वैष्णववाद और कृष्ण पूजा का प्रचार किया, में राधा का कोई भी निशान नहीं पाया जाता है।

12वीं शताब्दी में श्री चक्रधर स्वामी नामक संत और दर्शनशास्त्री ने महाराष्ट्र में महानुभाव पंथ की स्थापना की। जैसे असम में देखा जाता है, वैसे यहाँ भी हालाँकि कृष्ण पूजा को बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया, लेकिन राधा के लिए कोई स्थान नहीं था। लेकिन तमिल नाडु में कुछ अलग पाया जाता है। वहाँ के अलवर संतों ने अपनी कविताओं में कृष्ण भक्ति का भावुक शब्दों में वर्णन किया और कृष्ण से प्रेम करने वाली ग्वालिनों को बहुत महत्त्व दिया।

इन कविताओं में पिन्नै नामक ग्वालिन का उल्लेख भी है, जिससे कृष्ण बहुत प्रेम करते हैं। पिन्नै को राधा तो नहीं लेकिन आदिमराधा के रूप में पहचाना जाता है। वास्तव में दक्षिण भारतीय मंदिरों में राधा को कृष्ण के बग़ल में खड़ी कभी नहीं दिखाया जाता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि राधा भारत के सभी प्रांतों में, भारत के संपूर्ण इतिहास में या सभी हिंदूओं, यहाँ तक कि वैष्णव समुदायों में भी समान रुप से नहीं पाई जाती है। इस बात को पहचानना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि यह हिंदू धर्म का स्वभाव है। मुसलमान और ईसाई धर्मीय अपने धर्म को एकरूप करने की कोशिश करते हैं। हिंदू उनके बिल्कुल विपरीत हैं। हिंदू धर्म विविधता पर पनपता है, जो बात हम राधा के उदहारण से स्पष्ट देख सकते हैं।

देवदत्त पटनायक पेशे से एक डॉक्टर, लीडरशिप कंसल्टेंट, मायथोलॉजिस्ट, राइटर और कम्युनिकेटर हैं। उन्होंने मिथक, धर्म, पौराणिक कथाओं और प्रबंधन के क्षेत्र मे काफी काम किया है।

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