पृथ्वी दिवस

धरती को है पोषण की दरकार

ज़रा नज़दीक से अपनी खूबसूरत पृथ्वी को देखिए। यह सोचिए कि उसके सामने क्या चुनौती है और हम उनसे निपटने में उसकी कैसे सहायता कर सकते हैं कि वक्त रहते वह संभल जाए। वर्ना काफी देर हो जाएगी।

ब्रह्माण्ड में अनेक तारामंडल हैं। इसमें से एकमात्र ग्रह धरती है, जहां पर जीवन पाया जाता है। हमारे इस अनंत ग्रह में ही जल, वायु से लेकर भूमि और हरियाली सब कुछ है, जो जीवन के लिए पोषक है। लेकिन धरती पर जीवन एकाएक नहीं आ गया। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 4.5 अरब वर्ष पहले पृथ्वी तरल आग का एक गोला था, जहां जहरीला वायुमंडल हुआ करता था। अगले कुछ लाखों वर्षों में एक चमत्कारिक बात हुई। कालांतर में धरती पर पहाड़ी इलाकों, सांस लेने लायक माहौल, बर्फ, समुद्र और बारिश के बाद अंततोगत्वा जीवन का सृजन हुआ।

खुद को रहने लायक ग्रह बनाने और उसमें लाखों जीवों को आश्रय देने के लिए पृथ्वी (Prithvi) ने लंबा सफर तय किया। लेकिन आज स्वार्थी मनुष्यों की वजह से वह अपने ही अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। लंबे समय से हम पृथ्वी को हल्के में ले रहे हैं। विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जा रहा है। हम विकास की अंधी होड़ में उद्योगों से निकलने वाले दूषित जल की अनदेखी कर रहे हैं। यही बात वाहनों से होने वाले प्रदूषण और अन्य जहरीले उत्सर्जन पर लागू होती है। अपने स्वार्थ की खातिर हमने इसका इतना शोषण किया है कि अब ग्लेशियर पिघल रहे हैं, जलवायु में परिवर्तन हो रहा है और कुछ जीव लुप्त हो रहे हैं। अनेक लोग इस प्रक्रिया को देखकर भी अनजान बन रहे हैं, जैसे हम इससे प्रभावित ही नहीं होंगे। हमें एक नजर उलंबत्तार की ओर डालनी चाहिए, जहां धुंध की वजह से सूर्य ही नहीं निकलता। काइरो को देखें जहां जलवायु परिवर्तन की वजह से रेगिस्तान में बर्फबारी हो रही है।

अनेक लोगों का कहना है कि पृथ्वी (Earth) के विकास का काम विकास एजेंसियों की जिम्मेदारी है। यही हम गलती कर रहे हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वह धरती के तरक्की में अपना योगदान दे।

सांस लेने वाली हवा (Saans lene wali hawa)

कार्बन उत्सर्जन को लेकर काफी कुछ कहा गया है। व्यक्तिगत तौर पर हमने इसे हासिल करने की दिशा में अनेक उपाय किए हैं। मसलन सौर ऊर्जा, वृक्षारोपण और बायोडिग्रेडेबल उत्पादों का उपयोग करना। ये सब प्रकृति को बचाने वाले उत्पाद है। लेकिन जो हानि हम प्रकृति को पहले ही पहुंचा चुके हैं, उसका क्या? हमने वायुमंडल में जो जहरीली गैस छोड़ दी है, उसका क्या?

यह बात आपको भविष्य के किसी साइंस फिक्शन का हिस्सा लगेगी, लेकिन आज हवा में से दूषित कण निकाल लेना संभव हो गया है। बीजिंग में एक स्मोक फ्री टॉवर है, जो काले धुंए से हीरा बना रहा है। सौर ऊर्जा से चलने वाला यह टॉवर अपने आसपास से सैकड़ों क्यूबिक मीटर दूषित वायु खींचकर उसे नैनो स्तर तक साफ कर शुद्ध हवा वापस वायुमंडल में छोड़ देता है। अब इस टॉवर के आसपास की हवा को शहर के अन्य इलाकों से कहीं ज्यादा शुद्ध माना जा रहा है।

हम यह जानते हैं कि शुद्ध हवा हमारे लिए कितनी जरूरी है, लेकिन हम इसे प्रदूषण मुक्त करने के लिए कुछ नहीं करते। ऑक्सीजन हमारे लिए कितनी जरूरी है, यह तो हम सबको पता है। ऐसे में यदि लोग शुद्ध हवा के नाम पर प्रेरित नहीं होंगे, तो शायद अब दूषित हवा से हीरा बनने की बात सुनकर हो जाएं।

जीवनामृत

पृथ्वी का 71 फीसदी भूभाग पानी से भरे होने के बाद भी दुनिया की कुल आबादी का पांचवां हिस्सा जलसंकट से जूझ रहा है। दुर्भाग्यवश पृथ्वी पर रहने वाले जीवों को जीवित रहने के लिए जिस मीठे पानी की जरूरत है। वह पृथ्वी पर महज तीन फीसदी तक सीमित है। यह पानी भी हिमखंडों, नदियों और भूजल से मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। परिणामस्वरूप नदियों का पानी कम हो रहा है और भूजल में कमी आ रही है। इसी प्रकार समुद्र का फैलाव बढ़ता जा रहा है। जब हम इस सीमित प्राकृतिक संसाधन का अत्यधिक दोहन करते हैं अथवा इसे बर्बाद करते हैं, तो एक नया संकट हमारे सामने खड़ा हो जाता है। विकराल रूप से सामने आ रहे इस संकट को देखकर वैज्ञानिक यह कह रहे हैं कि दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन शहर में वह दिन दूर नहीं जब पानी खत्म हो सकता है। यह शहर दुनिया का पहला सूखा शहर हो जाएगा। क्या अब भी हम इस समस्या का समाधान नहीं खोजेंगे?

यदि अब भी हम जल संवर्धन को लेकर सजग हो गए, तो इस समस्या से निपटा जा सकता है। क्या हम समुद्र के खारे पानी से नमक निकाल कर उसे पीने योग्य बनाने के संयंत्र दुनिया भर के समुद्र किनारे बसे शहरों में नहीं लगा सकते? व्यक्तिगत तौर पर भी हम घरेलू उपयोग के जल को दोबारा शुद्ध करने का काम कर सकते हैं। इससे शुद्ध जल की बर्बादी रुकेगी। यह जल रूपी जीवनामृत को बचाए रखना जरूरी है, क्योंकि पृथ्वी पर जल के बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

भूमि का बदलता परिदृश्य (Bhoomi ka badalta paridrishya)

कहानियों में अक्सर टिड्डियों के दल को अनाज चट करते हुए, हरी-भरी पृथ्वी को बंजर बनते हुए और अकाल से परेशान लोगों को दिखाया जाता है। लेकिन जिस तरह हमने पृथ्वी का दोहन किया है, उससे लगता है कि यह बात जल्दी ही सच हो सकती है। विशेषज्ञों का कहना है कि आने वाले कुछ दशकों में ही सूखा प्रभावित क्षेत्रों का विस्तार होगा और इसके कारण फल और सब्जियों की उपज कम होगी। इससे अंतत: मानव जीवन प्रभावित होगा। भोजन पद्धति में बदलाव से अनेक जीव लुप्तप्राय होने के कगार पर पहुंच जाएंगे। भूमि के अत्यधिक दोहन का यह परिणाम तो झांकी मात्र है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि हमने जंगलों की कटाई नहीं रोकी, तो मिट्टी खिसकने की घटना आम हो जाएगी और मौसम परिवर्तन के कारण पृथ्वी भी अन्य ग्रहों की तरह जीवन विहीन हो जाएगी।

इसे हम विडंबना नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे कि हम मंगल ग्रह पर जाने की बात कर रहे हैं। लेकिन हमारी स्थिति उससे भी खराब है। हम खुद ही मंगल ग्रह की तरह जीवन विहीन होने के कगार पर पहुंच गए हैं, हमें अपने कर्मो के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। हमें पर्यावरण के प्रति जागरूक होना होगा। शायद हम यह जानते हैं कि पृथ्वी जैसा कोई दूसरा ग्रह नहीं हो सकता। हम सभी धरती पुत्रों को इस पृथ्वी को बचाने के लिए ज्यादा पेड़ लगाने होंगे, नॉन डिग्रेडेबल वस्तुओं को रिसाइकिल करना होगा और दोबारा उपयोग में आने वाली सभी संभव वस्तुओं को फिर से इस्तेमाल करने का काम करना होगा।

ग्रीन मार्टियर्स (The Green Martyrs)

हम जंगलों को काटकर कृषि क्षेत्र बनाने, विकास परियोजना लागू करने अथवा उसे कॉन्क्रीट का जंगल बनाने से पहले एक बार भी नहीं सोचते। हमारी चाहे कोई भी जरूरत हो, हम जंगल के पेड़ों के बगैर नहीं रह सकते। वे हमारे शुभचिंतक हैं। अनेक अध्ययनों से पता चलता है कि शहरों में रहने वाले लोगों (जहां पेड़ कम होते हैं) में तनाव, बेचैनी और अवसाद ज्यादा पाया जाता है। कुछ लोगों को हरियाली के अभाव में श्वसन और हृदय रोग हो जाता है।

इटालियन आर्किटेक्ट स्टीफानो बोरी ने हरियाली का अभाव को दूर करने के लिए एक उपाय निकाल लिया है। वो अब ऊंची इमारतों पर वर्टिकल फॉरेस्ट विकसित करने लगे हैं। उन्हें अब इतने बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है कि फॉरेस्ट सिटी खड़ी हो जाए। दुनिया की पहली फॉरेस्ट सिटी चीन में विकसित हो रही है। क्या यह अदभुत बात नहीं है कि एक व्यक्ति दुनिया को बदलने की क्षमता रखता है?

हिचकिचाती जिंदगी

केन्या में अंतिम मेल नॉर्दर्न व्हाइट राइनो (गेंडा) की मृत्यु के साथ ही यह संकेत मिलता है कि हमारी धरती का परिदृश्य किस तेजी से बदल रहा है। जानवरों के शिकार और उनके रहने वाले  आवास में लगातार हो रही कमी ने व्हाइट राइनो के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। 60 के दशक में उनकी संख्या 2000 थी, जो अब महज दो मादा राइनो तक सिमट गई है।

दुनिया से लुप्त होती इस प्रजाति का यह तो एक उदाहरण मात्र है। आज सारे वन्य जीव खतरे में हैं। मानव जाति ही इसके लिए जिम्मेदार है, लेकिन वह अपनी गलती स्वीकार करने को तैयार नहीं है। और ना ही सबक लेने को तैयार है।

जब एक वन्य जीव पर खतरा मंडराने लगता है, तो वह इकोलॉजी (पारिस्थितिक तंत्र) के एक अन्य जीव को भी अपनी चपेट में लेकर संतुलन को प्रभावित करते हुए ज़िंदगी को खतरे में डाल देता है। अब चमगादड़ की ही बात ले लीजिए। माना जाता है कि चमगादड़ नागफनी और रामबांस के परागण (पोलिनेशन) में अहम भूमिका निभाते हैं। यदि किसी दिन चमगादड़ लुप्त हो गए तो नागफनी और रामबांस भी खत्म हो जाएंगे। इन दोनों का ही उपयोग भोजन पकाने में किया जाता है।

यह सब कुछ इतना असंतुलित नहीं होना चाहिए। हम इन प्रज़ातियों को लेकर जनजागृति कर अपने हिस्से का सहयोग तो कर ही सकते हैं। हमें अपने समकक्षों के साथ इस पर चर्चा से शुरुआत करनी चाहिए। इसके बाद हमें कृत्रिम खाल से बने वस्त्र धारण करने चाहिए ना कि असल खाल से बने। हमें वन्य जीव का शिकार करने के बाद बाजार में बिकने वाली वस्तुओं का भी बहिष्कार करने की आदत डालनी चाहिए। आखिर में जानवर भी हमारे पारिस्थितिक तंत्र के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि मानव। अन्य जीवों को पृथ्वी से विलुप्त होते देखना भविष्य में खुद के खात्मे की तैयारी करना ही है।

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