गंगा यात्रा, गंगा के किनारे

गंगा के किनारे

क्या होता है जब आप महान और पौराणिक गंगा की धारा के साथ-साथ या गंगा के किनारे चलते हैं? ऐसा करने पर आप जीवन भर संजोने लायक अमूल्य यादों के साथ लौटते हैं।

मुझे हमेशा से ही यह लगता था कि यह जीवन के उतार-चढ़ाव से जूझने और उसके हर एक परिणाम को एक बालक की तरह स्वीकार करने जैसा होगा। मेरी दिल से इच्छा थी कि मैं ब्रहमांड के संकेतों को पहचानू और इसकी उत्तम भाषा को समझूं। संभवतः इसलिए एक दिन, मैंने अपनी भागदौड़ भरी ज़िंदगी की नौकरी छोड़ दी और खुद को हिमालय को देखते हुए उगते सूरज की वाहवाही करते हुए पाया। चाय की चुस्की लेते हुए और खुद को जिंदा महसूस करते हुए, मैं गंगा की यात्रा पर जाने के लिए तैयार थी। गंगा नदी (Ganga River) और उसकी धारा के प्रवाह का मार्ग मेरा एकमात्र गाइड बन गया। मैं उसकी शानदार कहानियों और उसके धार्मिक संस्कारों से अंजान थी, फिर भी गंगा की धारा और गंगा के किनारों के साथ जुड़े हरेक समृद्ध अनुभव से मेरे ज्ञान की वृद्धि ही हुई।

मेरा पहला पड़ाव था गंगोत्री- गंगा की जन्मस्थली। महिमाशाली बर्फीले पर्वतों से घिरे सफेद ग्लेशियर (white glacier), एक निर्बाध नज़ारा पैदा कर रहे थे। वहां कंपकपा देने वाली ठंडी हवा के बीच आनंद का एहसास दिलाता सूर्य चमक रहा था। ठंड और गर्मी के बीच के तालमेल के ज़रिए, मैंने बहते हुए निर्मल जल को उठाया। शुद्धता के इस नज़ारे से मेरी आत्मा तक जैसे शुद्ध हो गई लगती थी।

मेरा अगला पड़ाव था ऋषिकेश (Rishikesh)- जो एक पंचतत्वीय योग आश्रम और उपचार केन्द्रों से सुसज्ज्ति, निर्मल, शान्तचित स्थान है। वहां होने मात्र से ही मेरे अंगों का फड़कना शान्त हो गया। इस रहस्यमय आभा से जुड़े स्थान की तुलना दुनिया भर के कैफे, जल क्रीड़ा स्थलों और शिविर स्थलों से की जा सकती थी। ऋषिकेश की शांति के विपरीत मेरा दूसरा गंतव्य हरिद्वार था। यह शहर जीवंत और भीड़ भरा था जो इसकी जीवंतता का परिचायक था। रंग-बिरंगी आभा और आनन्दित करने वाले अनेक मंदिरों और घाटों से घिरे इस पवित्र स्थान ने मानो मुझे स्वर्ग-सी अनुभूमि प्रदान की। हर बीतते दिन के साथ मैं, समान रूप से अपनी आध्यात्मिकता दर्शाते, एक-दूसरे से आश्चर्यजनक रूप से अलग दो नजदीकी शहरों के जरिए, गंगा की यात्रा की साक्षी बनी।

मेरी यात्रा मुझे अपनी पुरानी और विशेषताओं से भरी गलियों और भीड़ से भरे स्थान वाराणासी (Varanasi) लेकर गई। मेरे लिए यह एक सांस्कृतिक जगह से कुछ कम नहीं लग रहा था। गंगा के किनारे मृतकों के अंतिम संस्कार को देखने मात्र से ही मेरा मन अटपटा हो उठा। कीचड़ से सनी भूलभुलैया जैसी इसकी गलियां समान रूप से मन को भ्रमित कर रही थीं। चमकीले रंग, तेज़ आवाज़ें, भीड़-भाड़ वाले स्थान और दुर्गन्ध ने तो मानो हद ही कर दिया था।

आखिरकार, यह एहसास कम हुआ और विचारों की चकाचौंध मद्धम हुई। मैंने अनुभव किया कि सांसारिक अनुभवों, जिन्हें अधिकतर इंद्रियों द्वारा अनुभव किया जाता है, उसको जीवन के आनंद और दुख का स्रोत होने की आवश्यकता नहीं होती। चिर आनंद की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को स्वयं के भीतर झांकने की आवश्यकता है। इस स्व-अनुभूति के लिए, वाराणासी में मेरा पड़ाव एक अविस्मरणीय अनुभव बन गया।

जहां, गंगा अपनी समकक्ष नदियों-यमुना और पौराणिक सरस्वती नदी, के साथ मिलती है, मैंने खुद को उस स्थान, प्रयाग में पाया। यहां नदियों को एक-दूसरे में विलीन होते देख मैं मंत्र मुग्ध हो गई। यहां यमुना गहरी और शान्त थी, गंगा उथली और उग्र, जबकि सरस्वती अगोचर थी। मेरे लिए, नदियों का यह जुड़ाव शरीर, मन और आत्मा के सामंजस्य को प्रकट करता है। संभवतः इन तीनों नदियों के बीच संतुलन की खोज करना ही जीवन के बीच संतुलन की खोज करना है।

अंततः यह महान नदी मुझे बंगाल की खाड़ी में गंगा सागर की ओर लेकर गई। इस छोटे-से द्वीप की अपनी अनोखी ही छटा थी। एक लंबी गंगा की यात्रा के बाद, जैसे ही मेरे कदमों ने तट को स्पर्श किया, मुझे विशुद्ध आनंद की अनुभूति हुई। जैसे ही, गोधूलि बेला का अंधकार के साथ मेल बढ़ा, मेरी गंगा की यात्रा भी इसी के साथ समाप्त हो गई। मेरा मन संतोष से भरा हुआ था। जैसे ही मैंने उससे विदाई ली, मैंने जीवन-काल के खुलासे के लिए गंगा का धन्यवाद किया।

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