“जब मैं कोई गलती करती हूं, तो खुद को सज़ा देने के तौर सबसे पहले मैं अपनी गलतियों को स्वीकार करती हूं। साथ ही इस बात से खुद को जागरूक करती हूं कि ऐसी गलती दोबारा न हो और मुझे इसी के साथ जीना है…” लेबनान की लेखिका जौमाना हद्दाद ने अपनी किताब ‘आई किल्ड शेहेरज़ादे: कंफेशंस ऑफ एन एंग्री अरब वीमेन’ में इस बात का उल्लेख किया है। ऐसी सोच के साथ जीवन जीना निश्चित रूप से किसी भी इंसान के लिए इतना सरल नहीं है। इसका नतीजा बेहद ही तकलीफदेह वाली अवस्था की तरह होता है, जिसे आमतौर पर हम अपराधबोध (Guilty feeling) कहते हैं।
साल 1986 में जब स्पेस शटल चैलेंजर में विस्फोट कर गया और मिशन असफल हो गया, तो उस समय नासा के इंजीनियर रॉबर्ट एबलिंग अपराधबोध से ग्रसित हो गए थे। वे उन 5 बूस्टर रॉकेट इंजीनियरों की टीम के हिस्सा थे, जिन्होंने नासा के ठेकेदार मॉर्टन थियोकोल के लिए काम किया था। असल में एबलिंग स्पेस शटल लॉन्चिंग से एक दिन पहले अलार्म उठाने वाला पहले शख्स थे। यही कारण था इस मिशन की असफलता और 7 अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की मौत के जिम्मेदार वह खुद को मान रहे थे। एबलिंग को हमेशा लगता था कि वह उस विनाशकारी प्रक्षेपण और दुर्भाग्यशाली घटना को घटने से रोक सकते थे। इस अपराधबोध ने उन्हें नासा जैसे महत्वपूर्ण संगठन से रिटायर होने और अपने शेष जीवन एकांत की तरफ मोड़ लिया।
दरअसल, अपराधबोध हमारी आंतरिक भावनाओं से ट्रिगर होता है और पीड़ित इंसान अपने कार्यों के प्रति अहम जिम्मेदारी के चलते इस पीड़ा को झेलता है। सोशल साइकोलॉजिस्ट लियोन फेस्टिंगर की कॉग्निटिव डिसोनेंस थ्योरी अपराधबोध के कारणों पर कुछ प्रकाश डालती है। फेस्टिंगर का मानना है कि हममें से हर किसी के पास एक अंत:दृष्टि सोच मौजूद है, जो बताती है कि आखिर हम कौन हैं और हमें कैसा होना चाहिए।
हम लगभग हमेशा खुद का एक आदर्श प्रतिमूर्ति बनने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन, जब भी हम अपने वर्तमान स्व और अपने आदर्श स्व के बीच विरोधाभास की स्थिति का सामना करते हैं, तो हम खुद-ब-खुद भीतर से परेशान होने लगते हैं। इसे कॉग्निटिव डिसोनेंस कहते हैं। यही अपराधबोध की वजह भी बनता है, जो हमारे समक्ष मानसिक तनाव और तकलीफ के रूप मौजूद रहता है। दरअसल, इस तरह की भावना हमारे भीतर तब आती है, जब हमें मालूम पड़ता है कि हम अपने उम्मीदों पर खरे ही नहीं उतर पाए हैं। अधिकांश समय अपराधबोध वाले इंसान को लगता है कि जैसे उसने नैतिक रूप से किसी कायदे-कानून का उल्लंघन कर दिया है।
साइकोअनैलिसिस के संस्थापक और जाने-माने साइकोलॉजिस्ट सिगमंड फ्रायड की मानें तो कई बार हमारा स्वभाव हमारे व्यक्तित्व की अपेक्षा कम होने पर भी अंतत: बीते दिनों की बात हो जाती है। हम लोगों ने भी इस बात का अनुभव किया होगा कि नैतिकता से जुड़े कई घाव बदलते समय के साथ खुद-ब-खुद भर जाते हैं। मिसाल के तौर एक ऐसा इंसान जो अवैध संबंधों में रहा हो या किसी ने डरा-धमकाकर लोगों से पैसे वसूल किए हो। वह इंसान एक खास मोड़ पर पहुंचकर खुद को अपराधबोध व शर्मिंदगी महसूस कर सकता है। अंत में उस व्यक्ति को अपनी गलतियों का अहसास होता है और खुद में सुधार करता है और जीवन में आगे बढ़ जाता है।
कभी-कबार लाख कोशिशों के बाद भी अपराधबोध का भाव खत्म नहीं होता है। जैसे एबलिंग के मामले में हुआ था। फ्रायड के शोध से पता चलता है कि अगर हम इस पर काबू नहीं कर पाएंगे, तो अपराधबोध से ग्रसित व्यक्ति को यह गलत संगति या अनैतिक गतिविधियों की तरफ ढकेल सकता है। पश्चताप की आग में वह खुद को नुकसान पहुंचाना शुरू कर सकता है या शराब पीने, धूम्रपान, अधिक खाना या पैसे का गलत इस्तेमाल करने जैसे बुरी आदतों की गिरफ्त में आ सकता है।
मन में अधिक समय तक अपराधबोध का भाव बने रहने से यह वास्तव में किसी के मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए काफी नुकसानदायक हो सकता है। नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉर्मेशन की तरफ से प्रकाशित मोरल इमोशंस एंड मोरल बिहेवियर पर हुई एक स्टडी यह बताती है कि अपराधबोध किस तरह से किसी इंसान को बेहतर बनने की दिशा में मोटिवेट कर सकता है। सबसे पहले हमें पश्चताप बिल्कुल भी पसंद नहीं है और इसलिए हम ऐसे काम पर अपना ध्यान लगाते हैं, जिससे लगे कि हम कम दोषी है। दूसरी बात, अपराधबोध का भाव हमें यह इस बात से अवगत कराने में मदद कर सकता है कि हमें अपने व्यवहार में कहां बदलाव करना है और कैसे करना है। यह हमें बताता है कि जीवन में किस तरह का व्यवहार लोगों के लिए स्वीकार्य है और किस तरह का नहीं। अगर अपराधबोध को हल्के अंदाज़ में हम लेते हैं, तो यह हमें खुद की और दूसरों की भलाई के लिए काफी मोटिवेट करता है।
वास्तव में अपराध बोध की राह पर चलना एक नाजुक धागे के समान होता है, जिसके खतरे बहुत होते हैं। ऐसे में हम इसे कैसे जांच-परख सकते हैं? हम इस चीज को कैसे तय कर सकते हैं, जिससे यह हमें अनुपयोगी होने का आभास न कराए? जाने-माने साइकोलॉजिस्ट डॉ डेविड बर्न्स ने अपनी पुस्तक फीलिंग गुड: द न्यू मूड थेरेपी में अपराधबोध को प्रभावी तरीके से काबू में करने के लिए कुछ उपाय सुझाए हैं, जो इस प्रकार है;
छोटी बात को बढ़ा–चढ़ाकर कहना बंद करें (Choti baat ko badha-chadha kar kahana band karen)
कई बार ऐसा होता है कि हम किसी तरह की कोई गलती कर देते हैं, तो अपराधबोध के चलते उस गलती के लिए खुद को सज़ा देना शुरू कर देते हैं। लेकिन, एक बात अपने जेहन में ज़रूर रखें कि जिस गलती के लिए हम खुद को सजा दे रहे हैं, वह हमारी छोटी-सी गलती के लिए उपयुक्त नहीं है।
हमारे काम और हम के बीच फर्क को समझें (Hamare kaam aur hum ke bich fark ko samjhein)
अगर हम कोई काम करते हैं, तो उसकी जिम्मेवारी निभाना अपना फर्ज़ है। यह बात 100 फीसदी सही भी है। लेकिन, यह बात हमेशा याद रखें कि कोई भी काम हमें बुरा इंसान नहीं बनाते हैं।
खुद से प्रेम करना सीखें (Khud se prem karna sikhen)
अपनी गलितयों के लिए खुद को माफ करना हमें बेहतर बनाता है। यह हमें एक जिम्मेवार इंसान बनाने में काफी सहायता करता है। वहीं, दूसरी ओर अगर हम खुद को कोसते रहेंगे, तो यकीन मानिए हमारा व्यवहार और अधिक उग्र और बुरा हो जाएगा। इसलिए खुद से प्रेम करना सीखें।
गलतियों के लिए माफी मांगें (Galtiyon ke liye mafi mange)
अगर कोई व्यक्ति जाने-अनजाने में गलती कर बैठता है और वह अपनी गलतियों के लिए माफी मांग लेता है, तो इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। माफी मांग लेने से काफी फर्क पड़ता है। अक्सर गलतियां होने पर उसके बदले में लोग बेहद ही सिंपल ‘सॉरी’ पसंद करते हैं। मगर माफी मांगने के दौरान यह तय कर लें कि दूसरे लोग क्या इस बात को समझ रहे हैं कि हमने कोई गलती की है और उसके लिए माफी मांगना चाहिए। दरअसल, कभी-कबार हम अपनी गलतियों के बारे में कुछ ज्यादा सोचने लगते हैं।
अपनी गलतियों से सबक लें (Apni galtiyon se sabak lena)
गलतियां हर इंसान से होती है और काम के दौरान गलतियां स्वाभाविक भी हैं। लेकिन, इसका यह मतलब नहीं कि खुद को सज़ा देने में लग जाएं। अगर, हम अपनी गलतियों के लिए खुद को सज़ा देते हैं तो यकीन मानिए यह हमें कभी एक बेहतर इंसान नहीं बन सकती हैं। गलतियों से सबक लेना चाहिए। यह हमें एक अच्छा इंसान बनाने में मददगार साबित हो सकती हैं।