ऐसा हमेशा नहीं होता कि हमें कोई किताब बताई जाए और हम उस किताब को पढ़ने से ऐसे बचे जैसे हम कोई मुसीबत मोल लेने जा रहे हो। जब मुझे मेरे एक दोस्त ने ‘द बुद्धा, जियोफ एंड मी’ पढ़ने के लिए कहा, तो मुझे यकीन था कि इसमें बौद्ध धर्म को लेकर काफी बढ़ा चढ़ाकर अनाप–शनाप दावे किए गए होंगे। इसमें पंथ को लेकर रेफरेंस दिए गए होंगे।
जीवन में मैं इतना गलत कभी साबित नहीं हुआ।
यह एडवर्ड कनफॉर डुमास (Edward Canfor Dumas) की कहानी है, वो किस्मत का मारा है और एक रिश्ते में ताज़ी चोट खाया हुआ एक विफल कॉपीराइटर है। वह अपने उद्देश्यहीन जीवन को बिलकुल ऑटो पायलट मोड पर यूं ही गुजारे जा रहा है। कहानी के इस जीवंत नायक की ज़िंदगी में भी सबसे अहम लम्हा आता है। उस समय वह यह महसूस करता है कि ज़िंदगी की चुनौतियों को देखने का नज़रिया बदलने से आप किसी भी खराब से खराब स्थिति से बाहर आ सकते हैं। लेखक एडवर्ड कनफॉर डुमास ने अपनी ही ज़िंदगी की दास्तां को एड की रोज़मर्रा की समस्याओं से जोड़ते हुए कहानी बुनी है। इसमें एड के काम, रिश्ते, जीवन और बेहद मुश्किल दुनिया में ज़िंदा रहने का गुस्सा शामिल है।
सबसे असाधारण या यूं कहें कि यह उपन्यास आपका निचीरेन डायशोनिन के बौद्ध दर्शन से परिचय करवाता है। एड और जियोफ की मुलाकात किस्मत से एक इंग्लिश पब में होती है, जहां साथ में बियर पीते हुए उनका संवाद इस कम–परिचित बौद्ध दर्शन पर पहुंच जाता है।
जब आप उसे पढ़ते हैं, तो एड के साथ आप भी इस यात्रा पर निकल पड़ते हैं। उसकी आत्म खोज की यात्रा में आप भी सहयात्री बन जाते हैं। हम सभी के जीवन में शायद एक ‘एड’ है और एक ‘जियोफ’ भी। यह मेरी, आपकी कहानी हो सकती है या आपके पड़ोसी की भी हो सकती है।
अंग्रेजी में लिखी गई यह किताब एडवर्ड कनफॉर डुमास की ब्रिटिश संवेदनशीलता और वाक्यों का सही चयन ऐसी कहानी बुनता है, जो आधुनिक पाठकों को बरबस अपनी ओर खींच लेती है। अनौपचारिक शैली की किताब होने से आपको इसमें शेक्सपियर की भारी भरकम शब्दावली नहीं मिलेगी और आप इसे आसानी से पढ़ते चले जाएंगे। अनेक स्थानों जैसे पब, स्क्वायर और शानदार लंदन ट्यूब आदि का जीवंत वर्णन, लेखन को रोचक बनाते हैं और पाठक को किताब नीचे रखने से रोकने को मज़बूर करते हैं।
इस किताब में बेस्ट सेलर बनने की सारी खूबियां हैं। इसमें वह खूबी है, जो पाठक को पन्नों से परे देखने और सवाल करने के लिए प्रेरित करते हैं। कम ही किताबें और कम ही लेखक ऐसा कर पाते हैं। किसी भी लेखक के लिए अपनी पहली किताब में यह करना तो बहुत कठिन होता है।
‘द बुद्धा, जियोफ एंड मी’ उन लोगों को ज़रूर पढ़नी चाहिए जो कठिन दौर से गुज़र रहे हैं और उन्हें भी जिनके सामने अभी तक कोई भी बुरी परिस्थिति नहीं आई है।