वंदे मातरम् से हम सभी भारतीय पूरी तरह से वाकिफ हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यह हमारा राष्ट्रीय गीत है। इसको लिखा है बंगाल के फेमस साहित्यकार बंकिमचंद्र चटर्जी ने। यह गीत आज भी देश की संप्रभुता और एकता को रेखांकित करता है। इस गीत को आज़ादी के आंदोलन के समय हर कोई गाया करताथा। इस गीत को बंकिमचंद्र ने अपनी किताब आनंदमठ में शामिल किया था, जो 1882 में प्रकाशित हुई थी। इस उपन्यास ने उस समय क्रांतकारी विचारधारा में सामाजिक और राजनीतिक चेतना को बहुत ही जागृत किया था।
बंकिमचंद्र चटर्जी का जन्म 1838 में एक समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था। उनकी सबसे पहली प्रकाशित कृति दुर्गेशनंदिनी थी, जो 1865 में छपी थी। बंकिमचंद्र चटर्जी ने हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज से पढ़ाई की थी। उन्होंने 1857 में बीए किया और फिर 1869 में कानून की डिग्री ली। वो साहित्यकार होने के साथ-साथ सरकारी अधिकारी भी थे।
तो सोलवेदा हिंदी के इस आर्टिकल में आपकोहम बंकिम चंद्र चटर्जी (Bankim Chandra Chatterjee) के बारे में बताएंगे। साथ ही उनकी रचानओं और आनंदमठ लिखने के बाद किस तरह उस उपन्यास की चर्चा पूरी दुनिया में हुई उसके बारे में बताएंगे।
आनंदमठ में है संन्यासी आंदोलन और बंगाल अकाल की पृष्ठभूमि (Anandmath me hai sanyasi andolan aur bengal akal ki prishthbhumi)
आनंदमठ के लेखक बंकिमचंद्र चटर्जी ब्रिटिश शासन में डिप्टी कलेक्टर थे। उन्होंने आनंदमठ से पहले, इसके लेखन को अपनी साहित्यिक पत्रिका बंग दर्शन में किश्तों में छापा। इसके बाद उन्होंने आनंदमठ को उपन्यास का रूप दिया। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बंगाल का अकाल और संन्यासी आंदोलन (Sanyasi Vidroh) है। ये दोनों घटना उस समय की तत्कालिक बातें थी, जिसने लोगों को बहुत ही प्रभावित किया था।
आनंदमठ में मूलरूप से बिहार के पूर्णिया, दानापुर और तिरहुत में अंग्रेज व स्थानीय शासकों द्वारा किस तरह स अन्याय किया जा रहा था, इसकी कहानी है। उपन्यास में, उस समय जो अंग्रेजों के खिलाफ संन्यासी विद्रोह हुआ, उसमें हिंदू सन्यासियों ने किस प्रकार स्थानीय शासकों को हराया था, इसकी कहानी भी लिखी हुई है। वो एक जगह लिखते हैं कि हमने अपना धर्म, जाति, इज़्ज़त और परिवार का नाम खो दिया। हम अब अपनी ज़िंदगी भी गवां देंगे, जब तक कि इनको भगायेंगे नहीं। इन बातों ने आम लोगों में आज़ादी को लेकर जुनून भरा। इस उपन्यास ने बंगाल के लोगों पर ही नहीं बल्कि पूरे देश के लोगों पर गहरा असर डाला। इस उपन्यास में बागी संन्यासी जो गीत गाते हैं ‘वंदे मातरम’ वो पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ एक तरह से युद्धघोष का प्रतीक बन गया।
वंदे मातरम से जुड़ी हैं अलग-अलग कहानियां (Vande mataram se judi hai alag alag kahaniyan)
वैसे तो बंक्रिम चंद्र चटर्जी ने 1870 में वंदे मातरम की रचना की थी, लेकिन यह भारत का राष्ट्रगान कैसे बना गया वह कहानी बहुत ही रोचक है। जब भारत आज़ाद हुआ, तो संविधान सभा के अध्यक्ष और पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की कि ‘वंदे मातरम’ को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया जा रहा है। वंदे मातरम् में बंकिम चंद्र चटर्जी ने भारत को मां दुर्गा का स्वरूप मानते हुए देश के लोगों को उनका संतान बताया। भारत को मां दुर्गा का स्वरूप मानने के कारण इसे मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग स्वीकार नहीं कर रहे थे। विवाद को देखते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर से सलाह ली। इसके बाद रवींद्र नाथ टैगोर ने नेहरू से कहा कि वंदे मातरम् के पहले दो छंद को ही सार्वजनिक रूप से गाया जाए। गुरुदेव रवींद्र नाथ ने इसके लिए धुन तैयार की थी। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता पूरी दुनिया में फैल गई।
आनंदमठ को माना गया है राष्ट्रवाद का प्रतीक (Anand Math ko mana gaya hai rashtravad ka pratik)
आनंदमठ उपन्यास में जिस तरह से बंकिम चंद्र चटर्जी ने कहानी कही और लिखी, जो आनंदमठ राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गई। बंकिम चंद्र के निधन के बाद जब क्रांतिकारी बिपिन चंद्र पाल ने पत्रिका निकाली, तो उन्होंने उनका नाम वंदे मातरम् रखा। वहीं, लाला लाजपत राय भी वंदे मातरम् नाम से पत्रिका का प्रकाशन करते थे। आज़ादी के आंदोलन में वंदे मातरम् का नारा हर क्रांतिकारी के जुबान पर चढ़ गई थी। इसके साथ ही बंकिम चंद्र चटर्जी को पूरे विश्व में जाना जाने लगा। आनंदमठ राष्ट्रवाद का वो प्रतीक बना गया, जिसे लेकर महर्षि अरविंद घोष ने बंकिम चंद्र चटर्जी को ‘राष्ट्रवाद का ऋषि’ करार दिया। तो देखा जाए तो आनंदमठ की रचना के बाद बंकिम चंद्र चटर्जी विश्वभर में साहित्य जगत का जाना-माना चेहरा बन गए।
यह आर्टिकल पढ़कर आपको कैसा लगा, हमें कमेंट करके जरूर बताएं। साथ ही इसी तरह की और भी जानकारी के लिए पढ़ते रहें सोलवेदा हिंदी।