ट्रेन का वो यादगार सफर

ट्रेन का वो यादगार सफर…

स्नैक्स वाले भईया ने कहा, मैडम 200 रुपए का चेंज नहीं है। 50 रुपए हैं तो दीजिए। मैं यूपीआई से पेमेंट कर ही रही थी कि भईया ने कहा... कहीं ये आपकी ट्रेन तो नहीं, मैंने तुरंत कहा.... हां भईया मेरी ही ट्रेन है। उन्होंने कहा, वो तो खुल गई। फिर मैंने जल्दी-जल्दी पेमेंट किया और भागी ट्रेन के पीछे।

मैं दिव्या, बहुत दिनों से मेरा मन न ऑफिस में लग रहा था और न ही दोस्तों के साथ। मैंने सोलो ट्रैवलिंग (Solo Traveling) की भी सोची। लेकिन मेरा मन वहां भी नहीं लगा। फिर मैंने ऑफिस से छुट्टी ली और ट्रेन की टिकट कटवा ली, मैं चाह रही थी कि कुछ दिन फैमिली के साथ सुकून के पल बिताउं। अगले दिन मुझे दोपहर में ट्रेन पकड़नी थी। मैंने अपना सारा सामान रात में पैक किया और सोने चली गई।

सुबह उठी और नहाने व नाश्ता करने के साथ छोटे मोटे काम को निपटाते-निपटाते समय हो चुका था। मैंने कैब बुक की और स्टेशन की ओर चल पड़ी। प्लेटफॉर्म पर कुछ देर इंतजार करने के बाद मेरी ट्रेन आ चुकी थी। मैं अपनी बर्थ पर जाकर बैठ गई, वहीं सामान बर्थ के नीचे रख दिया। इत्तेफाक से मुझे मेरी फेवरेट सीट लोअर बर्थ मिली थी। कान में ईयर फोन डाल मैं बाहर के नजारे को निहारने लगी और देखते ही देखते मुझे नींद आ गई।

हल्के झटके के साथ ट्रेन रुकी, मैंने बाहर देखा तो एक छोटा सा स्टेशन था। वहां गर्मागर्म चाय बिक रही थी। मैं ट्रेन से उतरी, पहले चाय पी फिर सोची थोड़ा स्नैक्स ले लेती हूं। बीच-बीच में मैं पीछे मुड़कर अपनी ट्रेन देख ले रही थी कि कहीं वो खुल तो नहीं रही। स्नैक्स वाले भईया ने कहा, मैडम 200 रुपए का चेंज नहीं है। 50 रुपए हैं तो दीजिए। मैं यूपीआई से पेमेंट कर रही थी कि भईया ने फिर कहा… कहीं ये आपकी ट्रेन तो नहीं, मैंने जवाब दिया… हां भईया मेरी ही ट्रेन है। उन्होंने कहा, वो तो खुल गई। फिर मैंने जल्दी-जल्दी पेमेंट किया और भागी ट्रेन के पीछे। अबतक ट्रेन की रफ्तार इतनी तेज़ हो चुकी थी कि मैं उसे पकड़ ही नहीं पाई। ट्रेन पकड़ने के लिए मैं करीब 200 मीटर तक भाग चुकी थी, मैं जोर-जोर से हांफ रही थी। थक कर मैं पास के बेंच पर बैठ गई। घर के लिए मेरा ये खास सफर अब अजीब सफर में बदल चुका था। मुझे समझ में ही नहीं आया और मेरी आंखों से आंसू निकलने लगे… मैं क्या करुं, अब कैसे घर जाऊं। मेरे पास मोबाइल और हाथ में 200 रुपए के नोट के अलावा कुछ भी न था। सर्दियों का मौसम था और मैं लोअर और टी शर्ट में थी। मैं घर कैसे जाउंगी, अब क्या करुंगी… यही सोच-सोचकर मैं घबरा रही थी।

फिर उसी चाय वाले ने मुझे देखकर कहा कि स्टेशन मास्टर से मिलो और बताओ कि आपकी ट्रेन छूट गई है, मैं भागते-भागते स्टेशन मास्टर के पास गई। वहां मालूम चला कि वे अभी ही निकले हैं, कुछ देर में आएंगे। मैं वहां वेटिंग रूम में बैठकर उनका इंतजार करने लगी। पता नहीं क्यों पर इस बीच मुझे काफी घबराहट हो रही थी। कुछ देर बाद स्टेशन मास्टर आ गए, मैंने उनको अपनी सारी बात बताई, थोड़ा झुंझलाते हुए उन्होंने कहा, तुम नौजवानों की यही बुरी आदत है। कान में हेडफोन लगा लेते हो और कुछ पता ही नहीं चलता है। खैर मैं फोन कर बोल देता हूं। तुम्हारा सामान देहरादून में उतर जाएगा और वहां जाने की अगली ट्रेन कल है। तब तक वेटिंग रूम या फिर पास के किसी होटल में तुम रुक सकती हो। और सुनो… ये जगह ठीक नहीं है, अपना ख्याल रखना। मैंने कहा, सर मगर मेरे पास तो पैसे ही नहीं हैं। स्टेशन मास्टर बोले, वो भी मेरी ही दिक्कत है क्या, आप समझो गलती भी आपकी ही है।

फिर क्या था, हाथों में चिप्स और बिस्किट के पैकेट पकड़े मैं उसी बेंच पर चली गई और बैठ गई। मोबाइल में बैटरी भी खत्म हो गई थी और हाथ में सिर्फ 200 ही रुपए थे। मैं क्या करुं, कैसे समय बिताउं कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। देखते-देखते सूरज ढल गया और मुझे ठंड लगने लगी। अपनी ही हाथों से खुद को लपेटकर गर्मी देने की कोशिश करते हुए मैं आते-जाते लोगों को निहार रही थी। मैंने खुद को इतना बेबस और लाचार कभी महसूस नहीं किया था। मैंने भी सोच लिया आज के बाद मैं ऐसी गलती नहीं करुंगी। रात के 8 बजे होंगे कि स्टेशन पर लोगों की भीड़ कम होती जा रही थी। अब तो इक्का-दुक्का लोग ही दिख रहे थे। वहीं, कुछ आवारा लोग नशे की हालत में मेरे आसपास भटक रहे थे। बीच-बीच में वो मुझे देख रहे थे, मुझे तो उन्हें देखकर डर लग रहा था। सामने से आते-जाते उन्होंने मुझे देखा और बात करने की भी कोशिश की। लेकिन, मैंने उन्हें नज़रअंदाज कर दिया।

पास में जो चिप्स और बिस्किट था, मैंने उसे खाकर अपनी भूख मिटाई। इसके कुछ देख के बाद ही वो बदमाश लड़के फिर मेरे पास आ गए और मेरे साथ बदतमीजी करने लगे। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करुं, उसी में से एक ने कहा पैसे निकाल। … मैंने डरते हुए कहा… पपप… पैसे, वो तो नहीं हैं मेरे पास, उन्होंने कहा, जो कुछ है वो निकाल….। उनमें से एक लड़का बुरी नज़र से मुझे देख रहा था, वो हाथ मेरी ओर बढ़ा रहा था और उससे बचना चाहती थी। मेरा दिल जोड़-जोड़ से धड़कने लगा… इतने में कुछ गिरने की आवाज़ आई और किसी बच्चे की आवाज़ आई… अरे दीदी उठो, ये आपका मोबाइल है…. मैं उठी तो मैं अभी भी ट्रेन की उसी सीट पर थी। मेरी आंख लग गई थी और मानो मुझे एक ऐसी सीख भी मिल गई थी, जो गलती मैंने की ही नहीं थी। अब मैंने भी ठान ली, न तो मैं किसी स्टेशन पर उतरूंगी और न ही कान में हेडफोन डालकर प्लेटफॉर्म पर उतरुंगी। अब खुद को अपनी बर्थ पर पाकर सांस में सांस आई। इस यादगार सफर को मैं शायद कभी न भुला पाउं।

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