वह हमेशा से एक बेटा चाहता था- जो उसकी ही प्रतिमूर्ति हो, एक ‘आदर्श’ लड़का जिसे वह एक अच्छा युवा और एक जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए उसका पालन करेगा। वह अक्सर एक पिता होने की कल्पना करता था, अपनी उस कल्पना में वह अपने बेटे को खेलते हुए देखता था, उसे पढ़ाता था और अगर वह अपनी सब्ज़ियां नहीं खाता था तो उसे प्यार से फटकार लगाता था। अपनी पत्नी की गर्भावस्था के दौरान वह अक्सर अपनी पत्नी से कहता था, “हम अपने बेटे की परवरिश इस तरह करेंगे कि वह रिश्तों को महत्व देगा। वह लोगों की परवाह करेगा। जब हम बूढ़े हो जाएंगे तब भी हमारा बेटा हमारे पास ही रहेगा इसलिए नहीं कि ऐसा करना उसकी मज़बूरी होगी बल्कि इसलिए कि वह भी ऐसा ही चाहेगा।“
जैसे ही वह प्रसव कक्ष के बाहर बेसब्री से बाहर आया, उसके पीछे-पीछे उनकी डॉक्टर भी मुस्कुराते हुए बाहर आई, “बधाई हो, आपकी बेटी हुई है!” बेशक, वह भी खुशी के साथ वापस मुस्कुराया। फिर भी, एक खामोश निराशा उसके दिल में छा गई थी। क्या मैं दुखी हूं? क्या मैं दुखी हूं क्योंकि हमारा बेटा नहीं हुआ? बेटी हुई है। या फिर ऐसा इसलिए है क्योंकि मुझे बेटी नहीं चाहिए थी? मैं एक शिक्षित, खुले विचारों वाला व्यक्ति हूं। बेशक, यह मेरी उदासी का कारण नहीं हो सकता।
यह एक भावनात्मक यातना थी! वह अब इस तरह के विचारों को दिमाग में नहीं लाना चाहता था। मुझे मेरी बेटी की परवरिश करने में भी उतनी ही खुशी होगी।
अभी भी कई तरह के विचारों से जूझते हुए, वह अपनी पत्नी और बेटी को देखने गया। अगले ही पल उसने अपनी नन्ही-सी बच्ची को अपने हाथों में ले लिया। जब उसने अपनी बच्ची को अपनी बाहों में पकड़ा तब आखिरकार उसे ‘शुद्ध प्रेम’ का मतलब समझ में आ गया था।
जब उसने पहली बार उसे देखा तो उसने उसके लिए गहराई से सुरक्षा की भावना को महसूस किया। लेकिन फिर भी, निराशा की भावना उसे अंदर से कचोट रही थी।
समय बीतता गया और बहुत कुछ बदल गया था। उसने अपनी प्यारी पत्नी को एक घातक ट्यूमर में खो दिया। अपनी पत्नी की मृत्यु शय्या पर, उसने अपनी पत्नी से उनकी बेटी को अकेले ही पालने का वादा किया और उसने अपना वादा पूरी तरह निभाया भी था। लेकिन अपनी पत्नी को खोने और अकेला अभिभावक होने के 10 साल बाद भी, उसकी बेटी के साथ उसके रिश्ते में एक औपचारिकता हमेशा बनी रही। अक्सर, यात्रा करते समय और अपनी नियमित शाम की सैर करते हुए वह उसके भविष्य और भलाई के बारे में सोचता रहता था। लेकिन आज भी, अभी भी वह एक बेटे के लिए तरस रहा था और सोचता था कि यदि उसका बेटा होता तो उनका आपस में कैसा रिश्ता होता।
समय बीतता गया और सब कुछ वैसा का वैसा ही था, कुछ भी नहीं बदला था। खैर, एक बात जरूर बदल गई थी- उसकी बेटी की शादी हो गई थी और वह अपने जीवनसाथी के साथ चली गई थी। लेकिन उसके लिए जीवन अभी भी वैसा ही था, सिवाय इसके कि वह बहुत उम्रदराज हो गया था और अब अधिक समय तक सैर करता था। एक रविवार की शाम को जब वह अपनी सैर से वापस आने लगा तो खुद को बहुत अकेला और उदास महसूस कर रहा था, उसके खाली, अंधेरे से घिरे घर में वापस जाने से उसे घबराहट हो रही थी। जैसे ही वह अपने घर के मुख्य द्वार के पास से गुजरा, उसने देखा कि उसके घर में रोशनी थी, दरवाजा खुला हुआ था और उसकी बेटी और दामाद एक साथ वहां खड़े हुए मुस्कुरा रहे थे। “पिताजी, हमने सोचा कि अगर हम एक-दूसरे के करीब रहेंगे तो यह सही रहेगा। उससे भी बेहतर होगा, अगर हम एक-दूसरे के पड़ोस में रहे! हमने ऐसी ही एक शांत गली में, एक दूसरे से लगे हुए दो घर देख रखे है जो यहां से ज्यादा दूर भी नहीं हैं। आपकी लंबी सैर के लिए वहां एक सुंदर पार्क भी है। आपकी इस बारे में क्या राय है?”
यह सुनकर वह इतना भावुक हो गया कि अपनी बेटी से उसके लिए की जाने वाली परवाह के जवाब में वह शब्दों में कुछ बयां नहीं कर सका। उसने बस बदले में स्वीकृति में अपना सिर हिलाया और धीरे से मुस्कुरा दिया।
महीनों बाद पार्क में घूमते हुए, वह अपने जीवन की बीती हुई घटनाओं पर विचार कर रहा था। उसे इस बात का एहसास हुआ कि उसके मन में बेटे की इच्छा और पिता-पुत्र के रिश्ते में जो प्यार, देखभाल और सुरक्षा उसने चाही थी, उस बेटे के साथ, जो कभी पैदा ही नहीं हुआ था। अब वह उस ख़्वाहिश को भूल ही गया था।
अपनी नादानियों के कारण हम अपने जीवन में प्यार को कही और ढूंढ रहे होते हैं, जबकि प्यार आपसे कहीं दूर नहीं होता है बल्कि आपके आस-पास ही होता है। इस एहसास से अभिभूत होकर वह मुस्कुराया।
सैर खत्म करके वह अपने घर की तरफ चल दिया जहां उनकी बेटी चाय के गर्म प्याले के साथ उसका इंतज़ार कर रही थी। उसकी लंबे समय से चली आ रही निराशा अब आनंद में बदल गई थी।