कहानी डाकिए की

डाकिए वाले का दर्द…

मैंने साइकिल का स्टैंड उठाया और घंटी बजाते हुए बसंतपुर पंचायत की ओर चल पड़ा। रास्ते में पहला गांव भरौली पड़ता है, यहां एक आदमी को ज्वाइनिंग लेटर और 12 अन्य लोगों को चिट्ठियां देनी थीं।

रामगढ़ के बसंतपुर पंचायत में डाक विभाग का एक छोटा-सा ऑफिस है। मैं यानि चुनमुन सिंह, पेशे से एक पोस्टमैन, सालों से यहीं काम कर रहा हूं।

सुबह का वक्त है और मैं अपने रोज़मर्रा के काम में जुट गया हूँ। मैंने सोचा कि ज़रा देखूं तो आज मेरे हिस्से में क्या-क्या आया है। देखने पर पता चला कि आज मुझे दो मनी ऑर्डर, 3 ज्वाइनिंग लेटर और 40 चिट्ठियां लोगों तक पहुंचानी हैं। यह देखने के बाद मुझे लगा मेरी तो किस्मत ही चमक गई। मैंने ईश्वर से दुआ मांगी कि ऐसी खुशखबरी वाली चिट्ठियां मेरी झोली में हमेशा आती रहें।

चिट्ठियां बांटने की खुशी में मैंने साइकिल का स्टैंड उठाया और घंटी बजाते हुए चल पड़ा बसंतपुर पंचायत की ओर। रास्ते में पहला गांव भरौली पड़ता है, यहां एक व्यक्ति को ज्वाइनिंग लेटर और 12 अन्य लोगों को चिट्ठियां देनी हैं। एक-एक इंसान का पता और नाम मुझे मुंह-ज़बानी याद है।

रास्ते में रमेश चाचा मिलें। मैंने उन्हें सलाम किया, तो उन्होंने सवाल दाग दिया… ‘अरे चुनमुन, मेरे बेटे की कोई चिट्ठी या मनी ऑर्डर आई है क्या?’ जल्दबाजी में होने के कारण, मैंने साइकिल रोके बिना कहा… चाचा अभी तक नहीं आई है, आप चिंता मत कीजिए, आते ही आपको बताता हूं। यह बोलकर मैं आगे बढ़ गया।

रमेश चंद्र के बेटे श्याम चंद्र का ज्वाइनिंग लेटर आया है, इसलिए मैं सबसे पहले उनके दरवाज़े पर गया और बाहर से ही चिल्लाने लगा… अरे रमेश भाई…. कहां हैं… जल्दी आइए। इतने में अपने गमछे से मुंह पोछते हुए रमेश चंद्र आएं और बोलें… ‘अरे चुनमुन जी… आइए, आइए.. स्वागत है, बैठिए और बताइए क्या लाएं हैं मेरे लिए।’ मैंने कहा, खुशखबरी है… पहले मुंह मीठा कराइए, फिर दूंगा।

इतने में रमेश जी ने अपनी पत्नी से तेज़ आवाज़ लगाते हुए कहा… अजी सुनती हो.. चुनमुन भाई के लिए मिठाई लेती आना। उनका बेटा श्याम भी आवाज़ सुनकर घर के दरवाजे पर आ गया। मैंने मिठाई खाने से पहले श्याम का मुंह मीठा कराते हुए उसका ज्वाइनिंग लेटर उसके हाथ में थमाया और कहा… देश की सेवा करने के लिए तैयार हो जाओ, ये लो सरकारी नौकरी की चिट्ठी।

इतने में श्याम की मां की आंखों से जहां खुशी के आंसू टपकने लगे, वहीं पिता रमेश चंद्र का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। श्याम ने चिट्ठी खोलने से पहले, मेरे पैर छूकर आशीर्वाद लिए और फिर चिट्ठी को पढ़कर सुनाया। अब जाने के लिए मैंने अपनी साइकिल उठाई ही कि इतनी देर में रमेश भाई बोल पड़े, ‘अरे चुनमुन तुम्हें ऐसे ही जाने थोड़ी देंगे…’!

यह कहते हुए उन्होंने धोती के कोने की गठड़ी खोली और उसमें से 50 रुपए निकालते हुए मुझे दिए और कहा ‘बच्चों के लिए भी मिठाईयां लेते जाना।’ मैंने उनका शुक्रिया अदा किया और निकलते वक्त एक बार फिर से उन्हें बधाई दी।

साइकिल चलाते हुए मैं पहुंच गया कमलावती चाची के पास। उनका बेटा दिल्ली में नौकरी करता है। उनके दरवाजे पर पहुंचते ही मैंने तेज़ आवाज़ लगाई, चाची… जल्दी आइए, मुझे गांव भर में चिट्ठियां बांटनी हैं। चाची लाठी लिए धीरे-धीरे मेरी ओर चली आ रही हैं। उन्होंने कहा… रुको चुनमुन, बुढ़िया को क्यों सताते हो, ‘आ रही हूं… रुको, रुको…!’

चाची जैसे ही आईं तो मैंने झट से उनके हाथों में चिट्ठी थमाते हुए कहा… चाची ये लीजिए आपके बेटे की चिट्ठी है। यह कहते हुए, मैं चलने को हुआ ही कि चाची ने मेरे हाथ पकड़ते हुए कहा… ‘चुनमुन बड़ी तेज़ी में है। ज़रा पढ़कर भी सुना दे, क्या लिखा है मेरे बेटे रवि ने।’

मैंने कहा, चाची मैं जल्दी में हूं… लेकिन, आप कह रही हैं इसलिए सुना रहा हूं। मैं दरवाजे पर बने चबूतरे पर बैठ गया और चिट्ठी खोलकर पढ़ना शुरू किया…

प्रिय मां,

आशा करता हूं परिवार में सभी स्वस्थ और खुशहाल होंगे। अगले महीने मैं रीना की शादी के लिए पैसे भेजूंगा। उनमें से तु गहने और कपड़ों की खरीदारी कर लेना। रीना को कहना, मैं रक्षाबंधन में नहीं आ पाया था, तो इन पैसों से अपने लिए कपड़े खरीद ले। ईश्वर से कामना करता हूं कि आप सभी खुशहाल रहें। मैं भी जल्द आऊंगा और आकर रीना की शादी का समय पक्का करूंगा।

आपकी चिट्ठी का इंतजार रहेगा। चिट्ठी पढ़ते ही मुझे जबाव लिखना और वहां का शुभ संदेश देना। मेरी तरक्की हो गई है। इस बार मुझे पदोन्नति भी मिली है, पूरे 300 रुपए बढ़ाएं हैं मालिक ने, किसी भी प्रकार की परेशानी हो तो बताना।

आपका अपना

रवि

चिट्ठी पढ़कर जैसे ही मैंने अपनी आंखें ऊपर उठाईं, मुझे चाची के गालों से लुढ़कते हुए हुए आंसू साफ दिखने लगे। मगर अच्छी बात ये है कि उनकी आंखों में खुशी के आंसू हैं।

मैंने माहौल की गंभीरता को तोड़ते हुए कहा, ये लीजिए चाची… अपनी चिट्ठी और मुझे इजाज़त दीजिए… आज बहुत काम है। वहां से निकलने के लिए मैंने अपना झोला उठाया ही कि चाची ने अपनी पुरानी फटी हुई साड़ी से आंसू पोछते हुए कहा, ‘बेटे पानी तो पीते जाओ’। धूप इतनी तेज़ थी कि मैंने सोचा पानी पी लेता हूं। रीना पानी का ग्लास और गुड़ लेकर मेरे पास आ गई। मैं पानी पीकर आगे निकल पड़ा।

अब मैं पहुंचा धर्मेंद्र यादव के घर पर। घर के बाहर उनका बेटा गाय को चारा खिला रहा है। मैंने कहा, अरे आकाश.. पिताजी को बुलाना… मनी ऑर्डर आया है। इतना सुनते ही दौड़े-दौड़े धर्मेंद्र अपनी धोती को पकड़ते हुए मेरे पास आ पहुंचें और बोलें… ‘भगवान का भला हो कि उन्होंने तुम्हें भेजा। कितने का मनी ऑर्डर आया है?’

उनकी आंखों की झिलमिलाहट देखकर मुझे काफी अच्छा लगा। मैंने कहा, चाचा 400 रुपए का, यहां अंगूठा लगाइए…! चाचा की भीनी-भीनी मुस्कान में मैं एक पल के लिए खो गया। उनके अंगूठा लगाते ही, मैं जाने को हुआ लेकिन उन्होंने मुझे 5 रुपए दिए और कहा, ‘बेटे कुछ खा लेना’। मैंने मना करते हुए कहा… चाचा रखिए, अभी आपको इन पैसों की ज्यादा ज़रूरत है, सब ठीक हो जाए तो बाद में दीजिएगा। धर्मेंद्र चाचा ने कहा, ठीक है बेटा, ‘भगवान तुम्हें खूब खुश रखें।’

दरअसल, चाचा की आर्थिक स्थिति मुझे अच्छी तरह पता है। असल में इनकी पत्नी हाल ही में चल बसी, ऐसे में इनके बेटे ने मां के अंतिम काम के लिए पैसे दिए। इस वजह से मैं नहीं चाहता हूं कि इनके पैसे लेकर, इन्हें मुसीबत में डालूं।

साइकिल लेकर आगे बढ़ा ही कि कोई कभी मुझे प्रणाम कहता, तो बड़े-बुजुर्ग मुझे आशीर्वाद देते नहीं थकते… इतना सम्मान पाकर मैं अंदर ही अंदर काफी खुशी महसूस कर रहा हूं। इतने में पोस्ट मास्टर ने मेरे कंधे को झकझोरते हुए मुझे नींद से उठाया। चुनमुन उठो… ‘आज लोगों को चिट्ठियां देने नहीं जाना है क्या?’

भरे मन से मैंने कहा… जाता हूं सर, मैं तो बस पुराने दिनों के ख्यालों में खो गया था। वहीं चिट्ठी देने के बाद आपको आकर बताता हूं, मैंने कौन-सा सपना देखा। पोस्ट मास्टर बोलें… ‘हां… हां बताना,पर अब तुम जल्दी जाओ।’

मैं सारी चिट्ठियां समेटकर बाइक स्टार्ट की और हेलमेट पहनकर निकल पड़ा सफर की ओर। अब बसंतपुर पंचायत नहीं रह गई है, बल्कि स्मार्ट सिटी बन चुकी है। एक अपार्टमेंट के नीचे आकर खड़ा हुआ और लोगों से पता पूछने लगा, अरे भाई साहब… यहां रमेश श्रीवास्तव का कौन-सा फ्लैट है… 10 लोगों से पूछा तो किसी ने नहीं बताया।

इस वक्त मुझे वह मंजर याद आ रहा है जब गांव में मेरी साइकल की घंटी की आवाज जैसे ही सुनाई देती थी, गांव के बच्चे पीछे-पीछे दौड़कर मुझे हर घर तक बिना कहे छोड़ आते थे।

तब के मुकाबले लोग आज ज्यादा हैं, सिटी भी स्मार्ट है, लेकिन मैं नादान ..अभी भी सालों पहले के समय में अटका हुआ हूं। खैर, किसी के पता नहीं बताने पर,हारकर मैंने उन्हें फोन लगाया।

फोन रिसीव होने पर मैंने कहा, नमस्कार सर, आपके बैंक की तरफ से चिट्ठी आई है, मैं आपके फ्लैट के नीचे हूं। उन्होंने कहा, ‘ये बैंक वाले भी न… लेटर घर क्यों भेज दिया? मैंने कहा था, मेल करने के लिए… आप ऐसा कीजिए, लिख दीजिए कि मैं घर पर नहीं था और चिट्ठी लेते जाइए अपने साथ।’

लोगों की ऐसी जल्दबाजी देखकर मेरा दिल बैठा जा रहा है। कुछ घंटों पहले देखा सपना और आंखों के सामने चल रही हकीकत आपस में कितनी अलग है। एक समय था जब लोगों के पास वक्त और जज़्बात दोनों थे, और आज दोनों ही नहीं है।

जिस चिट्ठी को देने के लिए मैं इतनी उत्साह से निकला था, उस चिट्ठी की तो दूर.. सामने वाले इंसान को एक इंसान के इतनी दूर तक आने की भी परवाह नहीं है।

मैं सोच रहा हूं कि … वो पुराने दिन ही अच्छे थे, जब लोग मुझे इज़्ज़त देने के साथ सिर पर बिठाकर रखते थे। अब तो कोई पानी के लिए भी नहीं पूछता। क्या इसी को तरक्की कहते हैं। हे भगवान… तूने हर किसी को तरक्की दी… पर मुझे ये कैसी तरक्की दी है? आधुनिकता ने दो लोगों के बीच की दूरी को कम तो बेशक किया है, लेकिन इसी आधुनिकता ने दो लोगों को पास होते हुए भी दिलों से दूर कर दिया है।

ऑफिस आने के बाद स्टेशन मास्टर को जब मैंने अपने सपने और आज के दिन के बारे में बताया तो उनकी आंखों में भी आंसू थे और इस बार ये आंसू दुख के थे, जो मेरी… यानि डाकिए वाले की कहानी का दर्द साफ बता रहे थें।

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