सेल्फ डाउट को छोड़ पूरे कॉन्फिडेंस के साथ करें हर काम

संशय का काट ढूंढ़ना मुश्किल काम हो सकता है लेकिन यदि हम अपने सपनों को पूरा करने की उम्मीद रखते हैं और हम सक्षम हैं, तो यह करना बेहद ज़रूरी होता है।

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हर कोई अपने जीवन में कभी ना कभी सेल्फ डाउट से अक्सर परेशानी में घिरा रहता है। यहां तक कि वैसे लोग जिनका दिमाग तेज़ होता है वो भी जब कुछ नया करने की कोशिश करते हैं, तो उन्होंने भी आत्म संदेह के सामने अपने विश्वास को डगमगाते हुए पाया है। अमेरिकी कवियत्री सिल्विया प्लाथ ने एक बार अपनी पत्रिका में लिखा था: ‘वैसे तो, जीवन में सब कुछ लिखने योग्य है। यदि आपके पास यह करने की हिम्मत और उसमें सुधार करने की इच्छा है व सक्षम हैं। रचनात्मकता का सबसे बड़ा दुश्मन आत्म संदेह है।

परेशानी तो तब आती है जब आपके दिमाग में फेल होने का डर आता है। हम आत्म संदेह के छोटे और गैर-ज़रूरी उदाहरणों को तो नज़रअंदाज़ कर सकते हैं, लेकिन जब महत्वपूर्ण मामलों की बात सामने आती है, तो उस स्थिति में क्या होगा। ऐसे में शुरुआती प्रश्न ही हानिकारक साबित हो सकते हैं। हर बार जब कोई कार्य हाथ में होता है, तो हमारे दिमाग में एक आवाज़ धीमे से फुसफुसाती है: क्या होगा यदि इस बार भी पहले की तरह विफलता मिली? तुम इस काम को करने के लायक नहीं हो। तुम कोशिश भी मत करना। तुम इस काम के लायक नहीं हो। आपको ढलान की ओर ले जाने वाली सेल्फ डाउट की यह ऐसी गली है जहां जाकर किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षाएं कुचल जाती हैं व उन्हें सक्षम (Able) बनाने की बजाय वो हासिल करने से रोकती हैं, जो वे हासिल करने में सक्षम होते हैं।

ऑर्गनाइजेशन डेवलपमेंट कंसल्टेंट स्वस्तिका राममूर्ति कहती हैं, ‘सेल्फ डाउट खुद पर, अपने संसाधनों व क्षमता पर विश्वास नहीं करने जैसा है’। इसके अलावा, उनका मानना है कि आत्म संदेह से ग्रस्त लोगों में खुद के भीतर आश्रय लेने की भी जगह नहीं होती। अत: वे निर्णय लेने में सक्षम (Saksham) नहीं होते हैं। वे लगातार सोचते हैं, मुझे नहीं पता कि मैं क्या कर रहा हूं, मैं किस तरह के निर्णय लेकर क्या फैसला ले रहा हूं। इस वजह से, वे अक्सर अपनी पसंद की पुष्टि के लिए दुनिया को देखते रहते हैं। जब कोई खुद पर भरोसा नहीं करता, तो वह बस यही कर सकता है।

क्या आत्म संदेह (Aatm Sandeh) जन्मजात होता है? सायकोलॉजिकल डेवलपमेंट इन इनफैंसी एंड अर्ली चाइल्ड हुड को लेकर सायकोलॉजिस्ट एरिक एरिकसन की थ्योरी इस सवाल का जवाब देती है। एरिकसन के अनुसार, सामाजिक अनुभव बच्चों को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। बच्चे अपने स्कूल जाने से पहले के वर्षों के दौरान ही खेल व सामाजिक बातचीत से अपनी शक्ति का प्रयोग करना शुरू कर देते हैं। यदि वे इस चरण में सफल होते हैं, तो वे लोगों का नेतृत्व करना सीख जाते हैं। यदि शुरुआती दौर में वे इस कौशल को हासिल नहीं करते हैं, तो वे आमतौर पर वयस्कता में आत्म-संदेह से ग्रस्त रहते हैं।

जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते हैं, उनमें खुद के फैसले लेने में कमी आती है। उदाहरण के लिए बहुत से बच्चे बड़े होकर डांसर, एक्टर, गायक, लेखक, साइंटिस्ट और एस्ट्रोनॉट्स बनने की इच्छा रखते हैं। उन्हें अपने सपनों पर तब तक विश्वास होता है जब तक कि उन्हें यह नहीं बताया जाता कि वे वैज्ञानिक नहीं बन सकते। क्योंकि वे उतने बुद्धिमान नहीं हैं या अभिनेता नहीं बन सकते, क्योंकि वे इतने आकर्षक नहीं हैं। इस तरह की नकारात्मक प्रतिक्रियाएं समय के साथ-साथ बच्चे के दिमाग में घर कर जाती हैं और बड़े होने पर वह उसके द्वारा लिए गए सभी निर्णयों में दिखाई देती हैं।

राममूर्ति का मानना है कि हतोत्साह की ऐसी बातें लिंग आधारित भी हो सकती हैं। उदाहरण के लिए एक महिला को आमतौर पर ऐसी नौकरी करने से रोका जाता है, जिसमें केवल पुरुष ही परफेक्शन के लिए जाने जाते हैं। यदि वह जीवन यापन के लिए बस चलाना चाहती है, तो उसके अपने परिवार सहित सभी लोग उसे वह काम करने से रोकने का प्रयास करते हैं। इस तरह के अनुभव सेल्फ डाउट के बीज बोते हैं और उस व्यक्ति के निर्णय लेने की क्षमता में बाधा डालते हैं। परिणामस्वरूप, उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है। एक नकारात्मकता और एक संदेह की आवाज़ जो उन्हें बार-बार यह कहती है कि ‘आप इस काम में अच्छे नहीं हो’, अंतत: उस व्यक्ति के जीवन पर अपना कब्ज़ा कर लेती है।

आत्म संदेह का काट ढूंढ़ना एक कठिन काम हो सकता है लेकिन यदि हम अपने सपनों को पूरा करने की उम्मीद रखते हैं, तो यह  करना बेहद ज़रूरी होता है। राममूर्ति का कहना है कि किसी व्यक्ति के जीवन में समय के साथ किस तरह से आत्म-संदेह पैदा हुआ है, उसे देखने और स्वीकार करने में ही उसका समाधान जुड़ा है। वे कहती हैं, ‘सही तरीके से सोचने के लिए यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि हम अपनी खामियों को गले लगाएं और अपनी कमियों के बावजूद खुद पर भरोसा करें व हर काम को करने में सक्षम बनें। यही इसका सबसे सटीक उपाय है।’

दुनिया में सभी यहां तक कि हमारे प्रियजन भी हमेशा हमारी क्षमताओं पर विश्वास नहीं करते। ऐसे समय में, आत्मविश्वास को ठेस पहुंचाने वाले विचारों पर ध्यान देने की बजाय हमें अपनी क्षमताओं पर विश्वास करने, सक्षम रहने और उन कार्यों को पूरा करने की आवश्यकता है, जो हम करना चाहते हैं।

19वीं सदी के प्रसिद्ध कलाकार वैन गॉग ने एक बार कहा था, ‘यदि आप अपने भीतर एक आवाज़ सुनते हैं, जो आपसे कहती है कि आप चित्र नहीं बना सकते, तो हर हाल में आप चित्र बनाएं। आप उस लायक सक्षम बनें, तब आप देखेंगे कि वह आवाज़ अपने आप शांत हो गई है’।