अटूट बंधन

अटूट बंधन

माता-पिता अपने बच्चों के साथ मित्रता वाला व्यवहार नहीं कर सकते हैं। लेकिन दादा-दादी, नाना-नानी यह काम बगैर किसी हिचकिचाहट के कर लेते हैं।

जब मैं छोटा था, तो मेरे दादाजी स्कूल बस तक मुझे छोड़ने जाने से पहले मेरे जूते का फीता बांध दिया करते थे। फिर जब मैं हाई स्कूल में पहुंचा, तो वे बस स्टैंड पर खड़े होकर स्कूल से मेरे लौटने का इंतजार करते। कॉलेज खत्म होने के बाद जब मैंने नौकरी शुरू की, तो ऑफिस से लौटने के समय मैं जब भींग जाता था, तो दादाजी घर लौटते ही तौलिया लेकर मेरा सिर पोंछना शुरू कर देते थे।

अगर कोई बच्चा अपने दादा-दादी के साथ रहकर बड़ा होता है, तो आमतौर पर वह थोड़ा बिगड़ ही जाता है। यह बात मैं इतने दावे से इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं इसका जीता-जागता उदाहरण हूं। मैं ना खाना बनाता था, ना मैं साफ-सफाई रखता था और ना ही खुद का ध्यान रखता था। मेरी मां इसको लेकर काफी परेशान रहती थी। यह 20 वर्ष की उम्र तक चलता रहा। इसके बाद अकेले रहना मेरी मजबूरी हो गयी।

मेरी दादी ने मुझे कभी कुछ नहीं करने दिया। मां मुझे कुछ कहे इससे पहले ही दादी मेरे हिस्से की सफाई और दूसरे काम कर दिया करती थी। इसी वजह से मैं दादा-दादी के काफी करीब आ गया। इससे हमारे बीच एक अटूट बंधन (Unbreakable Bond) बन गया।

कुछ मामलों में दादा-दादी और पोते-पोती के बीच ऐसा अटूट बंधन तैयार हो जाता है कि यह माता-पिता के लिए परेशानी का सबब बन जाता है। रिसर्च प्रोफेशनल देवसेना त्यागराजन को इस बात से इत्तेफाक रखते हैं, क्योंकि उन्होंने भी शुरुआती ज़िंदगी दादा-दादी के साथ ही बिताया था। उनके अनुसार “मेरे माता-पिता नौकरी करते थे। ऐसे में जब भी मैं स्कूल से वापस आती थी, तो अपने दिन भर के बारे में दादा-दादी को बताती थी। मेरी मां इस बात को लेकर परेशान रहती कि मेरे स्कूल लाइफ के बारे में उनसे ज्यादा जानकारी दादा-दादी के पास होती थी। मैंने स्कूल में किसके साथ झगड़ा किया, कौन-सा विषय मुझे अच्छा लगता है, किस शिक्षक को मैं सबसे ज्यादा अच्छी लगती हूं आदि।” इससे दादा-दादी से मेरा अटूट बंधन कायम हो गया।

मेरे दादा के परिवार में प्रसव होने पर महिलाओं को मायके भेज दिया जाता था, ताकि उन्हें इस दौरान आराम मिल सके और बच्चे को पालने में सहयोग मिल सके। लेकिन जब मेरा जन्म हुआ, तो मेरे दादा-दादी इतने खुश हुए कि उन्होंने मेरी मां को अपने ही पास रखने की ज़िद पकड़ ली।

समाजशास्त्री सारा मूरमान दादा-दादी और पोता-पोती के बीच के बंधन पर किए गए अध्ययन की मुख्य लेखिका हैं। उनके अध्ययन के अनुसार यह अटूट बंधन दोनों के लिए भावनात्मक रूप से फायदेमंद होता है। पोता-पोती का ध्यान रखते हुए दादा-दादी को यह लगता है कि उनकी भी जिम्मेदारी है और परिवार उनकी इस भूमिका की कद्र करता है। वे खुद को उपयोगी समझते हैं। मेरे नाना-नानी भी इस बात का उदाहरण हैं।

दादा-दादी यह जताए बगैर काफी कुछ सिखा देते हैं कि आपको यह बात सिखाई जा रही है। वे खुद की चिंता नहीं करते, बस आपका भला देखते हैं। वो जितना अपना ध्यान नहीं रखते उससे ज्यादा आपका रखते हैं। वे हमारे अभिभावक से भी कहीं ज्यादा होते हैं। वे हमारे सबसे खास दोस्त होते हैं। वे इंसानों के रूप में धरती पर फरिश्ता होते हैं। यही अटूट बंधन होता है।

ऐसे में साफ है कि जो रिश्ता कोई लड़का/लड़की अपने दादी-दादी के साथ जोड़ते हैं, वह रिश्ता माता-पिता से जुड़े रिश्ते से अलग होता है। जो अटूट बंधन होता है। माता-पिता आपको बताते हैं कि क्या नहीं करना है, जबकि दादा-दादी आपको बताते हैं कि आप क्या कर सकते हैं। वे आपको अपने दिल की सुनने की सीख देते हैं।

मेरे माता-पिता ने हमेशा मेरे साहित्य पढ़ने की खिलाफत की, जबकि मेरे दादा-दादी मुझे एक बड़े लेखक के रूप में देखा करते थे। मुझे खुशी है कि मैंने दादा-दादी की बात मानी, नहीं तो आप आज यह लेख नहीं पढ़ रहे होते।

हमें यहां माता-पिता का भी पक्ष रखना चाहिए। वे चाहते हैं कि उनका बच्चा अनुशासन में बड़ा हो। लेकिन दादा-दादी नियमों में ढील देना सिखा चुके होते हैं। इसलिए पोता-पोती, दादा-दादी से वह बात भी कर लेते हैं, जो वह अपने माता-पिता के साथ नहीं कर सकते हैं। वंदना जे श्रीधर कहती हैं कि उनके दादा-दादी के वह ज्यादा करीब हैं, क्योंकि वे उसे कभी डांट नहीं लगाते, जबकि उसे माता-पिता से डर लगता है। वह कहती हैं “जब वह पांच वर्ष की थीं तब से अपनी नानी के साथ रहती हैं। वह नानी को अपना सबसे करीबी दोस्त मानकर उन्हें सारी बातें बताती हैं। नानी उसकी हमराज हैं।” नानी के साथ उनका अटूट बंधन है।

यह देखना सुखद है कि किस प्रकार दादा-दादी अपने पोता-पोती की ज़िंदगी को आसान कर देते हैं। यह देखकर मुझे फिल्म क्वीन का एक सीन याद आता है। फिल्म में रानी का किरदार निभाने वाली युवती विवाह टूटने के बाद खुद को एक कमरे में बंद कर लेती है, तब उसकी दादी कमरे के बाहर बैठकर उसे समझाती है कि कैसे उन्हें भी उनका पहला प्यार नहीं मिला था। यदि किस्मत में होगा, तो उसे कोई और अच्छा लड़का, शायद विदेशी भी मिल जाएगा।

शायद, प्रत्येक माता-पिता (Mata Pita) अपने बच्चों के साथ खुलकर बात नहीं कर पाते। लेकिन दादा-दादी (रानी की दादी की तरह) यह काम आसानी से कर लेते हैं। वे इस प्रक्रिया में बच्चों को ज्ञान देते हैं और उन्हें समझदार भी बनाते हैं। खेल-खेल में ही दादा-दादी हमें जीवन का पाठ पढ़ा देते हैं। वे आपको बेहिसाब प्यार देते हैं और बदले में प्यार के अलावा कुछ नहीं मांगते। वह हमारे अभिभावक से भी कहीं ज्यादा होते हैं। वे हमारे सबसे खास दोस्त होते हैं। वे इंसानों के रूप में धरती पर फरिश्ता होते हैं। यही अटूट बंधन है।

इसलिए यह कहना सही होगा कि दादा-दादी हमेशा अपने पोता-पोती के दिल में ऐसी जगह बना लेते हैं, जो कोई भी नहीं बना सकता।

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