आपमें से ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने ‘ब्रेकिंग बैड’ (Breaking Bad) और ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ (Games of thrones) के एक के बाद एक सीजन केवल इसलिए देखे हैं, क्योंकि आप आधुनिक बनना चाहते थे? मैंने देखे हैं। हर बातचीत फिर चाहे वह हकीकत की दुनिया में हो या काल्पनिक दुनिया में इन्हीं हिट टीवी शो (Tv Show) को लेकर होती थी। यदि आपको यह नहीं पता कि हाइजेनबर्ग कौन है या फिर किंग ज्योफ्री का कत्ल किसने किया है, तो आपको तुरंत ही ‘अजीब इंसान’ कह दिया जाता था। कम से कम मेरा तो यही सोचना था।
जमाने से पीछे छूट जाने के चक्कर में मैं ‘आधुनिक’ बनने की सनक पाल बैठी। स्किन टाइट जींस पहनने और उतारने का अनुभव आप जानते ही हैं। यह लगभग नर्क का चक्कर लगाकर आने जैसा होता है। बावजूद इसके मैंने दो खरीदी, क्योंकि वो उस वक्त फैशन में थी (इसलिए नहीं कि वह सुंदर दिखती थी)।
जब पहली बार मेरी पहचान शहर के मध्यम वर्गीय सोसायटी (middle class society) के रहन–सहन की शैली से हुई, तो मैं बेसब्री से कहीं न कहीं उसमें जगह पाना चाहती थी। विशेषकर अपनी उम्र के उस वर्ग के साथ, जिसकी ओर सभी की निगाहें होती थी। जब मैं हाई स्कूल में थी, तब मैं ऐसे दोस्तों के साथ घूमना पसंद करती थी, जो ‘बैकस्ट्रीट ब्वॉयज ’ (हां! बैकस्ट्रीट ब्वॉज) को सुनते और ‘हैरी पॉटर’ (Harry Potter) की नॉवेल्स पढ़ा करते थे। कॉलेज में ऐसा संगीत सुनती थी, जो मुझे समझ ही नहीं आता था। मैं उसकी प्रशंसा भी करती और उसे अपनी प्लेलिस्ट (Playlist) में शामिल भी करती। उनमें से एक होने की यह अनिवार्यता यहीं पर खत्म नहीं होती थी। यह मेरी परछाई बन गई थी, जो मेरे हर फैसले पर नज़र रखती और यह देखा करती कि क्या मैं उन लोगों के बीच फिट बैठती हूं या नहीं।
कुछ पहचाना सा लगा? आइए, आपका एक ऐसी दुनिया में स्वागत है, जिसमें आप खुद को नहीं पहचानते, लेकिन वहां जा रहे हैं।
आधुनिक बनने की चाहत में मुझे एहसास ही नहीं हुआ कि मैं उन बातों को नज़रअंदाज़ कर रही हूं, जो सच में मेरे व्यक्तित्व को निखारने के काम आ सकती थी। मैं, मेरी ताकत, कमजोरी, पसंद, नापसंद, क्षमता, प्रतिभा और न जाने कौन–कौन सी बात को पहचानना ही भूल गई। मेरा दिन अब उन बातों को सुनने और करने में गुजरता था, जिन्हें न मैं समझती थी और न ही करना चाहती थी।
फिर भी मैं आधुनिकता का हिस्सा बनने के लिए खुद को उस ओर ढकेलती गई। मुझे अच्छी तरह याद है कि खुद को मिसफिट महसूस करने की वजह से मेरी रातों की नींद उड़ गई थी। आधुनिक बनने के प्रयास में मैं आत्मविश्वास खोती जा रही थी।
मैं तो यह कहूंगी कि नए ज़माने के लिए अपनी छवि को बदलना न केवल थका देने वाला और कठिन काम है बल्कि यह आपके आत्म–सम्मान को भी ठेस पहुंचाता है। ऐसा लगता था जैसे मैं रोज किसी ऐसे इंसान का मुखौटा पहन कर घर से निकलती हूं, जिसे लोग पसंद भी करते हैं और जलते भी हैं। जो मैं थी और जो मैं होने का दिखावा कर रही थी उसके बीच काफी कश्मकश थी। यह स्थिति मुझे न केवल घुटन दे रही थी, बल्कि भ्रमित भी कर रही थी। खुद को ही पाने का एक अंतहीन संघर्ष चल रहा था। खुद में कमी का एक भाव था, जिसकी वजह से मैं खुद को एक अलग दुनिया में फिट साबित करने का संघर्ष कर रही थी।
यह सिर्फ मेरी कहानी नहीं है। कहीं न कहीं आप भी खुद को मेरी जगह पाते हैं। तो हम कैसे इस अंदरूनी संघर्ष को पहचान सकते हैं?
किसी ने सच ही कहा है कि आपको हर स्थिति कुछ न कुछ सिखाती है। मुझे पता था यह स्थिति भी उससे जुदा नहीं है। मैंने इसके सकारात्मक हिस्से को देखा। यदि मैं खुद को मिसफिट (Miss Fit) मानती, तो खुद को नए सिरे से देखना शुरू करती। मैंने कई किताबें पढ़ीं, अलग–अलग संगीत सुना और खाना पकाना सीखा। यह देखने के लिए आखिर मुझे क्या पसंद है। परिप्रेक्ष्य में ऐसा करने से मुझे खुद को ही पहचानने की नई दृष्टि मिली।
मैं मामले की और गहराई में गई। यह जानने के लिए कि क्यों हमारे जैसे विकसित और बुद्धिमान लोग अपना समय और ताकत दूसरों जैसा (परफेक्ट या फिर परफेक्ट होने के आस–पास) बनने में खर्च कर देते हैं, जबकि यही चीज़ें खुद को बेहतर बनाने में हमारी मदद कर सकती हैं।
इसी एहसास ने मुझे खुद को जानने में मदद की। मैंने इस वजह से यह जाना कि दूसरों द्वारा कबूल किए जाने की इच्छा और उनके स्नेह प्राप्त करने की लालसा हमें कुछ बातों को स्वीकार करने या उनका अनुपालन करने पर मजबूर कर देती है। स्वीकृति की इसी भावना ने मुझे खुद की शख्सियत को पहचानने की राह पर चलने को मजबूर कर दिया। एक दिन मैंने खुद ही अपने नजरिए पर सवाल उठाए।
और चमत्कार हो गया। मैंने खुद को हल्का और खुश महसूस किया। मैंने खुद की अपनी उम्र के लोगों से स्वीकृति पाने की इच्छा खत्म कर दी। ऐसा करते ही सब तरफ से प्रशंसा होने लगी। स्कूल की साधारण सी लड़की ने अब खुद को पहचान लिया था। वह जैसी थी उसी में खुश थी। यह बात और है कि जब मैं बड़ी हो गई तब तक पढ़ाकू होने को ही आधुनिक समझा जाने लगा। बस इस बार इस बात से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था।
समय बदलता है और आपका नजरिया भी। आज से 10 साल बाद किसी को यह फर्क नहीं पड़ेगा कि मैं आधुनिक (Cool) थी या नहीं। यही मायने रखेगा कि मैंने कितने दिलों को खुशी दी, कितनों को अच्छी यादें दी, कितनी अच्छी यादे समेटी, कितने दोस्त बनाए और कितनी जिंदगियों को छुआ
यह सब आधुनिक बनने से कई गुना बेहतर है न ! क्या आप सहमत हैं?